Thursday, November 28, 2024
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अली सरदर ज़ाफरी को कितना जानते हैं आप

हर दौर में जवानी क्रांतिकारी होती है और जिनको जवानी का अहसास होता है, वे बड़ा कर पाने का माद्दा रखते हैं. आज से गुजश्ता 100 साल पहले रूसी क्रांति का दौर था. तब जवानी का अहसास होना एक क्रांतिकारी बात थी. निज़ाम बदले, इस पर कसमें खाई जाती थीं. अली सरदार जाफ़री इसी दौर की पैदाइश थे और उस दौर की शायरी के ‘सरदार’ थे.

हम सरदार के बचपन की बात नहीं करेंगे. यहां मौज़ू उनकी जवानी और बुढ़ापा है. एक ख्व़ाब की तामीर है और उसका तिड़कना है. तब उनकी उम्र 22 थी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मंज़िल. यहां, जांनिसार अख्तर, ख्वाजा अहमद अब्बास औक मजाज़ जैसों की संगत ने उन्हें साम्यवादी सोच की तरफ़ मोड़ दिया. एक दिन जवाहर लाल नेहरू का वहां आना, उनकी दुनिया में तूफ़ान ले आया. नेहरू का राजकुमार सा चेहरा, राजाओं सी अमीरी, फ़कीराना अंदाज़ और ज़हीन बातें ऐसा तिल्सिम गढ़ती थीं कि जवान बेसाख्ता उनकी ओर खिंचे जाते. सरदार भी इस तिलिस्म न बच पाये और आज़ादी के आंदोलन में कूद प

आज़ादी और सरदार जाफ़री

1940 में प्रिवी कौंसिल (सुप्रीम कोर्ट) के मुख्य न्यायाधीश सर मोरिस ग्व्येर हिंदुस्तान आये. दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. अंदेशा था कि सोवियत रूस और जर्मनी मित्र राष्ट्रों के ख़िलाफ़ लड़ेंगे. इसलिए, भारत में कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश सरकार और मोरिस ग्व्येर के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया. सरदार जाफ़री इसका हिस्सा थे. सो, ब्रिटिश सरकार ने 1940 में उन्हें कैद कर लिया. जेल में उनकी मुलाक़ात अंडमान निकोबार से लाये गए भगत सिंह के कामरेड साथियों से हुई. 1931 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी ने उन पर काफी असर डाला. तब जाफ़री 18 साल के थे और ‘हाज़ीन’ के तख़ल्लुस से शायरी करने लगे थे.

1938 में उनके रचनात्मक सफ़र में ‘मंज़िल’ के उन्वान से लघु कहानियां और ‘ये किसका खून’ और ‘पैकर’ नाम के दो नाटक जुड़ चुके थे. 1940 में वे इप्टा से जुड़ गए और फिर ताउम्र इसके मेंबर बने रहे. अंग्रेज़ी के लेखक मुल्क राज आनंद, सज्जाद ज़हीर, अख्तर हुसैन जयपुरी और सरदार जाफ़री ने प्रोग्रेस्सिव राइटर एसोसिएशन की स्थापना में अहम भूमिका निभाई.

बीसवीं सदी की शायरी और बदलते आयाम

तरक्कीपसंद शायर रूमानीवाद से दूर भागते थे. इसके पीछे दो कारण कहे जा सकते हैं. एक तो यह कि ग़ालिब और मीर मुहब्बत और इबादत पर इतना लिख गए कि तकरीबन कोई भी ख़्याल उनकी कलमों से अछूता न रह पाया. बाद के शायर लिखते भी तो क्या? सरदार जाफ़री ने एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा था कि शायरी करने वाला कोई भी शख्स ग़ालिब के असर से आज़ाद नहीं रह सकता. कोई ताज्जुब नहीं कि तरक्कीपसंदों की जमात में सबसे पहले खड़े होने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी ग़ालिब से प्रभावित थे.

दूसरा यह, और जैसा ऊपर भी कहा गया है, वह दौर रूसी क्रांति का था. 1917 में रूस में ज़ारशाही खत्म हुई और लेनिन हावी हो गए. रूस की साहित्यिक दुनिया में मैक्सिम गोर्की, दोस्तोय्विसकी, पुश्किन आदि ख़ूब पसंद किये जा रहे थे. उधर, हिंदुस्तान में कुछ अलग ही माजरा था. यहां मुग़लों का पतन एक झटके में नहीं हुआ. सो, दूसरी सत्ता धीरे-धीरे यहां काबिज़ हुई, और हुई तो उपनिवेशवाद आया जो पूंजीवाद का बिगड़ा स्वरूप था. इससे हिंदुस्तानी शायर बेज़ार हो गए.

