Saturday, November 23, 2024
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कांग्रेस ने सावरकर की सुनी होती तो देश नहीं बँटता

स्वातंत्र्यवीर सावरकर वह राष्ट्रवादी विभूति थे जिन्होंने आजादी के बाद के कालखण्ड में समाज को एकजुट रखने में भरपूर योगदान दिया। आज आवश्यकता है उनके दीर्घकालिक और तार्किक राष्ट्रवाद के प्रकाश में भीमा-कोरेगांव, जातिवादी दंगों और पत्थर गढ़ी जैसी घटनाओं पर रोक लगाई जाए और उन्हें झूठे प्रचार के जरिए नीचा दिखाए जाने वाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया जाए। सावरकर के विशुद्ध राष्ट्रवाद में सभी मत-पंथों के लिए स्थान है लेकिन मजहबी तुष्टीकरण के लिए जगह नहीं है। 2003 स्वातंत्र्यवीर सावरकर के संदर्भ में गलत अर्थों में महत्वपूर्ण वर्ष था। इसी वर्ष कांग्रेस, कम्युनिस्ट और अन्य छद्म सेकुलर नेताओं ने सावरकर को बदनाम करने के प्रयास शुरू किए थे। 2003 से पहले करीब 40 वर्ष तक सभी पार्टियों के नेता राष्ट्रवादी चिंतक और महान क्रांतिकारी सावरकर को पूरे आदर-सम्मान के साथ याद करते थे। इन नेताओं में श्रीमती इंदिरा गांधी भी थीं। 1962 के भारत-चीन युद्ध में रा.स्व. संघ द्वारा भारतीय सेना की सहायता के कार्य को देखते हुए जवाहरलाल नेहरू ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ के स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया था। मुझे लगता है कि यदि नेहरू कुछ और समय जिंदा रहते तो वे सावरकर के व्यक्तित्व के कई अन्य पक्षों से भी प्रभावित होते।

तो आखिर 2003 में ऐसा क्या खास हुआ था कि उसके बाद वाम दलों और कांग्रेस ने सावरकर के प्रति दुर्भावना दर्शानी शुरू कर दी। दरअसल, छद्म सेकुलर दल जितना अधिक वोटों के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाएंगे, उतनी ही सावरकर को नकारात्मक नजरिए से देखने की उनकी जरूरत बढ़ती जाएगी क्योंकि उनका प्रखर राष्ट्रवाद अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, अखिल इस्लामवाद और अन्य विभाजक ताकतों के खिलाफ सीना ताने खड़ा दिखता है। वहीं अगर आमजन के बीच सावरकर का यह प्रखर राष्ट्रवाद पहुंचे तो इन विभाजनकारी ताकतों के लिए झारखंड और छत्तीसगढ़ में पत्थरगढ़ी, भीमा-कोरेगांव, जातिवादी दंगों जैसी घटनाओं को अंजाम देना बेहद कठिन हो जाएगा।

27 फरवरी, 2002 को गोधरा में 59 कारसेवकों को मारने वाले मजहबी उन्मादियों को बचाने के सेकुलर प्रयास के बाद 2003 में मुस्लिम तुष्टीकरण के प्रयास चोटी पर पहुंच गए थे। हालांकि, कहना न होगा कि आमजन के बीच सावरकर के विचारों का प्रसार करना बहुत कठिन चुनौती है, क्योंकि ऐसे सभी प्रयास केवल सत्य की बुनियाद पर खड़े होते हैं।

इसलिए सावरकर पर किए जा रहे इन हमलों की पृष्ठभूमि के चार पक्षों को समझना जरूरी है :
—सावरकर का राष्ट्रवाद क्या है? साम्प्रदायिक सोच क्या होती है? क्या उसमें मुस्लिमों के लिए कोई स्थान है? यदि हां, तो कितना?
—महान भविष्यवक्ता सावरकर की भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में दी गई चेतावनियां आज सच साबित हो रही हैं।
—अंदमान-निकोबार की सेल्युलर जेल में सावरकर द्वारा अंग्रेज सरकार से मांगी गई माफी से सजा में नरमी या उससे मुक्त होने पर बहस।
—अगर हमने (भारत के लोगों ने) सावरकर के तार्किक हिन्दुत्व को अपनाया होता तो आज हालात कैसे होते?

