हिंसा, अलगाव, आतंक और अविश्वास के अंधेरों से जूझती मानवता को आज सबको सन्मति देने वाली आवाज़ की फिर ज़रुरत है। प्रतिशोध पर निरंतर शोधरत दिग्भ्रमित मानव को आज सत्यशोध के सही दिशाबोध से ही समाधान मिल सकता है। अहिंसा और प्रेम का प्रस्ताव हिन्दुस्तान को बेइंतिहां सताने वाली ब्रितानी हुकूमत को भी भेजने वाले राष्ट्रपिता को मालूम था इसके अलावा कोई भी मार्ग मानवता की अंतिम मुक्ति का राजपथ नहीं बन सकता। यही कारण है महात्मा गाँधी का जीवन जैन संस्कारों से प्रभावित था।
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याद रहे कि जब मोहनदास करमचंद गाँधी ने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी तब उस समय एक जैन मुनि बेचर जी स्वामी के समक्ष मोहनदास के द्वारा तीन प्रतिज्ञा, माँस, मदिरा व परस्त्री सेवन का त्याग करने पर माँ ने विदेश जाने की अनुमति दी। यह बात गाँधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग के पृ. 32 पर लिखी है। गांधीजी ने अहिंसा को आत्मबल के विकास और आत्मशुद्धि का अचूक उपाय माना। अहिंसा जैन धर्म की आचार संहिता है जिसे गांधी ने राजनीति की व्यवहार संहिता बनाने में अपना सर्वस्व दान कर दिया। वास्तव में उनका जीवन अहिंसा के पालन के अदम्य साहस अनोखा सन्देश है। इसीलिए अहिंसा वीरों का धर्म है। अहिंसक आचरण वीरों का कर्म है। अहिंसामूलक चिंतन वीरों के जीवन का मर्म है।
महात्मा गांधी ने साफ़ शब्दों में समझाया है कि अहिंसा सबसे बड़ा कर्तव्य है। उन्होंने जैन धर्म के प्रभाव को कई बार स्वीकार किया। उन्होंने कहा यदि हम अहिंसा का पूरा पालन नहीं कर सकते हैं तो हमें इसकी भावना को अवश्य समझना चाहिए और जहां तक संभव हो हिंसा से दूर रहकर मानवता का पालन करना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि अहिंसा में इतनी ताकत है कि वह विरोधियों को भी अपना मित्र बना लेती है और उनका प्रेम प्राप्त कर लेती है।
स्पष्ट है कि जैन दर्शन का महात्मा गांधी के जीवन में गहरा प्रभाव था। उनका अहिंसा और सत्य से गहरा संबंध ही नहीं रहा, बल्कि उन्होंने अहिंसा और सत्य के आदर्शों को समझा, अपने जीवन में उतारा और उसे जन आंदोलन के रूप में बदलकर भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति दिलायी। महात्मा गांधी अहिंसा, शांति और सद्भावना के प्रतीक थे, उनके आदर्शों को पूरे अडिग संकल्प के साथ अपनाने से मज़बूत भारत के नव निर्माण का हर सपना पूरा हो सकता है। महात्मा गांधी ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जहां सबको समान अधिकार मिले, सौहार्द पूर्ण वातावरण हो और आर्थिक अभाव ना हो। लोग सभी धर्मों का सम्मान करना सीखें। सर्वमंगल को जीवन की परम प्रार्थना और कामना बनायें। हितकारी लोक व्यवहार में हिंसा के लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता। वहां अहिंसा ही फलीभूत होती है।
महात्मा गाँधी जैन धर्म से बेहद प्रभावित थे, उन्हें अहिंसा की गहराई श्रीमद राजचंद्र जी और वीरचंद राघव जी गांधी से प्राप्त हुई थी। गांधी ने स्वयं श्रीमद् राजचंद्र जी को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार किया था। सत्य और अहिंसा का राजनीतिक प्रयोग करके महात्मा गांधी ने जैन धर्म को अभिनव ऊंचाई दी है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आधुनिक भारतीय चिंतन प्रवाह में गांधी के विचार सर्वकालिक हैं।
