Thursday, November 28, 2024
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हिंदी के हत्यारे हैं हिंदी की खाने वाले फिल्मी दुनिया के लोग

एक डॉन्स रिएलिटी शो की राइटिंग टीम का हिस्सा रही सरगुन शर्मा, मिथुन चक्रवर्ती से जुड़ा एक अनुभव बताती हैं. सरगुन कहती हैं, ‘मिथुन दा अपनी लाइनें हिंदी यानी देवनागरी लिपि में लिखी हुई चाहते थे. सो उनके लिए हमें अलग से स्क्रिप्ट को हिंदी में टाइप करना पड़ता था नहीं तो वे कागज उठाकर फेंक देते थे. उन्हें हिंदी को अंग्रेजी (रोमन) में पढ़ने पर सख्त आपत्ति थी.’ यह किस्सा पूरी तरह से समझ में आए इसलिए बताते चलते हैं कि फिल्म या टीवी इंडस्ट्री में किसी भी भाषा में काम हो रहा हो, स्क्रिप्ट और संवाद हमेशा रोमन लिपि में लिखे जाते हैं. इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि इस इंडस्ट्री में अलग-अलग तरह के बैकग्राउंड से आए लोग शामिल हैं. इनमें से कई हिंदी बोल और समझ तो लेते हैं लेकिन उसे पढ़ भी सकें, यह जरूरी नहीं है. इसके अलावा सबसे ऊंचे पदों पर बैठे लोग, खासकर वे जो फैसले लेने के लिए जवाबदार होते हैं, आमतौर पर हिंदी के मामले में कमजोर होते हैं. ऐसे में अंग्रेजी का इस्तेमाल जरूरत और मजबूरी दोनों बन जाता है.

दर्शक भले ही इस बात की शिकायत करते रहें कि परदे पर आने वाली कहानियां एकदम अंग्रेजीदां तरीकों से सोची और परोसी जाती हैं लेकिन सच यही है कि बॉलीवुड यानी हिंदी फिल्म उद्योग केवल नामभर का हिंदी भाषी उद्योग है. साथ ही यह एक दूसरा सच है कि हर फिल्म या फिल्मकार पर यह इल्जाम नहीं लगाया जा सकता. कई नाम ऐसे हैं जिन्होंने हिंदीभाषी तबके की बेहद आम कहानियां परदे तक पहुंचाई हैं. ऐसा करते हुए उन्होंने इस भाषा को ठीक वैसे ही इस्तेमाल किया है जैसे इसे होना चाहिए. इन सबका नतीजा यह रहा कि ये फिल्मकार या सितारे बॉलीवुड में हिंदी के पैरोकार बन गए. ये पहले हिंदी से पहचान बनाने वाले बने और फिर खुद हिंदी की पहचान माने जाने लगे. लेकिन इस सबके बीच बुरा यह है कि कई बार ये भी हिंदी को उतनी गंभीरता से लेते नहीं दिखते, जितना लेना चाहिए.

इनमें पहला उदाहरण मशहूर निर्देशक और संगीतकार विशाल भारद्वाज का है. उनकी आखिरी रिलीज फिल्म ‘पटाखा’ की शुरुआत में आने वाला यह डिस्क्लेमर बताता है कि हिंदी लिखते हुए कितनी लापरवाही बरती जाती है. इसकी इबारत है ‘यह फिल्म किसी भी तरह से घरेलू हिंसा, खासकर बच्चे और महिलाओं के प्रति हिंसा का समर्थन ना देती है ना बढ़ावा देती है.’ एक लाइन के इस कथन में हिंदी की चार-पांच गलतियां आराम से नज़र आ जाती हैं, वह भी तब जब आप विराम चिन्हों का जिक्र न कर रहे हों. ऊपर-ऊपर की ही गलतियों को देखकर कोई भी बता सकता है कि वाक्य में ‘बच्चों और महिलाओं’ या ‘समर्थन नहीं करती’ लिखा जाना चाहिए था.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से फिल्मी नगरी पहुंचे भारद्वाज उन शुरुआती फिल्मकारों में से हैं जिन्होंने अपनी तरह की फिल्में और संगीत बनाने के लिए बॉलीवुड में पैर पटक-पटककर जिद की. इसके लिए वे घमंडी और बदमिजाज़ भी समझे गए. पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहे गए उन्हीं के शब्दों पर जाएं तो हिंदी ही वह भाषा थी जिसे वे सबसे अच्छे से समझते हैं और सालों तक केवल इसे बोलते रहे हैं. इसके बाद भी उनकी फिल्म के डिस्क्लेमर में गलत हिंदी लिखी दिखाई देती है. हालांकि यह कोई बहुत बड़ी गलती नहीं है और यह भी हो सकता है कि इसके बारे में उन्हें मालूम या याद भी न हो कि यह डिस्क्लेमर फिल्म का हिस्सा है. फिर भी यह खटकने वाली बात तो है ही.

 

 

ऐसा ही एक उदाहरण अनुराग कश्यप की सबसे चर्चित फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का है. इस फिल्म में इस्तेमाल किए डिस्क्लेमर में भी कई भाषाई गलतियां है. कश्यप भी हिंदी के झंडाबरदार लेखकों और निर्देशकों में गिने जाते हैं. कुछ समय पहले एक नेटफ्लिक्स सीरीज में नज़र आए अनुराग कश्यप ने कहा था कि वे जब मुंबई पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उन्होंने पूरी फिल्म बिरादरी में शायद सबसे ज्यादा हिंदी किताबें पढ़ी हैं. कश्यप का दावा है कि उन्होंने अपने आसपास मौजूद हिंदी की लगभग हर किताब पढ़ डाली थी. हिंदी साहित्य के इतने करीब रहने वाले फिल्मकार की फिल्म में भाषा से जुड़ी यह गलती मखमल में टाट का पैबंद ही लगती है.

इस क्रम में तीसरा उदाहरण सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का है. एक रिएलिटी टीवी शो की एंकरिंग करते हुए बच्चन साहब ने साहित्यिक हिंदी को बोलचाल की भाषा बना दिया था. हर खुश करने वाली बात पर हमारे मुंह से अगर ‘अद्भुत’ शब्द निकलता है तो यह उन्हीं की देन है. लेकिन फिलहाल वे ट्विटर पर ऐसा करते हुए नज़र नहीं आते. यहां पर उनके लिखे में भाषा और वर्तनी की गलतियां अक्सर ही दिख जाती हैं. उनकी हिंदी को सुनना जितना अधिक खुश करने वाला है, पढ़ना उतनी ही खीझ पैदा कर देता है. यह कहा जा सकता है कि ट्विटर उनका अपना निजी मंच है जहां पर वे जैसी चाहें वैसी भाषा लिख सकते हैं. लेकिन यह कहते हुए ये कैसे भूला जाए कि वे हिंदी के उतने ही बड़े प्रतीक भी हैं और लाखों लोग आज भी उनसे प्रेरित होते हैं.

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से

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