इस समय महाभारत-काव्य का जितना विस्तार है, उतना उसके मूल निमार्ण के समय नहीं था, इस तथ्य से आजकल के सभी विद्वान सहमत हैं. ऐसी अवस्था में यह मान लेना असंगत न होगा कि इस काव्य-ग्रंथ की मूल कथा में अनेक परिवर्तन हुए हैं. ये परिवर्तन क्यों हुए, यह हमारे लेख के विषय से बाहर की बात है. पर इन परिवर्तनों से आर्य-संस्कृति का रूप उज्ज्वल हुआ या मिलन, यह एक विचारणीय विषय है. द्रौपदी के पांच पति वाली कथा इसका उदाहरण है.
महाभारत के आदि-पर्व में द्रौपदी के पांच पतियों का उल्लेख पाया जाता है. कथा इस प्रकार है-
पांचाल-नरेश द्रुपद ने अपनी पुत्री द्रौपदी के विवाह के लिए स्वयंवर रचा. उस स्वयंवर में ब्राह्मण-वेशधारी पांच पांडव भी सम्मिलित हुए. अनेक छोटे-बड़े देशों के राजा, ब्राह्मण, देवता, पौर, जनपद सभी अपने-अपने स्थान पर समासीन थे. एक ओर धनुष-बाण पड़ा था और दूसरी ओर आकाश में कृत्रिम यंत्र में लिपटा हुआ उसका संभाव्य लक्ष्य. (महाभारत के इस स्थल पर मत्स्यवेध, तेल के कड़ाह आदि का कोई उल्लेख नहीं है.) इस लक्ष्य को जो कुलीन एवं वीर व्यक्ति विद्ध कर दे, वही द्रौपदी का अभिमत पति होगा, ऐसा निश्चय किया गया था.
परंतु इस लक्ष्य को कोई भी राजा विद्ध न कर सका. कर्ण उठा, तो द्रौपदी ने ‘नाहं वरयामि सूतं’ कहकर उसकी सिट्टी भुला दी. बेचारा अपना-सा मुंह लिये रह गया. तब मृगचर्मधारी अर्जुन उठा. इंद्र के समान तेजस्वी अर्जुन ने लक्ष्य का वेध कर दिया और द्रौपदी ने उसके पराक्रम के प्रसन्न होकर उसके गले में जयमाला डाल दी.
कथा यहीं समाप्त नहीं हुई. अर्जुन के लक्ष्य-वेध करने पर मंडप में बैठे हुए ब्राह्मण अतीव प्रसन्न हुए, पर राजाओं ने कोलाहल करना प्रारम्भ कर दिया. धर्मपुत्र युधिष्ठिर इस कोलाहल को न सह सके और नकुल एवं सहदेव को लेकर कुम्भकार भार्गव के यहां अपने निवास-स्थान पर चले गये. सभा में रह गये अर्जुन और भीम. द्रुपद ने इन दोनों वीरों से कोलाहल शांत करने के लिए कहा. अर्जुन कर्ण से भिड़ गया और भीम शल्य से. कर्ण ने ब्राह्मण विजय को स्वीकार कर लिया और शल्य भीम द्वारा बांह पकड़कर दूर फेंक दिया गया. इतने में कृष्ण आ गये और उन्होंने यह कहकर मामला शांत कर दिया कि द्रौपदी का वरण न्यायपूर्वक हुआ है. इसके पश्चात महाभारत में लिखा है कि द्रौपदी को लेकर जब अर्जुन कुंती के पास पहुंचे और कहने लगे कि मां, हम भिक्षा ले आये हैं, तो कुंती ने कहा- ‘पांचों भाई बांट खाओं.’ पर जब बाहर निकलकर उसने द्रौपदी को देखा, तो वह अपने पर पश्चत्ताप करने लगी. बस यहीं से द्रौपदी के पांच पति वाली कथा का स्रोत प्रारम्भ होता है.
आगे चलकर पांच पति वाली कथा अधिक जोर पकड़ती है. जब द्रुपद अर्जुन से द्रौपदी का पाणिग्रहण करने को कहते है, तो युधिष्ठिर बीच में ही बोल उठते हैं- ‘वाह! पहले द्रौपदी का मेरे साथ विवाह होगा.’ कुंती तो अपने कथन पर पश्चात्ताप करती है, पर धर्मपुत्र युधिष्ठिर अनुचित विवाह सम्बंध के लिए हठ करते हैं.
द्रुपद उनसे कहते हैं-
नैकस्या बहवःपुंसःश्रूयन्ते पतयःक्वचित्।
लोकवेदविरुद्धं त्वं नाधर्म धर्मविच्छुचिः।
कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात्ते बुद्धिरीदृशी।
अर्थात एक स्त्री के अनेक पति नहीं होते. अनेक पति वाली बात आर्यों के समाज में प्रचलित नहीं है. वह लोक में प्रचलित प्रथा के विरुद्ध है और वेद भी इसका विरोध करते हैं. हे युधिष्ठिर, तुम तो धर्मात्मा हो, ऐसा अधर्म का कार्य तुम क्यों करने जा रहे हो, तुम्हारी ऐसी धर्म-विरोधिनी बुद्धि कैसे बन गयी?
इस पर युधिष्ठिर धर्म की सूक्ष्म गति के आवरण में अपने ‘मनोगत’ को आच्छादित कर कुंती वाली बात की दुहाई देते है.