 

 

सावरकर का प्रखर राष्ट्रवाद
चार पुख्ता उदाहरणों से यह साबित होता है कि सावरकर के राष्ट्रवाद में पंथ के नाम पर कोई भेदभाव नहीं है:
1938 में सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष की हैसियत से लाहौर गए थे, जहां पत्रकारों ने उनसे पूछा कि क्यों वे और जिन्ना समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटना चाहते हैं। सावरकर ने कहा था, ‘‘आपका सवाल ही अपने आप में गलत है। मैं और जिन्ना एक ही डाल के पंछी नहीं हैं। जहां जिन्ना मुस्लिमों के लिए अधिकाधिक छूट चाहते हैं, मैं सबके लिए समान अधिकारों की पैरवी कर रहा हूं।’’

1942 में मुस्लिमों का एक धड़ा सामने आया। उसका कहना था कि मुसलमानों को कांग्रेस और गांधीजी की तरह ही हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास करने चाहिए। इस बारे में उन्होंने एक प्रस्ताव पारित किया कि गोहत्या करने वालों को हिन्दू-मुस्लिम एकता का दुश्मन माना जाएगा। इस पर सावरकर ने कहा, ‘‘मैं लखनऊ के उन मुसलमानों के इस प्रयास का स्वागत करता हूं। यदि मुस्लिम समुदाय से इस तरह की कोशिशें होती रहेंगी तो हिन्दू-मुस्लिम एकता संभव है।’’

सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र के लिए एक घोषणापत्र तैयार किया था। इस घोषणापत्र में कहा गया था कि हिन्दू राष्ट्र में सभी पंथों को समान अधिकार प्राप्त होंगे। यदि कोई मजहबी अल्पसंख्यकों की उपासना पद्धति में रुकावट डालने का प्रयास करता है तो सरकार की जिम्मेदारी होगी कि वह उस रुकावट को दूर करे। परंतु हिन्दू राष्ट्र मजहबी अल्पसंख्यकों के नाम पर देश को बांटने की अनुमति नहीं देगा। इस मुद्दे पर सावरकर की चेतावनी सच साबित हुई है। आज मजहबी अल्पसंख्यक वर्ग के नाम पर राष्ट्र के भीतर दूसरा देश दिखाई देता है। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के नाम पर कई मुद्दों पर देश अधर में लटका दिखता है और इससे हमारे देश की ऊर्जा व्यर्थ जाती है।

सावरकर के विशुद्ध राष्ट्रवाद की अवधारणा को समझने के लिए उनके विषद् ग्रंथ ‘हिन्दुत्व’ के अंतिम दो पन्नों में उनके आकलन को जानना चाहिए। इस पुस्तक में हिन्दू समुदाय की शक्ति का आकलन करते हुए उनका कहना है कि वह दिन आएगा जब दुनिया इस ताकत का लोहा मानेगी। वे कहते हैं कि उस दिन विश्व के साथ हिन्दू राष्ट्र कुछ उसी तरह मिलेगा जैसा भगवद्गीता में लिखा गया है या गौतम बुद्ध ने कहा है। इस तरह वह कहते हैं कि जब विश्व भारत की श्रेष्ठता को अपना लेगा, तब भारत उसके साथ औपनिवेशिक तरीके से नहीं बल्कि वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर व्यवहार करेगा।

इन चार उदाहरणों से स्पष्ट है कि जो लोग हिन्दुत्व पर साम्प्रदायिक या ‘तालिबानी’ विचारधारा समर्थक होने का आक्षेप लगाते हैं, वे कितने गलत हैं।

महान भविष्यवक्ता सावरकर

1952 में सावरकर ने पुणे नगर निगम के मंच से भाषण दिया था। उस दौरान उनके दिल में छुपी वह पीड़ा सामने आई जब कांग्रेस ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों से बचने के लिए देश का बंटवारा स्वीकार किया था, लेकिन अंतत: दंगे और बंटवारा, दोनों झेलने पड़े था। सावरकर ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘मैंने बंटवारे के संदर्भ में हर कदम पर मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस की कमजोर संधियों के बारे में हिंदुओं को चेताया था। लेकिन हिन्दू कांग्रेस के मोहपाश में थे। उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और मेरी चेतावनियां सच साबित हुईं। मुझे लगता है कि देश की सुरक्षा के मामले में मेरी सभी चेतावनियां सच साबित होंगी। परंतु यदि मैं गलत साबित होता हूं, तो मुझसे ज्यादा खुश और कोई नहीं होगा।’’
आखिर 1930-40,1940-50 और 1950-60 के दशकों में सावरकर की कौन-सी चेतावनियां सच साबित हुई थीं? दरअसल, वे सभी चेतावनियां आज चरितार्थ हो रही हैं।


