राजनांदगांव। शासकीय दिग्विजय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. चंद्रकुमार जैन ने कहा है कि लोक साहित्य में मानव जीवन और संस्कृति के इंद्रधनुषी रंग उभरते हैं। लोक के आलोक में मानवता प्रकाशित होती है। लोक चेतना ही लोकतंत्र की आधारशिला है जिसे मज़बूत बनाकर किसी भी राष्ट्र की तरक्की का भव्य प्रासाद निर्मित किया जा सकता है। डॉ. जैन ने यह उदगार शासकीय रानी अवंतीबाई लोधी महाविद्यालय घुमका में हिंदी विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में आमंत्रित मुख्य वक्ता और विशिष्ट अतिथि के रूप में व्यक्त किया। प्रारम्भ में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. आई. आर. सोनवानी ने शाल, श्रीफल, पुष्प गुच्छ और सम्म्मान प्रतीक चिन्ह भेटकर डॉ. जैन का भावभीना सम्मान किया।
उद्घाटन सत्र में डॉ. जैन ने अतिथि वक्तव्य देते हुए कहा कि साहित्य अगर सर्वहित के लिए है तो लोक साहित्य उस हित को साधने का अचूक माध्यम है। लोक साहित्य भाषा के माध्यम से रचा गया जीवन का सचित्र कोश है। लोक साहित्य साथ-साथ जीने की कला का अनोखा बयान है। लोक साहित्य जीवन को सिरजने वाले गीत और नृत्य का दूसरा नाम है। डॉ. जैन ने कहा लोक के अमृत से ही साहित्य प्राण ग्रहण करता है। उसके पीछे जन चेतना का बड़ा हाथ होता है। लोक हमारे जीवन का महसमुद्र है। लोक सर्वोच्च प्रजापति है। वह केवल प्रकृति नहीं, मानव की प्रवृत्ति की कर्मशाला भी है।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र के बाद तकनीकी सत्र में भी मुख्य वक्ता रहे डॉ. चंद्रकुमार जैन ने कहा कि आज के दौर में लोक संपर्क या जन संपर्क के बिना सब कुछ व्यर्थ है। यह संपर्क जन चेतना से ही संभव है। इससे भी लोक साहित्य के सृजन का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। डॉ. जैन ने कहा लोक साहित्य लेखक की नहीं, जनता की कृति है। उसमें जनता की आत्मा ही बोलती है। आधुनिक काल में लोक साहित्य जनमत बनाने और बदलने का औज़ार भी बन गया है। राम और कृष्ण जैसे महान चरित्र भी लोक जीवन में ही पहुंचकर आराध्य बन पाए हैं। राम को रामत्व लोक जीवन के बीच ही मिला और कृष्ण द्वारिकाधीश होकर भी ब्रज को कभी नहीं भूले। लोक की महिमा का इससे बड़ा उदहारण संभव नहीं है।
डॉ. जैन ने कहा आज पर्यावरण बचाने के लिए सबसे पहले लोक चेतना को ही जगाने की आवाज़ बुलंद होती है। इस चेतना के प्रसार में लोक साहित्य की बड़ी भूमिका हो सकती है। जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिए लोक को बचाना होगा। लोक में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों का वास है। इसलिए लोक से जुड़ा साहित्य ही लोकव्यापी होता है। संगोष्ठी के प्रमुख सत्रों का कुशल संचालन डॉ. नीता ठाकुर ने किया।