प्रधानमंत्री आज (शनिवार को) मुख्यमंत्रियों से फिर वीडियो कॉनफ़्रेंसिंग करेंगे। मुद्दा निश्चित ही कोरोना और लॉक डाउन रहेगा।उसके बाद हो सकता है वे किसी दिन फिर से राष्ट्र को सम्बोधित करें।वे जो कुछ भी (अगर) कहेंगे या न भी कहेंगे उसके लिए नागरिक तो पहले से तैयार हैं।जनता को पता है कि आगे क्या होना है।सवाल केवल ‘कब तक‘ का ही बचा है।यानी ‘अबकी बार,कितनी मार ?’ उड़ीसा ने तो,जहाँ कोरोना के सब से कम मामले हैं और केवल एक बुजुर्ग की मौत हुई है,आगे होकर लॉक डाउन 30 अप्रैल तक बढ़ा दिया है।उड़ीसा के बाद तो और भी कई राज्य जुड़ गए हैं।
मुख्यमंत्रियों के साथ ऐसी ही पिछली वीडियो कॉनफ़्रेंसिंग (2 अप्रैल) के बाद बीजू जनता दल के एक प्रमुख नेता पिनाकी मिश्रा ने प्रधानमंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया था कि: लॉक डाउन ख़त्म नहीं किया जा रहा है पर कोरोना संकट के बाद ज़िंदगी पहले की तरह नहीं रहेगी।
इस तरह की सोच काफ़ी दिलासा देने वाली है कि वर्तमान संकट के ख़त्म हो जाने के बाद ज़िंदगी पहले जैसी नहीं रहेगी।तब क्या यह मान लिया जाए कि देश की धर्म-आधारित राजनीति बदल जाएगी? नेता और अधिकारी जनता के साथ पहले और वर्तमान जैसा सुलूक नहीं करेंगे। उनका व्यवहार भी बदलेगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि लॉक डाउन बढ़ाने के लिए कोई मेडिकल कारण नज़र नहीं आते हैं, दूसरे कोई हो सकते हैं।मसलन वैक्सीन तुरंत मिलनी नहीं है।हम जो कर सकते हैं वह यही कि टेस्टिंग की संख्या लाखों-करोड़ों में करें और संक्रमितों को स्वस्थ लोगों से अलग करें।अस्पतालों में बिस्तरों और उपकरणों को बढ़ाएं।बहुत सारी मेडिकल ज़रूरतों के तो अभी ऑर्डर दिए गए हैं जिनका कि उत्पादन जारी है।
लॉक डाउन बढ़ाने के कोई मेडिकल कारण नहीं हैं तो फिर क्या उसे हमारी प्रशासनिक कमजोरी के साथ जोड़कर देखा जाए?भोगा हुआ अनुभव है कि किसी एक इलाक़े में दंगे की स्थिति में कोई एक अधिकारी तो तुरंत पूरे शहर में कर्फ़्यू लगा देता है और ऐसी ही स्थिति में दूसरा बस उसी इलाक़े को सील करता है।
सुझाव दिए जा रहे हैं कि संक्रमण के जो ’हॉट स्पॉट्स’ हैं केवल उन्हें ही लॉक डाउन में रखें, बाक़ी विभिन्न चरणों में खोलते जाएँ।इस समय सबसे बड़ा संकट कम्यूनिटी संक्रमण को रोकने का है और उसका सम्बंध उस इलाक़े के प्रबंधन से ही है।जैसे कि ताज़ा चिन्ता धारावी को लेकर है।वहाँ या ऐसी और भी बस्तियों में जब तक पूरे इलाक़े को चारों तरफ़ से सील कर घर-घर में टेस्टिंग नहीं कराई जाती,सजा पूरे शहर को मिलती रहेगी।जैसा कि कहा जा रहा है,कोरोना से लड़ाई अब अस्पतालों में नहीं कम्यूनिटीज़ में जीतना पड़ेगी।मुंबई की धारावी जैसी बस्तियों में हमारे यहाँ दस करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं।
लॉक डाउन को बढ़ाने के चिकित्सीय कारण (या बहाने) जैसे-जैसे कम होते जाएँगे,अर्थ व्यवस्था के डर उतने ही बढ़ते जाएँगे।सरकारों के पास जब सेवा-निवृत होनेवाले कर्मचारियों को देने के लिए पैसा नहीं होता तो वे सेवा-निवृत्ति की उम्र ही बढ़ा देती हैं।कपूत अर्थव्यवस्था के पाँव कोरोना के पालने में दिख रहे हैं।कोरोना संकट से निपटने में जिस तरह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन की ख़ामियां उजागर हुई हैं, अर्थव्यवस्था को लेकर आनेवाले संकट हमारे वित्तीय प्रबंधन की कमियाँ खोल कर रख देंगे।शासकों को तब इस तरह के आरोपों से अपना बचाव करना होगा कि वे तो केवल राजनीति और धर्म का ही अच्छा मैनेजमेंट कर सकते हैं।अंत में यह कि लॉक डाउन को आख़िर कभी तो ख़त्म करना ही पड़ेगा ।
(लेखक कई समाचार पत्रों में संपादक रह चुके हैं और राजनतिक विश्लेषक हैं)