पाकिस्तान को लेकर चेतावनी

1940 में जब सिंध को मुंबई प्रांत से अलग कर दिया गया, तब सावरकर ने चेताया था कि पाकिस्तान की नींव पड़ गई है और अब बंटवारा रोकना कठिन होगा। तब गांधीजी और नेहरू ने कहा था कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा। सात वर्ष बाद वे गलत साबित हुए और सावरकर सही। सावरकर ने कैसे इतनी सटीक भविष्यवाणी की थी? उसका आधार था कांग्रेस की मुस्लिम लीग के साथ की जाने वाली संधियां जिसमें लीग का हाथ हमेशा ऊपर होता था।

चीन के साथ युद्ध की भविष्यवाणी
1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने पंचशील का मंत्र दिया था, जो कि पांच सूत्री कार्यक्रम था जिसके आधार पर भारत अपने पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण तरीके के साथ रह सकता था। परंतु वीर सावरकर ने पंचशील मेंं कमियां देखीं और नेहरू को तीखी चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि चीन ने जिस तरह से तिब्बत को हड़पने की कोशिश की थी, उसके बाद भी यदि नेहरू चीन को इस तरह के मंत्रों से लुभाने में विश्वास रखते हैं तो यह उनकी भारी गलती होगी। इस तरह की कमजोर नीतियों से चीन की भूख बढ़ती जाएगी और हैरानी नहीं होगी, यदि भविष्य में चीन भारत की जमीन हड़पने का प्रयास करे। आठ वर्ष बाद वे सही साबित हुए और चीन ने भारत पर हमला कर उसके उस बड़े हिस्से को कब्जा लिया, जो भारत को मध्य एशिया से जोड़ता था।


असम संबंधी चेतावनी और सावरकर की नेहरू से अनूठी बहस

जब पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) से मुस्लिम रोजी-रोटी की तलाश में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में पलायन करने लगे, तब सावरकर ने कहा था कि वह भविष्य में भारत के उत्तर-पूर्वी सीमांत क्षेत्र के लिए खतरा बनेंगे। उस समय नेहरू ने कहा, ‘‘प्रकृति शून्य के खिलाफ है। हम लोगों को रिक्त स्थान पर रहने देने से कैसे रोक सकते हैं।’’ सावरकर ने इस बयान के जवाब में कहा, ‘‘नेहरू को माहौल की बहुत कम जानकारी है। प्रकृति जहरीले तत्वों के भी खिलाफ होती है।’’ सावरकर सही साबित हुए थे।

आज असम की 35 प्रतिशत जनता मुस्लिम है। सूफी इस्लाम को अपनाकर वहां आए। जो मुस्लिम एक समय ‘उदारवादी’ थे, वही आज अधिकांश देवबंद और अहले-हदीस जैसी भारतीय वहाबी तंजीमों के असर में वहाबी सोच को अपना बैठे हैं, जिसका वैश्विक इस्लामी नजरिया खतरे की घंटी है। 2016 में राज्य में राष्ट्रवादी सरकार के आने के बाद हालात कुछ सुधरे हैं, लेकिन 2016 से पहले कई मुस्लिम बहुल गांवों में हिंदू समुदाय अपने त्योहार तक नहीं मना सकता था।

द्वितीय विश्वयुद्ध व सैन्यकरण
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के समय सावरकर ने देखा कि भारतीय सेना में हिंदुओं की बजाय मुस्लिम अधिक संख्या में हैं। वह उस दौरान मुस्लिम लीग के साथ मुस्लिम मुद्दे पर कांग्रेस की कमजोर संधियों को देख रहे थे और यह भांप रहे थे कि आने वाले वर्षों में हिंदू अखंड भारत की लड़ाई में कमजोर पड़ सकते हैं। इसलिए उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध को हिंदुओं के लिए एक ईश्वरीय वरदान समझते हुए कहा कि उन्हें खुद को सैन्य तौर पर तैयार करना चाहिए।

नतीजतन, अगले छह वर्ष में लाखों हिदू युद्ध के दौरान सेना से जुड़े। यह देखते हुए मुस्लिम समुदाय घबरा गया और 1944 में उसकी ओर से बयान जारी किया गया कि हिंदुओं के भारी संख्या में सेना से जुड़ने से मुस्लिम हित खतरे में पड़ गए हैं। मुस्लिम लीग को निकट भविष्य में देश का बंटवारा होते दिख रहा था और इसलिए जब उसने भारतीय सेना मेंं हिंदुओं की संख्या मुस्लिमों से ज्यादा होते देखी तो उसे खतरा दिखाई दिया था।

