इंदौर। देश के प्रख्यात कवि माणिक वर्मा का मंगलवार सुबह निधन हो गया। सुबह जब परिवार के लोग उन्हें जगाने के लिए पहुंचे तब पता चला कि वे नहीं रहे। पिछले कुछ समय से वे इंदौर में ही परिवार के साथ रह रहे थे। तबीयत खराब होने के बाद भी कविताओं को लेकर वो लगातार सक्रिय बने रहे। माणिक वर्मा जी अपने व्यंगों के जरिए हमेशा मंचों की शान रहे। कुछ समय पहले ही उन्होंने राइटर्स क्लब के मंच पर कविता पाढ़ किया था। माणिक वर्मा का अंतिम संस्कार बुधवार को किया जाएगा। स्व. माणिक वर्मा की रचनाएँ भारत की सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रही। आकाशवाणी व दूरदर्शन पर अनेक बार कविताओं का प्रसारण हुआ।
उन्हें ‘काका हाथरसी पुरस्कार’, ‘अट्टहास शिखर सम्मान’, ‘ठिठोली पुरस्कार’, ‘कलाश्री पुरस्कार’, ‘उपासना पुरस्कार’, ‘टेपा सम्मान ’ एवं ‘कला आचार्य सम्मान’ से सम्मानित किया गया।
उन्होंने अमेरिका, चीन, बैंकॉक, हांगकांग, सिंगापुर, मॉरिशस, नेपाल, मस्कट आदि देशो की यात्रा कर वहाँ काव्यपाठ किया।
स्वर्गीय माणिक वर्मा की कुछ ग़ज़लें
1)
जो सच बोले उसे सूली चढ़ा दो
ये तख़्ती हर कचहरी में लगा दो
तुम्हारा इंडिया तुमको मुबारक़
मेरा भारत कहाँ है, ये बता दो
हमें दुनिया का नक्शा मत बताओ
हमारा घर कहाँ है, ये बता दो
अगर आँसू की क़ीमत ज़िंदगी है
हँसी के दाम क्या होंगे, बता दो
तुम्हारा बस चले ख़ुशबू भी बेचो
गुलाबी जिस्म को काँटा बना दो
दलित नारी है तो नंगा घुमाओ
सती है तो उसे ज़िंदा जला दो
मदद को ज़िंदगी जब भी पुकारे
बजाकर शंख चीखों को दबा दो
यक़ीनन कल जलेगा घर में चूल्हा
ये वादा करके बच्चों को सुला दो
जहाँ बच्चों को अपने बेच आऊँ
कहाँ भारत है वो मेरा, बता दो
दीवाली आपके बच्चे भी देखें
ये माचिस लो हमारा घर जला दो
गरीबी देन है परमात्मा की
ये जिस पुस्तक में लिक्खा है,मिटा दो
कई अवतार आए, और गए भी
कोई इन्सान बदला हो, बता दो
हुईं हैं बोझ हाथों की लकीरें
या बदलो हाथ, या इनको मिटा दो
बनी है ज़िंदगी कोठे की दासी
भले घर की इसे दुल्हन बना दो
छिड़े इक जंग तो मरती हैं सदियाँ
जहाँ मातम न हो वो घर बता दो
घड़ी में इस समय बारह बजे हैं
प्रलय कितने बजे होगी, बता दो
2)
आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है,
प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है।
अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ,
साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है।
ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना,
बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है।
रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल न करना,
ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है।
कितनी ऊँची है नीचाई इस भोले सौदाई की,
आसमान होकर, धरती पर पाँव पाँव ये चलता है।
3)
जब तलक लगती नहीं हैं बोलियाँ मेरे पिता,
तब तलक उठती नहीं हैं डोलियाँ मेरे पिता।
आज भी पगड़ी मिलेगी बेकसों की पाँव में,
ठोकरों में आज भी हैं पसलियाँ मेरे पिता।
बेघरों का आसरा थे जो कभी बरसात में,
उन दरख़्तों पर गिरी हैं बिजलियाँ मेरे पिता
आग से कैसे मचाएँ खूबसूरत ज़िन्दगी,
एक माचिस में कई हैं तीलियाँ मेरे पिता।
जब तलक ज़िंदा रहेगी जाल बुनने की प्रथा,
तब तलक फँसती रहेंगी मछलियाँ मेरे पिता।
जिसका जी चाहे नचायें और एक दिन फूँक दें,
हम नहीं है काठ को वी पुतलियाँ मेरे पिता।
मैंने बचपन में खिलौना तक कभी माँगा नहीं,
मेरा बेटा माँगता है गोलियाँ मेरे पिता।
आपको गुस्से में देखा और फिर देखा गगन,
माँ की आँखों-सी लगी हैं बदलियाँ मेरे पिता।
4)
जब भी चिड़ियों को बुलाकर प्यार से दाने दिए,
इस नई तहज़ीब ने इस पर कई ताने दिए।
जिन उजालों ने किया अंधी गुफ़ाओं से रिहा,
बेड़ियाँ पहनाके हमने उनको तकख़ाने दिए।
हमने माँगी थी ज़रा-सी रोशनी घर के लिए,