स्वाभाविक है कि जब कभी अहिंसा पर चर्चा होती है , बुद्ध, महावीर और गांधी को याद किया जाता है। अक्सर देखा गया है कि धर्म प्रवर्तक उपदेश तो देते हैं , लेकिन खुद वे उन पर चल नहीं पाते। परन्तु यह बात महावीर, बुद्ध व गांधी पर लागू नहीं होती। इन तीनों ही महान आत्माओं ने अहिंसा के महत्व को जाना, परखा, समझा और उसकी राह पर चले। अहिंसा के प्रभावों तथा अनुभवों के आधार पर दूसरों को भी इस राह पर चलने को कहा। इनके लिए अहिंसा जीवन की कसौटी रही। इनका जीवन अहिंसा की प्रयोगशाला बन गया। अहिंसा की पहचान इनके लिए सत्य के साक्षात्कार के समान थी।
भगवान् महावीर व महात्मा बुद्ध के अहिंसा के इन्हीं सिद्धांतों को गांधीजी ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि सिर्फ कर्म से ही नहीं ,मन और वचन से भी हिंसा करने की कोशिश नहीं करें। उन्होंने ऐसी हिंसा को रोकने के लिए ही अनेक बार सत्याग्रह व अनशन किए। और इस तरह अहिंसा के बल पर उन्होंने गुलाम भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया। उन्होंने बुद्ध के कथन – पाप से घृणा करो, पापी से नहीं और महावीर वाणी -जियो और जीने दो का रास्ता अपनाया और यह दिखा दिया कि यह मार्ग हर युग और स्थितियों में समान रूप से प्रभावी साबित होगा।
उल्लेखनीय है कि लगभग 150 साल पहले 30 जून 1867 को गुजरात में एक संत का जन्म हुआ, जिन्हें गुजरात के लोग महात्मा गांधी का आध्यत्मिक गुरु मानते थे। श्रीमद राजचंद्र जिनकी गांधीजी से जब मुलाक़ात हुई तो वे उनके शास्त्र ज्ञान और अध्यात्म चिंतन से अत्यंत प्रभावित हुए। श्रीमद राजचंद्र के धार्मिक ज्ञान और अध्यात्म चिंतन का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में भी किया है।
राष्ट्रपिता ने जैनदर्शन को आत्मसात करके अहिंसा का एक ऐसा प्रायोगिक रूप प्रस्तुत किया जिससे पूरी दुनिया ने परतंत्रता के बंधन तोड़े। वस्तुत: गांधी के पूरे जीवन एवं विचारों में जैन सिद्धान्तों, विशेषतः सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात् दर्शन होते हैं। सभी जीवों पर दया एवं शाकाहार करने मात्र से खाद्यान्न समस्या, जल समस्या, धरती के बढ़ते तापमान आदि पर नियंत्रण किया जा सकता है। गांधीजी के लिए यह अहिंसा वैज्ञानिक तथ्य प्रामाणिक कार्यशाला के समान है।
आज सम्पूर्ण विश्व महात्मा गांधी और उनके अहिंसा के आदर्श को मानता है जबकि महात्मा गांधी के जीवन एवं विचारों से उन पर टॉलस्टाय और जैन धर्म का प्रभाव स्पष्ट हो जाता है। सैकड़ों वर्षों तक मुस्लिम शासकों ने पूरे विश्व में धर्म के नाम पर खून की नदियां बहायीं। घोर स्वार्थ और व्यापारिक कुटिलता के चलते अंग्रेजों ने भारत को भी गुलाम बना लिया। परन्तु अंग्रेजी दासता के खिलाफ अचानक एक आत्मा ने अहिंसा के अचूक अस्त्र सत्याग्रह की शक्ति का परिचय दिया। इस सत्याग्रह ने मोहन को महात्मा बना दिया।
गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह केवल आत्मा का बल है इसलिये जहां और जितने अंश में शस्त्र बल अर्थात् शरीर बल अथवा पशु बल का प्रयोग हो सकता हो अथवा उसकी कल्पना की जा सकती हो वहाँ और उतने अंश में आत्मबल का प्रयोग कम हो जाता है। स्पष्ट रूप से सत्याग्रह की इस अवधारणा पर जैन धर्म की आत्मा और अहिंसक के दर्शन का प्रभाव था। सत्याग्रह के संबंध में बापू कहते हैं— इसमें प्रत्यक्ष गुण या प्रगट अथवा मनसा, वाचा या कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा की गुंजाइश नहीं है।
महात्मा गांधी ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जहां सबको समान अधिकार मिले, प्रेम-स्नेह और सौहार्द का वातावरण हो और आर्थिक अभाव ना हो, इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हम सब गतिशील रहते हैं।भगवान महावीर की शिक्षाओं पर आधारित जैन धर्म में अहिंसा, शांति, अपरिग्रह, सद्भावना जैसे सिद्धान्त विशेष महत्वपूर्ण हैं। महात्मा गांधी विभिन्न धर्मों के बीच एकता तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सौमनस्य के स्वप्नदृष्टा थे।
बौद्ध तथा जैन धर्म ग्रंथों में भी अंहिसा को नीति-चिंतन में सर्वोच्च स्थान दिया है, परंतु गांधी जी ने अहिंसा को सत्तामूलक अर्थ प्रदान किया अर्थात अहिंसा परमसत्ता की अभिव्यक्ति का माध्यम है।उनकी दृष्टि में अहिंसा न सिर्फ मनुष्यों में बल्कि पूरी सृष्टि में व्याप्त है।
सत्य और प्रेम द्वारा ही, व्यावहारिक जगत में ईश्वर की अभिव्यक्ति होती है, यद्यपि वह इनसे परे भी है। गांधी जी की मान्यतानुसार ईश्वर नैतिकता का स्त्रोत है ! तथा समस्त नैतिक व्यवहार अहिंसा के सिद्धान्त द्वारा ही परिचालित हैं। गांधी जी का मानना था कि सभी धर्म सत्य हैं। वस्तुतः सत्य, अहिंसा को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मान्यता देकर गांधी जी ने सार्वभौमिक धर्म का जो आदर्श प्रस्तुत किया वह न सिर्फ समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए महती भूमिका निभा सकती है अपितु विश्व की शांति तथा सुरक्षा के लिए भी महान योगदान दे सकता है।
इस प्रकार अहिंसा जैन संस्कृति की प्राण शक्ति है, जीवन का मूलमंत्र है। महावीर व बुद्ध के अहिंसा के सिद्धांतों को गांधी जी ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कि सिर्फ कर्म से ही नहीं , मन और वचन से भी हिंसा करने की कोशिश नहीं करें। उन्होंने ऐसी होने वाली हिंसा को रोकने के लिए ही अनेक बार सत्याग्रह व अनशन किए। और इस तरह अहिंसा के बल पर उन्होंने गुलाम भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया।
महात्मा गाँधी कहते हैं – शुद्धमन से सहन किया गया सच्चा दुःख पत्थर जैसे हृदय को भी पिघला देता है। इस दु:ख सहन की अथवा तपस्या की ऐसी ही ताकत है और यही सत्याग्रह का रहस्य है। अगर हम भी महात्मा गाँधी की भाँति जैन धर्म के अनुसार आत्मा की अनंत शक्तियों को समझें और मानें तो न केवल हम अपने व्यक्तिगत जीवन को सुखी बना सकते हैं, बल्कि विश्वव्यापी समस्याओं को दूर करके विश्वशांति में अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं।
(लेखक राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक और ख्यातिप्राप्त लेखक व प्रेरक वक्ता हैं)
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