तीसरा, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का बवंडर सब कुछ उड़ाए ले जा रहा था. ऐसे में मानो ‘हुस्न को फूल, जवानी को कंवल’ कहना आउटडेटेड हो गया और ऐसा कहने वाले कहने वालों को गंवार ठहराए जाने का जोखिम. अब जवानी को नया मकसद मिला और निज़ाम (व्यवस्था) शायरी का विषय हो गया. निज़ाम पर हमला करना जवानी का मकसद बन गया. जाफ़री की शायरी भी इसी दौर का परचम उठाये चलती है. इस बात को और समझने के लिए हम उनकी शायरी को दो हिस्सों में बांट लेते हैं.

तरक्की पसंद शायर और हिंदुस्तान में साम्यवाद का झूठा ख्व़ाब

दक्षिण एशिया के लेखकों की तरक्कीपसंद जमात रूस के लेखकों से प्रभावित थी. जाफ़री साहब तो चिली के पाब्लो नेरूदा से नज़दीकी रिश्ता रखते थे. पर यह सोचकर हैरत होती है कि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई साम्यवाद के स्थापित होने की बात कैसे सोच सकता था. आख़िर, यह विचारधारा तो ईश्वर की सत्ता को नहीं मानती और यहां तो धर्म और ईश्वर सबसे बड़ा आधार हैं. तरक्कीपसंद शायर आख़िर किस उम्मीद पर टिके हुए थे?

जो बात यह जमात नहीं पकड़ पायी थी वह लगभग 500 साल पहले तुलसीदास ने भांप ली थी. उन्होंने सही कहा था, ‘कोऊ नृप होए, हमें का हानि’ ही हमारी सिद्दांत रहा है. हमें राजा के होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता. गुरचरण दास ने अपनी क़िताब ‘इंडिया ग्रोस एट नाइट’ में साफ़-साफ़ लिखा है कि भारत में राजा कमज़ोर था और समाज मज़बूत. खैर, रूस में हो रहे प्रयोग ने यहां भी आशाएं जगाई थीं. पर ये कामयाब नहीं हो सकती थीं.

आज़ादी से लेकर सोवियत रूस के पतन तक

जाफ़री के अशआरों ने रूमानीवाद से आगे निकलकर सर्वहारा के दर्द को उकेरा. समाज में फैली विसंगति के मवाद को बाहर निकाला. वे मिल मज़दूरों और कारखानों में खपते कामगारों की आवाज़ बने. एक ओर जहां फ़ैज़ ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ कह रहे थे, जाफ़री ने लिखा:

‘तू मुझे इतने प्यार से मत दे

तेरी पलकों के नर्म साये में

धूप भी चांदनी सी लगती है

और मुझे कितनी दूर जाना है…’

इस दौर में शाया (प्रकाशित) होने वाली उनकी किताबें थीं ‘जम्हूर’, ‘नयी दुनिया को सलाम’, ‘ख़ून की लकीर’, ‘पत्थर की दीवार’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘लहू पुकारता है’. इन सबमें कहीं-कहीं रूमानियत थी, और साम्यवाद का फ़लसफ़ा तो बहुत जगह था. यह भी तय है कि अली सरदार जाफ़री पर जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी और फ़िराक़ गोरखपुरी का बहुत असर था. उनके दोस्तों में कैफ़ी आज़मी, कृष्ण चंदर, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, सिब्ते हसन, अले अहमद सुरूर और अहेतेशाम हुसैन जैसे अदीब थे. उनकी शायरी बेहद तल्ख़ थी मानो शोलों पर अशआर रख छोड़े हों. आजादी के बाद मंज़र भी न बदला, और न वे बदले. अंग्रेज़ों ने तो जेल भेजा ही था. हिंदुस्तानी ‘गोरे’ भी इस काम में पीछे न रहे.

जवाहर लाल नेहरू ने राजनीति में साम्यवाद की जगह समाजवाद को तरजीह दी. मानो कि वे जानते थे कि साम्यवाद ज़्यादा दिन तक नहीं टिक पायेगा. हुआ भी यही. सोवियत रूस में निकिता खुश्चेव के राज से ही साम्यवादी विचारधारा का पतन शुरू हो गया, जो 1991 में आकर पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गयी. अली सरदार जाफ़री के दोस्तों ने ज़कावत (होशियारी) से पेश आते हुए शायरी में तब्दीलियां शुरू कर दीं. जाफ़री तब भी उम्मीद का दामन पकड़े हुए थे.