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए।
हादसे ऐसे भी गुज़रे उनके मेरे दरमियाँ,
लब रहे ख़ामोश और आँखों ने अफ़साने दिए।
ज़िंदगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है,
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए।
आस्मानों को भी सजदों के लिए झुकना पड़ा,
वो भी क्या सदियाँ थीं, जिनने ऐसे दिवाने दिए।
ज़िंदगी चादर है, धुलके साफ़ हो जायेगी फिर,
इसलिए हमने भी इसमें दाग़ लग जाने दिए।
हाथ में तेज़ाब में फ़ाहे थे मरहम की जगह,
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए।
ज़िंदगी का ग़म नहीं, ग़म है हमें इस बात का,
उनने मुर्दे भी नहीं, क़ब्रों में दफ़नाने दिए।
5)
ऐसा अपनापन भी क्या जो अजनबी महसूस हो,
साथ रहकर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो।
आग बस्ती में लगाकर बोलते हैं, यूँ जलो,
दूर से देखे कोई तो रोशनी महसूस हो।
भीड़ के लोगों सुनो, ये हुक्म है दरबार का,
भूख से ऐसे गिरी कि बन्दगी महसूस हो।
नाम था उसका बगावत कातिलों ने इसलिये,
क़त्ल भी ऐसे किया कि खुदकुशी महसूस हो।
शाख़ पर बैठे परिन्दे कह रहे थे कान में,
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो।
फूल मत दे मुझको, लेकिन बोल तो फूलों से बोल,
जिनको सुनकर तितलियाँ-सी ताज़गी महसूस हो।
आप उस ख़ाली जगह पे नाम लिख़ देना मेरा,
जब हरइक राय में किसी राय की कमी महसूस हो।
शर्त मुर्दों से लगाकर काट दी आधी सदी,
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िंदगी महसूस हो।
हो अगर जज़्बे अमल की बेकली इंसान में,
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो।
सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनिया का निज़ाम,
कोई रोय, आँख में सबकी नमी महसूस हो।
दे रहा हूँ आपको अपना पता मैं इसलिए,
याद कर लेना कभी, मेरी कमी महसूस हो।
6)
आपसे किसने कहा स्वर्णिम शिखर बनकर दिखो,
शौक दिखने का है तो फिर नींव के अंदर दिखो।
‘चल पड़ी तो गर्द बनकर आस्मानों पर दिखो,
और अगर बैठो कहीं, तो मील का पत्थर दिखो।
सिर्फ़ दिखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो।
ज़िंदगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं,
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो।
आपको महसूस होगी तब हरइक दिल की जलन,
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो।
एक ज़ुगनू ने कहा मैं भी तुम्हारे साथ हूँ,
वक़्त की इस धुंध में तुम रोशनी बनकर दिखो।
एक मर्यादा बनी है हम सभी के वास्ते,
गर तुम्हें बनना है मोती सीप के अंदर दिखो।
पंछी ! इनसे आ रही है, कातिलों की आहटें,
लड़के इन पूजाघरों से अपनी शाख़ों पर दिखो।
डर न जाए फूल बनने से कोई नाजुक कली,
तुम ना खिलते फूल पर तितली के टूटे पर दिखो।
कोई ऐसी शक्ल तो मुझको दिखे इस भीड़ में,
मैं जिसे देखूँ उसी में तुम मुझे अक्सर दिखो।
ऐशगाहें चाहती हैं सब लुटा चुकने के बाद,
तुम किसी तंदूर में हँसते हुए जलकर दिखो।
आपको महसूस होगी तब हरिक दिल की जलन
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो
धूप के पौधे लगा कर लोग अपने बाग़ में
चाहते हैं गुलमुहर की छाँव रमजानी चचा
ये भटकते पंछी मुझसे पूछते हैं क्या कहूं
क्यों कटे बरगद के बूढ़े पाँव रमजानी चचा
आप कहते हैं किसी के पास भी माचिस नहीं
जल गया फिर कैसे अपना गाँव रमजानी चचा
7)
सूरज हुआ फकीर तुम्हारी ऐसी तैसी
जुगनू को जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी
झूठे आंसू बने तुम्हारे सच्चे मोती
हम रोयें तो नीर तुम्हारी ऐसी तैसी
खाक मुहब्बत करें रोटियों के लाले हैं
कहाँ के रांझा-हीर तुम्हारी ऐसी तैसी
जनता का है देश मगर तुमने समझा है
अब्बा की जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी
(किताब ” ग़ज़ल मेरी इबादत है” से प्रकाशक:-डायमंड बुक्स2010)