1980 के दशक में कश्मीर में सर्वानंद कौल “प्रेमी” नाम के एक बड़े कवि और समाजसेवी हुआ करते थे । वह “कश्मीरियत” के बहुत बड़े हिमायती, “धर्मनिरपेक्षता” के घनघोर पैरोकार और “गंगा-जमुनी तहजीब” के उपासक हुआ करते थे । मतलब ये कि सर्वानंद कौल “प्रेमी” जी धर्मनिरपेक्षता के जीवंत उदाहरण माने जाते थे और सारे सेकुलर, वामपंथी तथा ईमान वाले लोग उनकी धर्मनिरपेक्षता की जय जयकार करते थे ।
उन दिनों घाटी में कश्मीरियत की बातें बड़े जोर शोर से हुआ करती थीं और कश्मीरियत के हिमायती सभी भाईजन सर्वानंद जी की धर्मनिरपेक्षता को देख कर लहालोट हुए जाते थे, हर मंच पर उनकी शान में कसीदे पढ़ते थे । देश विदेश में उनकी धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते थे। सर्वानंद जी भी बड़े जोर शोर से कश्मीरियत के हुंकारे लगाते, भारत के लोगों को कश्मीर घाटी में बसाने की कोशिशों का पुरजोर विरोध करते ।
उन्हें लगता था कि भारत के शेष हिस्सों से आने वाले लोग कश्मीर में कश्मीरी लोगों के हिस्से की नौकरियां और व्यवसाय पर कब्जा कर लेंगे ।
सर्वानंद जी की धर्मनिरपेक्षता इतनी प्रगाढ़ थी कि उनके “पूजा घर में गीता के साथ कु.रान” भी न सिर्फ़ रखी जाती थी बल्कि नियमित रूप से घर में कु.रान का पाठ भी होता था और “आसमानी-किताब” को शांति का नोबेल पुरस्कार देने की पुरजोर सिफारिश की जाती । बच्चों को भी कश्मीरियत, गंगा-जमुनी तहजीब और धर्मनिरपेक्षता के सारे संस्कार इस तरह से घोंट-घोंट कर पिलाए गए थे कि उसमें घोटाला होने की कोई गुंजाइश ही ना रहे ।
कुल मिलाकर सर्वानंद जी कश्मीर घाटी के लाड़ले और सेकुलरों की आंखों के तारे थे ।
वे चार भाषाओं को पढ़ और लिख सकते थे – हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और कश्मीरी । फारसी और संस्कृत समझने में भी वे सक्षम थे।उन्होंने कई पुस्तकें कश्मीरी में लिखी जिनमें कलमी प्रेमी, पयँमी प्रेमी, रूई जेरी, ओश त वुश, गीतांजलि (अनुवाद), रुस्सी पादशाह कथा, पंच छ्दर (काव्यसंग्रह), बखती कुसूम, आखरी मुलाकात, माथुर देवी, मिर्जा काक (जीवन और काम), मिर्जा चाचा जी वखस, कश्मीर की बेटी, भगवद गीता (अनुवाद)
ताज, रूपा भवानी प्रमुख थी।
उन की दोनों बेटियां पूरे मोहल्ले के भाईजनों से “धर्मनिरपेक्षता की राखी” का संबंध निभाती थीं । पर हाय री किस्मत ! जनवरी 1990 में कश्मीर घाटी के भाईजनों पर आसमान से “ईमान की वर्षा” होने लगी । सभी काफिर पुरूषों को अपनी “धन-संपत्ति और स्त्रियां” छोड़ कर कश्मीर घाटी से निकल जाने के फरमान घाटी की मस्जिद के लाउडस्पीकर से अपने आप निकलने लगे ।
रालिव-चालिव-गालिव (अर्थात या तो कश्मीर घाटी से चले जाओ या मजाहब को स्वीकार कर लो या फिर मौत को गले लगा लो) के नारे दीन के झंडे उठाए भीड़ के मुंह से निकलकर कश्मीर के आसमान में गूंजने लगे ।
चूंकि आदेश आसमानी था, इसलिए भाईजन लोग “मजबूरी में” उसका अनुपालन करवाने के लिए पूरी शिद्दत से प्रयास करने लगे । भाईजनों को अपने “दिल पर पत्थर” रखकर कश्मीरियत, धर्मनिरपेक्षता और गंगा-जमुनी तहजीब को भुलाना पड़ा । कुछ सांप्रदायिक लोगों ने सर्वानंद कौल “प्रेमी” जी को भी घाटी छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चले जाने की सलाह दी । पर सर्वानंद जी को अपनी “कश्मीरियत और धर्मनिरपेक्षता” पर “पूर्ण विश्वास” था । वह निश्चिंत थे कि मस्जिदों से जारी हुआ आसमानी आदेश तो “सिर्फ़ काफिरों के लिए है” और वह तो धर्मनिरपेक्ष हैं, काफिर नहीं ।