उस समय कांग्रेस ने सावरकर की इस पहल को ‘अंग्रेज समर्थक’ कहा था। लेकिन आज पुनरावलोकन करते हुए हमें सोचना पड़ता है कि यदि बंटवारे के समय सेना में हिंदुओं की संख्या कम होती तो क्या हुआ होता। संभवत: उस समय भारत को मजबूरन दूसरा विभाजन अपनाना पड़ता, क्योंकि पाकिस्तान हमला करता और राजस्थान एवं गुजरात के सीमांत इलाकों में अपनी बेहतर सैन्यशक्ति के आधार पर जीत जाता, जैसा कि उसने 1948 के समय कश्मीर के एक हिस्से पर कब्जे के दौरान किया था।

हिंदू विरोधी नजरिया और सेकुलर खामोशी

एक यादगार अनुभव है जिसे मैं साझा करना चाहता हूं, जब अखिल-इस्लामी और वहाबियों के हिन्दू एवं भारत विरोधी नजरिये ने मेरी आंखें खोल दी थीं। उस समय मैं गुजरात में कार्यरत था। 1 जनवरी, 2006 को औरंगाबाद के मेहदी नवाज जंग हॉल में जमाते-इस्लामी और भारत के मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य एस़ क्यू़ आऱ इलियास की एक तकरीर ने मुझे भीतर तक हिला दिया था। इलियास जेएनयू में ‘टुकड़े, टुकड़े़..’ नारा लगाने वाले उमर खालिद के पिता हैं।

मैं 2003 में उस समय से इलियास के विचारों पर नजर रखे हुए था। उस समय मैंने ‘वेबमंच रीडिफमेल’ पर उनका एक साक्षात्कार पढ़ा था जिसमें उनके कट्टरवादी इस्लामी विचारों की झलक मिली थी। उस साक्षात्कार में दिल्ली में उनसे सिमी तत्वों द्वारा ‘राष्ट्रवाद का अंत, खिलाफत बहाल करो’ के इश्तिहार चिपकाए जाने पर उनके विचार मांगे गए थे। इलियास का जवाब था, ‘‘इसमें कुछ गलत नहीं है। राष्ट्रवाद फासीवादी विचार है और गांधी एवं कांग्रेस तक ने खिलाफत की पैरवी की थी।’’

लिहाजा, जब मैंने पढ़ा कि इलियास अमदाबाद के जेईआई के तत्वावधान में भाषण देने वाले हैं तो मैं वहां पहुंचा। इलियास ने अपनी तकरीर की शुरुआत में कहा, ‘‘इस्लाम यहां (भारत में) 800 वर्ष से है और फिर भी हम यहां के सभी लोगों को इस्लाम कबूल नहीं करवा सके हैं। इस जमीन के गरीब और शोषित सैकड़ों साल से इस्लाम को अपनाने का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन हम इस कार्य में असफल रहे हैं। क्यों? इस पर विचार करने का वक्त आ गया है। हमारी क्या गलतियां रहीं, यह सोचना होगा?’’

इसके बाद इलियास कुछ पल को रुके और फिर बोले, ‘‘हालांकि, जब मैं पाकिस्तान गया था तो पाकिस्तानियों ने मुझसे कहा कि तुम इतना मलाल क्यों कर रहे हो। तुम्हें खुशी मनानी चाहिए कि तुमने बहुत बेहतरीन काम किया है। याद करो कि किस तरह बंटवारे के समय में भारतीय मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता था और किस तरह आज मुस्लिमों के पास भारत में कई जरूरी मुद्दों पर विशेषाधिकार हैं। उनकी बताई बात में मुझे दम नजर आया। वह सही थे।

आज असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कोई सेकुलर दल बिना मुस्लिम मतों के सरकार नहीं बना सकता। हमें मुस्लिम विशेषाधिकार के आधार पर ऐसे राज्यों की संख्या में इजाफा करना चाहिए।’’ साफ है कि उत्तर प्रदेश और असम में भाजपा गठबंधन की सरकार बना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपाध्यक्ष अमित शाह ने इलियास जैसे इस्लामवादियों को गलत साबित करते हुए उनकी अकड़ और शैतानी इरादों को रौंदा है।

 

 

 

 

 

( वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक व राजनीतिक विश्लेषक उदय माहुरकर द्वारा नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में दिए गए भाषण के अंश )

(साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से)

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