एक कविता जितनी देर में पढ़ी या सुनी जाती है उससे हजार गुना अधिक समय में वह कागज पर अवतरित होती है, और उससे भी हजार गुना समय उस विषय को चिंतन-मनन करने में कवि लगाता है। कविता का जन्म जब होता है, उससे पहले रचनाकार के विचारों में एक लंबा संघर्ष चल रहा होता है। तभी कविता यथार्थ के धरातल पर टिकती है और पाठक या श्रोता के मानस में अपना स्थान बना पाती है।
लब्ध प्रतिष्ठित कलमकार और संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’ की कविताओं का दूसरा संग्रह ‘सपनों के सच होने तक’ शीर्षक से हाल ही में अयन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। राजन जी नियमित सृजनधर्मी है, विचार और चिंतन और सृजन तीनों प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही वे अपना लिखा सार्वजनिक करते है। ये उनकी विशेषता है। इक्यावन कविताओं के इस संग्रह में सामाजिक सरोकार की रचनाएँ ज्यादा है। जो होना भी चाहिए। जब हम समाज को अपनी रचनाएँ सौप रहे है तो सामाजिक सरोकार प्राथमिक होना चाहिए। कपोल कल्पना मनोरंजन कर सकती है पर समाज को कुछ दे नही सकती। राजन जी हमेशा समाज को देने का भाव रखते है इसीलिए वे समाज के हर पहलू पर स्वयं को केन्द्र में रखकर लिखते हैं।
समाज की दोहरी मानसिकता पर उनकी कविता विष बीज जोरदार प्रहार करती है वे रचना के अंतिम पदों में लिखते है- छोटा हो या बड़ा /अपराध अपराध ही होता है/ जो विष बीज बोता है/ जिसके जहर से / समाज मृत होता है / दोहरा जीवन, दोहरी संस्कृति /जीना छोड़ना होगा /तभी उद्घोष होगा /सत्यम, शिवम, सुंदरम का। राजन जी कविता प्रश्न और उत्तर में जो कहते है वो बहुत गंभीर बात है और ऐसा लगता है वे सीख दे रहे है ,वे कहते है- जिंदगी के थपेड़ों में /गुम हो हो चुके प्रश्नों को /खोज लेने से क्या होगा /जबकि बहरे हुए समय में / उत्तरों का छोर कहां है। वर्तमान में जो मूल्य हृास हो रहे है उन्हें बचाने की एक अच्छी कोशिश है। वे नये युग की वसियत रचना में लिखते है- धोखा यहॉ परम्परा/झूठा गढ़ा इतिहास ही/ अब हमारी संपदा है/ क्या मान्यताओं की / झूठी लक्ष्मण रेखा/ अब टूटेगी?/मुक्त होंगे इनकी कैद से हम/उग रहा है नया सूरज/ नया प्रकाश फैलाने को।
वेदना और संवेदना कविता का आत्मतत्व होता है, एक अच्छी रचना इन तत्वों के बिना बन ही नहीं सकती है। बाढ़, नये युग की वसीयत, मानवता का कत्ल, नई पीढ़ी जैसी रचनाएँ समाज की पीड़ा है। जो हर इंसान कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में भोग रहा है। पीड़ा प्रश्न के डंर, मैं कृष्ण बोल रहा हूँ, मानवता का पुनर्जन्म जैसी कविता पुरातन आख्यानों का नवस्वरूप है जो आज भी समाज में जिंदा है। मेरे भीतर बहती है नदी,लालिमा सूर्योदय की, पुनर्जन्म, समर्थन , चलो, फिर से जी ले जैसी रचनाएँ जीवन को नव चेतना देने में सहायक है।
वही समाज में जब बहुत ज्यादा असामाजिकता आती है और मानव अमानवीय होने लगता है तब राजन जी की कविता के बदले तेवर लिखते है ईश्वर मर गया है, ऐसा एक दीप जलाऊं, प्रश्नों की परछाईयॉ जैसे रचनाएँ जो बोध करवाती है समाज में यह गलत हो रहा है। इस कृति में कईं रचनाओं में एक संदेश दोहराया गया है वह है सत्यम, शिवम,सुंदरम । जो की संसार का सार तत्व है और स्वयं का बोध करवाता है।
राजन जी की यह कृति पूरी तरह से संवेदना से भरी हुई है। हर रचना में उनकी संवेदनशीलता दिखाई दे रही है। राजन जी की यह कृति सामाजिक मूल्यों को पोषित करती है। सपनों के सच होने तक के लिए राजन जी को बधाई …।
*कृति- सपनों के सच होने तक
*लेखक- राजकुमार जैन ‘राजन’
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन, दिल्ली
*मूल्य-260/-
(प्रेषक)
-संदीप सृजन
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