वही व्यक्ति स्मृतिवान, कृतिमान एवं मूल्यवान होता है जिसके जीवन में सेवा, परोपकार, धर्म की अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। जीवन में ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी जिनकी प्रासंगिकता बनी रहती है। राजस्थान की माटी ऐसे महाजन, महाधन एवं महाकर्म व्यक्तियों से सुशोभित होती रही है। राजस्थान के सुजानगढ़ में जन्में एवं कोलकता, मुंबई एवं दिल्ली में कर्म करते हुए समृद्धि के उच्चे शिखरों पर सवार होकर भी अकिंचन का परोपकारी एवं धार्मिक जीवन जीने वाले श्री फतेहचन्दजी भंसाली का निधन न केवल तेरापंथ समाज बल्कि सम्पूर्ण जैन समाज-मारवाडी समाज की एक अपूरणीय क्षति है। उनका 2 अगस्त 2019 की मध्यरात्रि में मुंबई में 7 मिनट के संथारे में समाधिमरण पूर्वक हुआ। इस तरह उन्होंने अपनी मृत्यु को भी महोत्सव का रूप दिया। वे न बड़े राजनेता थे, न विशिष्ट धार्मिक नेता थे और न ही समाजनेता ही थे। पर उनमें गुरु-भक्ति की ऐसी लगन रही कि उन्हें 250 वर्षों के तेरापंथ के इतिहास में विरल श्रावक होने का गौरव प्राप्त हुआ। वे स्नेह एवं सौजन्य की छांह देने वाले बरगद थे तो गहन मानवीय चेतना के चितेरे थे।
श्री फतेहचन्दजी भंसाली के जीवन को देखकर कहा जा सकता है कि जीना इसी का नाम है। वे एक अनूठे एवं विलक्षण गुरुभक्त थे, जिन्होंने भक्ति और समर्पण, सेवा और परोपकार, पारिवारिकता एवं धार्मिकता की एक अद्भूत मिसाल कायम की है। किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है। फतेहचंदजी भंसाली के लिए जीने का नाम और सिद्धान्त भी गहन रहा है जिसमें उनका दिल और द्वार सदा और सभी के लिये खुला रहा अनाकांक्ष भाव से जैसे यह उनके स्वभाव का ही एक अंग हो। वे कैसी भी स्थिति क्यों न हो, खुश रहने का संदेश देते रहे हैं। क्योंकि दुखी होने से कुछ भी हासिल नहीं होता। साथ-ही-साथ वे इस तरह जीवन जीते रहे कि आपको महसूस होगा कि जीवन में खुशी, सफलता, प्यार, अपनापन और गुरुनिष्ठा पाने के लिए सही नजरिए का होना बहुत जरूरी है। उनका जीवन हमें बताता है कि किस प्रकार अपने रिश्तों को- चाहे वे पति-पत्नी, बच्चों, ससुराल पक्ष, नाती-पोतों या फिर गुरुओं के साथ ही क्यों न हो, खुशहाल बना सकते हैं। आप किस तरह से अपने पारिवारिक जीवन को खुशहाल बनाते हुए गुरुओं की असीम कृपा के पात्र बन सकते हैं।
अपने गुरुओं एवं आचार्यों की सेवा में जिन्हें चारों धाम नजर आते थे, वहीं उनको काबा दिखाई देता था, वहीं उनका चर्च था, गुरुद्वारा था। उनका विश्वास था कि जीवन सिर्फ एक बार मिलता है और अगर उसे गुरुओं की सेवा एवं परोपकार में लगा दिया जाए तो इससे बड़ी जीवन की सार्थकता नहीं है और उनके लिए वहीं उम्मीद की रोशनी है और वहीं जीवन भी है। उनकी भक्ति को देखकर आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण ने भी गजब मूल्यांकन किया है और कह दिया है कि ऐसी भक्ति, ऐसा समर्पण तेरापंथ धर्मसंघ 250 वर्षों के इतिहास में दुर्लभ है। वे तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास के विरल श्रावक हैं। वे भक्ति के सिरमौर, सेवा एवं जनकल्याण के शिखर एवं समर्पण के सागर थे। तेरापंथ धर्मसंघ की ऐतिहासिक नगरी सुजानगढ़ ने जहां अनेक विलक्षण साधु-साध्वी धर्मसंघ को दिए वहीं यहां के श्रावकों का भी अनूठा इतिहास है। उनमें फतेहचंदजी सिरमौर हैं। इसी धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी में आपका जन्म 6 नवम्बर 1929 को अपने ननिहाल (सुजानगढ़) में मातुश्री झमकूदेवी की कुक्षी से हुआ। आपके दादा श्री मोहनलालजी एवं पिताश्री लिखमीचंदजी भंसाली तेरापंथ समाज के एक विशिष्ट एवं समर्पित श्रावक थे। फतेेहचंदजी के जन्म के समय की घटनाओं ने आपके विलक्षण एवं विशिष्ट व्यक्तित्व होने का संकेत दे दिया था। क्योंकि आपके परिवार के ईष्ट देवताओं ने पहले से ही घोषित कर दिया था कि जन्म लेने वाला लड़का ही होगा और वह जीतने वाला और फतेह करने वाला होगा जो अपने पुरुषार्थ से न केवल समाज में बल्कि राष्ट्र में विशिष्ट पहचान बनायेगा।
व्यापार से निवृत्ति के बाद श्री फतेहचंदजी का अधिकांश समय गुरुदेव आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ एवं वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण की सेवा में, जहां वे होते हैं वहीं पर व्यतीत करते थे। उन पर आचार्यों की विशेष कृपा प्रारंभ से ही रही है। तीन-तीन तेजस्वी आचार्यों ने उनकी भक्ति, उनकी श्रद्धा, उनकी सादगी, उनका समर्पण देखकर उन्हें अपना विश्वस्त श्रावक मानने के साथ उन्हें अनेक तरह की अघोषित बक्शीशें दी थीं। जैसे- वे आचार्य दरबार में चाहे जब उपस्थित हो सकते हैं। फतेहचंदजी भंसाली पर सातों सुखों का वास रहा। पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख घर में माया, तीसरा सुख सुखद पारिवारिक साया, चैथा सुख आज्ञाकारी पुत्र, पांचवां सुख गुरु का साया, छठा सुख सार्वजनिक प्रतिष्ठा एवं सातवां सुख व्यक्तित्व विकास। इन सातों सुखों को लेकर उनकी पौत्रवधू आरती एवं खुशबू ने ‘सातों सुख’ पुस्तक लिखी जिसका विमोचन आचार्य श्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में केलवा (राजस्थान) में हुआ। फतेहचंदजी भंसाली न केवल तेरापंथ समाज की सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं में सक्रियता से जुड़े रहे बल्कि अपने उदार सहयोग से इन संस्थाओं को आगे बढ़ाने में योगदान दिया है।
उनकी एक विशेष रूचि समाज उपयोग के लिए बर्तनों को लेकर रही है। अपने मूल ग्राम सुजानगढ़ में दस हजार लोगों के उपयोग में आये इतना बड़ा बर्तनों का भंडार है। इसके अलावा गरीबों की सहायता, शिक्षा की रूचि, गरीब बच्चों की छात्रवृत्ति, कन्याओं के विवाह में सहयोग आदि परोपकार के कार्य आप निरंतर करते रहे हैं। शिक्षा आपके जीवन का प्रमुख ध्येय रहा है। यही कारण है कि देश में विभिन्न स्थानों पर आपके अनुदान से अनेक शिक्षण-संस्थाएं संचालित हैं। गाजियाबाद के सूर्यनगर का प्रमुख शैक्षणिक संस्थान ‘विद्या भारती स्कूल’ आप ही के द्वारा संचालित और पोषित है। गुजरात के आदिवासी अंचल में