शायरी का दूसरा पड़ाव

जब साम्यवाद ख़त्म हुआ तो लगभग सारे शायर बॉलीवुड में खप गए, पर अली सरदार जाफ़री ने सर्वहारा को अपनी शायरी के दामन में समेटे रखा. इस दौर में भी वो सरे-मिम्बर थे. पर विचारधारा से हटकर उन्होंने अब दूसरे मजमून पकड़ लिए थे. उन्होंने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बनते-बिगड़ते रिश्तों की बेहतरी की उम्मीद की.

ज़ाफरी साहब के कुछ बेहतरीन कामों में से हैं ‘दीवाने-ग़ालिब’ और ‘दीवाने-मीर’ का हिंदी रूपांतरण और ग़ज़लों के माने आसान लफ़्ज़ों में समझाना. बड़े-से-बड़ा फ़ारसी और उर्दू का जानकर भी यह मानने से गुरेज़ नहीं करता कि औरों के बनिस्बत जाफ़री साहब का दीवान सबसे बेहतर है. 1990 के आसपास उन्होंने दूरदर्शन के लिए ‘कहकशां’ और ‘महफ़िले-यारां’ नाम से दो सीरियल भी बनाये जो ख़ासे पसंद किये गए. मीरा और कबीर पर उनका काम भी साहित्य की दुनिया में मज़बूत हस्ताक्षर माना जाता है. ठीक इसी तरह, ‘लखनऊ की पांच रातें’ एक ज़बरदस्त यात्रा वृतांत है जो एक तरह से, मजाज़ और उनकी दोस्ती का सफ़रनामा है. अपने दोस्तों की मंडली को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘हमारा सारा गिरोह तो वैसे हमख़याल था, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सुभाष बोस के दरमियान बंटा हुआ था. हमारी बग़ावत का अंदाज़ रूमानी और इनफ़रादी (व्यक्तिगत) था, जिसका सबसे हसीन पैकर मजाज़ की दिल-आवेज़ शख्सियत थी.’ इस क़िताब के अफ़साने ऐसे दिलचस्प हैं कि बस. जाफ़री साहब अपने जीवन के आख़िरी दिनों में ‘सरमाया-ए-सुखन’ पर काम कर रहे थे.

हर आशिक़ है सरदार यहां, हर माशूक़ा सुल्ताना है

बात ख़त्म करने से पहले, अफ़साने की इब्तिदा यानी शुरुआत पर चलते हैं. क़िस्सा यह है कि लखनऊ यूनिवर्सिटी में जाफ़री साहब जब इंग्लिश में एमए करने के लिए गए तो वहां उनकी मुलाक़ात सुल्ताना से हुई. मुहब्बत रंग लाई और 1940 में शादी हो गयी. अब कम्युनिस्ट शायरों की शादियां भी बड़ी अजीब होती हैं. तो जाफ़री साहब जब कोर्ट में शादी रजिस्टर कराने बाबत पेश हुए तो उनकी जेब में तीन रुपये थे. ‘नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े’ वाली बात थी. इस्मत चुगताई उस वक़्त मौजूद थीं. वे सभी दोस्तों को आइसक्रीम खिलाने ले गयीं. इस जोड़ी का रिश्ता मरते दम तक रहा. एक नज़्म में ज़ाफरी साहब ने अपनी मुहब्बत को कुछ यूं बयां किया था:

‘जाड़ों की हवायें दामन में

जब फ़स्ल-ए-ख़ज़ां को लायें

रहरू के जवां क़दमों के तले

सूखे हुए पत्तों से मेरे

हंसने की सदायें आयेंगी

धरती की सुनहरी सब नदियां

आकाश की नीली सब झीलें

हस्ती से मेरी भर जायेंगी

और सारा ज़माना देखेगा

हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है

हर आशिक़ है सरदार यहां

हर माशूक़ा सुल्ताना है’

यकीनन वह दौर अली सरदार जाफ़री का था. आज के युग में कोई सिस्टम बदलने की बात नहीं करता. तख़्त गिराने को बांहें नहीं फड़कतीं. विचारधाराओं का दौर अब नहीं रहा. यह एडजस्टमेंट का ज़माना है. स्टार्ट-अप्स का युग है. यह जॉन एलिया का दौर है. पर फिर भी ‘हर आशिक़ है सरदार यहां, हर माशूका सुल्ताना है’ कहने वाले सरदार जाफ़री को कुछ सख्त जान याद कर ही लेते हैं.

साभार – सत्याग्रह से

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