दिल्ली का विधानसभा चुनाव कोई मामूली चुनाव नहीं है। यह देश का मुख्य विपक्ष तय करने का चुनाव है। इसके चुनाव नतीजों से पता चलेगा कि आने वाले दिनों में भाजपा और नरेंद्र मोदी का क्या विपक्ष के पास जवाब है। करीब पांच साल के बाद किसी भी राज्य का यह पहला चुनाव है, जिसमें भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ रही है। यह भी पहली बार हो रहा है कि दिल्ली के चुनाव में भाजपा नहीं एनडीए चुनाव लड़ रहा है। बिहार की उसकी दो सहयोगी पार्टियां इस बार गठबंधन में लड़ रही हैं। उसके मुकाबले कांग्रेस ने भी बिहार का अपना गठबंधन दिल्ली में उतारा है। यह अनायास नहीं है। इसके पीछे सोची समझी रणनीति है। ध्यान रहे दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला है। तभी दिल्ली का विधानसभा चुनाव मिनी बिहार का चुनाव बन गया है।
पर हकीकत यह है कि दिल्ली का मुकाबला एनडीए और यूपीए का नहीं है, बल्कि नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का है। एक तरफ मोदी का चेहरा है और दूसरी ओर केजरीवाल का। एक तरफ शासन का मोदी (गुजरात) मॉडल है और दूसरी ओर केजरीवाल मॉडल है। एक तरफ अनुच्छेद 370, संशोधित नागरिकता कानून, तीन तलाक और राम मंदिर का मुद्दा है तो दूसरी ओर बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, ट्रांसपोर्ट जैसे बुनियादी मुद्दे हैं। यह विकास के अलग-अलग मॉडल की भी परीक्षा वाला चुनाव है। इसके नतीजे आने वाले दिनों में देश की राजनीति को कई तरह से प्रभावित करने वाले होंगे।
सोचें, अगर केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को हरा दिया तो क्या होगा? क्या देश उनको मोदी के विकल्प के तौर पर नहीं देखेगा या उनके शासन को मोदी म़ॉडल के विकल्प के तौर पर आजमाने के बारे में नहीं सोचेगा? क्या इससे विपक्ष का नेतृत्व का संकट नहीं खत्म हो सकता है? यह जवाब नहीं मिल सकता है कि मोदी के मुकाबले कौन? ध्यान रहे केजरीवाल अकेले नेता हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को दो बार झटका दिया है। दिसंबर 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय नरेंद्र मोदी भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हो गए थे। पर तब भी उनका नाम दिल्ली में भाजपा को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं दिला पाया था। फिर जनवरी 2015 के चुनाव में तो वे बतौर प्रधानमंत्री भाजपा के लिए प्रचार कर रहे थे फिर भी उनकी पार्टी सिर्फ तीन सीट जीत पाई। अगर तीसरी बार केजरीवाल उनका रथ रोक देते हैं तो यह बहुत बड़ी परिघटना होगी, जिसका सीधा असर बिहार की राजनीतिक और साल के अंत में होने वाले चुनाव पर होगा और फिर पूरे देश की राजनीति इससे प्रभावित होगी।
यह विकास की दो अवधारणों के बीच का मुकाबला भी है। चुनाव की कवरेज के दौरान घूमते हुए यह अक्सर सुनने को मिलता है कि काम के दम पर वोट नहीं मिलते हैं, काम के दम पर वोट मिलते तो चंद्रबाबू नायडू चुनाव नहीं हारते। असल में चंद्रबाबू नायडू का काम विकास के एक मॉडल का प्रतीक है तो अरविंद केजरीवाल का काम दूसरे मॉडल का प्रतीक है। एक मॉडल बड़े बुनियादी ढांचे के विकास का है तो दूसरा आम आदमी के जीवन से जुड़ी बुनियादी समस्याओं को दूर करने का मॉडल है। केजरीवाल मॉडल के विकास में आम आदमी की छोटी-छोटी समस्या का समाधान खोजने का प्रयास है। उन्होंने अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान दिया। अपनी सरकार के बजट का करीब 40 फीसदी हिस्सा इन दो कामों के लिए आवंटित किया। दो सौ यूनिट तक बिजली और 21 हजार लीटर तक पानी फ्री किया और दिल्ली की बसों में महिलाओं की मुफ्त यात्रा का बंदोबस्त किया। उन्होंने लोगों की जेब से पैसे नहीं निकाले। ध्यान रहे पांच साल के कार्यकाल में न तो कोई टैक्स बढ़ा है, न कोई नया टैक्स लगा है, न डीटीसी का किराया बढ़ा है और न बिजली-पानी के दाम बढ़े हैं। उलटे स्कूलों में बढ़ी हुई फीस वापस हुई है।
इसलिए इस बार दिल्ली का चुनाव न सिर्फ नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर एक नेता चुनने का है, बल्कि विकास और कामकाज का एक वैकल्पिक मॉडल चुनने का भी है। ध्यान रहे कम से कम दो राज्यों के नेताओं ने कहा है कि वे दिल्ली के मॉडल को अपने यहां लागू करेंगे। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने केजरीवाल के शिक्षा व स्वास्थ्य के मॉडल को लागू करने का फैसला किया है। अगर उनके इस मॉडल पर दिल्ली की जनता वापिस मुहर लगाती है और फिर एक बार केजरीवाल की सरकार चुनती है तो राजनीति और शासन दोनों में देश को नया विकल्प मिलेगा। अगर आम आदमी पार्टी जीतती है तो भले दिल्ली छोटा या अर्ध राज्य है इसके बावजूद अरविंद केजरीवाल मुख्य विपक्ष बनेंगे और नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर स्थापित होंगे। वैसे केजरीवाल ने अपनी राजनीति के बिल्कुल शुरुआती दिनों में ही मोदी के खिलाफ वाराणसी में चुनाव लड़ कर अपने इरादों का संकेत दे दिया था। दिल्ली के नतीजे उनके इरादों को पंख लगा सकते हैं। ऐसा कैसे होगा, इस पर कल विचार करेंगे।
अजीत द्विवेदी राजनीतिक विश्लेषक हैं
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