आदिवासी बच्चों के लिये संचालित सुखी परिवार एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय भी आपके ही सहयोग से निर्मित है। जैन विश्व भारती, जय तुलसी फाउण्डेशन, भिक्षु फाउण्डेशन जैसी राजस्थान की अनेक संस्थाओं में आपने समय-समय पर आर्थिक अनुदान प्रदत्त किया। निश्चित ही फतेहचंदजी भंसाली का संपूर्ण जीवन एवं उनकी गुरुभक्ति एक विरल श्रावक की जीवनगाथा है। जो सबके लिए अनुकरणीय और प्रेरक है।
असल में यह एक ऐसा आदर्श जीवन है जिसके हर कोण से, हर मोड़ से, हर क्षण से, हर घटना से आदर्श जीवन जीने की एवं जीवन को प्रेरक बनाने की प्रेरणा मिलती है। ऐसा आदर्श जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का माध्यम है। नवें दशक में भी अपने जीवन को सुखमय, तनावरहित, स्वस्थ, सक्रिय, समृद्ध कैसे बनाए रख सकता है, इसका जीवंत दस्तावेज है भंसालीजी का जीवन। बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति आशंकाओं, दुश्चिन्ताओं, परेशानियों एवं पारिवारिक उलझनों से घिरा रहता है। ये स्थितियां जहां कुछ स्वयं के द्वारा निर्मित होती है तो कुछ के लिए परिवार एवं समाज जिम्मेवार होता है। कैसे हमारे जीवन की सांझ सुखद, शांतिमय एवं स्वस्थ बने, इसकी प्रेरणा हमें फतेहचंदजी भंसाली के जीवन से मिलती है। उनका जीवन जहां पारिवारिक जीवन में खुशहाली का माध्यम बना तो व्यापार में उन्नति का प्रेरक भी बना। यह जीवन जहां आध्यात्मिक-धार्मिक आदर्शों की नई परिभाषाएं गढ़ता रहा वहीं सामाजिकता को उन्नति के शिखर भी देता रहा। उन्होंने जहां व्यक्तित्व विकास की नई दिशाओं को उद्घाटित किया वहीं जीवन की अनंत संभावनाओं को भी उजागर किया। जिन-जिन लोगों ने इस आदर्श व्यक्तित्व को देखा, उनका सान्निध्य पाया, वे सभी उनके निधन पर गहरी रिक्तता का अनुभव कर रहे हैं।
आज बौद्धिक और आर्थिक विकास की ओर सबका आकर्षण बढ़ रहा है। लेकिन फतेहचंदजी भंसाली बौद्धिक और आर्थिक प्रगति के साथ सद्गुणों और सत्संस्कारों का समन्वय भी किया है। उसके बिना कोई भी विकास न स्वयं के लिए कल्याणकारी होता है और न ही समाज के लिए लाभप्रद होता है। जिस प्रकार भावना की ऊंचाई के साथ गहराई का संतुलन अपेक्षित है, उसी प्रकार जीवन में बाहरी ऊंचाई के साथ गुणों और आदर्शों की गहराई भी आवश्यक है। इन्हीं गुणों की ऊंचाई और आदर्शों की गहराई फतेहचंदजी भंसाली के जीवन में परिव्याप्त रही हैं। उनके जीवन आदर्श जन-जन के लिये प्रेरक हैं। जिसमें दुनिया को जीतने, ऊर्जा से भरपूर होने, जीवन का अंदाज बदलने, नया बनने और नया सीखने, विश्वास की शक्ति को जागृत करने, विजेता की तरह सोचने, महान बनने, आत्मविश्वास-दृढ़ता को प्रगट करने, अपनी योग्यताएं बढ़ाने, व्यावसायिक श्रेष्ठता साबित करने, आध्यात्मिक गौरव पाने, वैचारिक विनम्रता को प्रगट करने की बातें समायी हुई हैं। दिल में रख लेने के काबिल इस फरिश्ते के प्रति श्रद्धा कुसुमांजलि! प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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