इसलिए उन्होंने सांप्रदायिक लोगों की बात को अपनी धर्मनिरपेक्षता की तलवार से काट दिया और कश्मीर घाटी में ही रुकने का फैसला किया । पर हाय री किस्मत ! ईमान की वर्षा से तरबतर भाईजनों को उनकी धर्मनिरपेक्षता के पीछे खड़ा हुआ वाजिब-उल-कत्ल काफिर दिखाई दे ही गया ।
29 अप्रैल 1990 की शाम तीन आतंकी बंदूक लेकर सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ के घर पहुँचे । उन्होंने कुछ बातचीत की और घर की महिलाओं से उनके गहने इत्यादि मूल्यवान वस्तुएं लाने को कहा । डरी सहमी महिलाओं ने सब कुछ निकाल कर दे दिया । सारे गहने जेवरात और कीमती सामान एक सूटकेस में भरा गया फिर उन आतंकियों ने सर्वानन्द जी से उनके साथ चलने को कहा ।
सर्वानन्द जी ने सूटकेस उठाया तो वह भारी था तो उनके सत्ताइस वर्षीय पुत्र वीरेंदर ने वह सूटकेस उठा लिया । ईमान से सराबोर तीनों आतंकी पिता पुत्र को अपने साथ ले गये । सर्वानन्द जी को पूरा विश्वास था कि चूँकि वे अपने “पूजा घर में कुर.आन” रखते थे इसलिए अलगाववादी आतंकी उनके साथ कुछ नहीं करेंगे । घरवालों को भी उन्होंने यही भरोसा दिलाया था ।
लेकिन उनका भरोसा उसी प्रकार टूट गया जैसे जनवरी की कड़ाके की ठंड में चिनार के सूखे पत्ते टहनी से अलग हो जाते हैं । महान धर्मनिरपेक्ष सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ और उनके पुत्र को उनके परिवार ने फिर कभी जीवित नहीं देखा । अगले ही दिन पुलिस को उनकी लाशें घर के पास वाले चौराहे पर पेड़ से लटकती हुई मिलीं ।
सर्वानंद कौल अपने माथे पर भौहों के मध्य जिस स्थान पर तिलक लगाते थे आतंकियों ने वहाँ कीलें ठोंक दी थी । पिता-पुत्र को गोलियों से छलनी तो किया ही गया था इसके अतिरिक्त शरीर की हड्डियाँ तोड़ दी गयी थीं और जगह-जगह उन्हें सिगरेट से दागा भी गया था । आतंकियों ने पिता पुत्र की लाशों को पेड़ पर लटकाने के साथ यह हिदायत भी जारी की कि कोई उनकी लाश को हाथ लगाने की हिमाकत ना करें ।
नतीजा यह हुआ कि 2 दिन तक उनकी लाशें उसी तरह पेड़ पर लटकी हुई सड़ती रहीं । लेकिन बात सिर्फ पिता-पुत्र की नृशंस हत्या के साथ खत्म नहीं हुई । बताया जाता है कि इसके बाद उनके परिवार की सभी महिलाओं के साथ अमानुषिक कार्य किए गए, उनकी इज्जत “सार्वजनिक तौर” पर तार-तार की गई ।
और यह कार्य “उन भाईयों ने किए” जिन्हें “धर्मनिरपेक्षता की राखी” सर्वानंद जी की बेटियां बांधा करतीं थी । 1990 में जब कश्मीर घाटी में हिंदुओं का नरसंहार और निष्कासन हुआ उसके पहले वहां कई कांग्रेसी और कम्युनिस्ट नेता सक्रिय थे । निश्चित तौर पर यह नेता भी “सेकुलरिज्म की खोखली बातें” उसी तरह करते होंगे जैसे आज के सेकुलर करते हैं ।
पर नरसंहार और निष्कासन के समय उन सेकुलरों को भी “सिर्फ और सिर्फ काफिर” माना गया । कोई भी वैचारिक या राजनीतिक प्रतिबद्धता उनकी “काफिर होने की पहचान” को नहीं बदल पाई । जो लोग कश्मीरियत और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सर्वानंद कौल प्रेमी जी को कंधों पर उठाकर चलते थे, उनमें से कोई भी उन की अर्थी को कंधा देने नहीं आया ।
उनकी कश्मीरियत और धर्मनिरपेक्षता की शान में कसीदे पढ़ने वाले धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार लोगों ने उनकी शोकसभा में दो शब्द भी नहीं बोले ।
उनका वह घर जिसमें गीता और कुरान का एक साथ पाठ होता था, वह अब मुसलमानों के कब्जे में है ?
ये वीडियो देखिये क्या हुआ था उस रात
https://www.youtube.com/watch?v=87yBuvKuR_w