ऊपर की दो घटनाओं से पांच पति वाली कथा-सरिता का स्रोत कुछ भी आगे बढ़ता दिखाई नहीं देता. धर्म और सदाचार की प्रेरणा उसके मार्ग में पर्याप्त अवरोध उपस्थित कर रही है. यदि कुंती ने ‘पांचों बांट खाओ’ कह भी दिया हो, (पर जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, वह महाभारत के संस्कर्त्ता की सूझ मात्र है, मूल कथा में कुंती के मुख से ये शब्द निकले ही नहीं ) तो उसका तैत्तिरीय उपनिषद की उसक सूक्ति के अनुकूल निराकरण हो जाना चाहिए था- यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि न इतराणि।
जब इन दो घटनाओं से पांच पति वाली कथा पुष्ट न हो सकी, तो महाभारत का संस्कर्त्ता व्यासजी को आगे लाता है और व्यसा एवं द्रुपद द्वारा उसका समर्थन कराता है. इस संवाद में युधिष्ठिर ने मुनि-पुत्री वार्क्षी की दस पति वाली एवं जटिला नामक गौतमी की सात पति वाली दो कल्पित अथवा ऐतिहासिक घटनाओं के उदाहरण दिये हैं.
व्यासजी को द्रुपद से सबके सामने वार्तालाप करने का साहस नहीं होता. वे उन्हें अंदर महल में लिवा ले जाते हैं और वहां द्रौपदी एवं पांडवों के पूर्वजन्म की कथाओं का उल्लेख करते हुए एक ऋषि की कन्या का वृत्तांत सुनाते हैं-
वह कन्या रूपवती और युवती होने पर भी पति नहीं पा सकी. उसने कठोर तपस्या करके शंकर को प्रसन्न किया. शंकर बोले- ‘वर मांगो.’ कन्या ने कहा- ‘मैं सर्वगुण शील-सम्पन्न पति मांगती हूं.’ शंकर प्रसन्न मन से होकर कहते है- ‘भद्रे, तुम्हारे पांच पति होंगे.’ कन्या कहती है- ‘मैं आपसे एक पति की प्रार्थना करती हूं.’ पर शंकर कहते हैं- ‘तुमने पांच बार प्रार्थना की है, इसलिए तुम्हारे पांच पति होंगे. मेरी बात नहीं पलटेगी- दूसरे जन्म में तुम्हारे पांच पति होंगे.’ (आदि पर्व 199-49,50). यही कन्या द्रौपदी है.
इस कथा को पढ़कर सहृदय व्यक्तियों के हृदय को अवश्य ठेस लगेगी. तनिक विचार तो कीजिए, कन्या एक पति मांग रही है, पर शंकर जबर्दस्ती उसके मत्थे पांच पति मढ़ रहे हैं. यही जबर्दस्ती, यही अधर्म, यही पाप महाभारत का संस्कर्त्ता द्रौपदी के ऊपर भी मढ़ रहा है.
इस प्रकार इन तीनों साधनों द्वारा द्रौपदी के पांच पति वाली बात की पुष्टि नहीं हो सकी है- न कुंती का कथन ही इस बात को आर्यों का आचार सिद्ध कर सकता है, न युधिष्ठिर का मनोगत विचार तथा वार्क्षी एवं जटिलता के उदाहरण, और न व्यास द्वारा कही गयी द्रौपदी के पूर्वजन्म की कल्पित कहानी.
अब संक्षेप में, महाभारत के मूलश्लोकों पर भी सूक्ष्म विचार कर लेना चाहिए. स्वयंवर में जो शर्त थी, उसे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी पाडंव ने पूर्ण नहीं किया. अतः न्यायानुसार द्रौपदी को अर्जुन की पत्नी होना चाहिए था. और वही हुआ भी. आदिपर्व के 199 वें अध्याय का द्वितीय श्लोक पढ़ियेः
येन तद्धनुरायम्य लक्ष्यं विद्धं महात्मना।
सोŠर्जुनो जयतां श्रेष्ठो महाबाण धनुर्धरः।।
अर्थात जिसने लक्ष्य का वेध किया है, वह धनुर्धर अर्जुन ही है. इसी श्लोक के आगे नौंवे और दसवें श्लोक में लिखा है-
अथ दुर्योधनो राजा विमना भ्रातृभिःसह।
अश्वत्थाम्ना मातुलेन कर्णेन च कृपेण च।।
विनिवृत्तो वृत्तं दृष्ट्वाद्रौपद्या श्वेतवाहनम्।
अर्थात दुर्योधन यह देखकर कि द्रौपदी ने अर्जुन को वरण कर लिया, विमनस्क होकर अपने भ्राताओं, अश्वत्थामा, मामा, कर्ण और कृप के साथ लौट गया.
जब द्रौपदी ने अर्जुन को वरण कर लिया, तो युधिष्ठिर आदि अन्य चार भाइयों के साथ उसका विवाह कैसा?
आदिपर्व के 187 अध्याय के 27 वें और 28 वें श्लोकों पर भी दृष्टि डालिये-
विद्धं तु लक्ष्यं प्रसमीक्ष्य कृष्णा
पार्थञ्च शक्रप्रतिमं निरीक्ष्य।
आदाय शुक्लाम्बरमाल्यदाम।
जगाम कुंतीसुतमुत्स्मयन्ती।।
जब द्रौपदी ने देखा कि इंद्र के समान तेजस्वी अर्जुन ने लक्ष्य वेध कर दिया, तो वह मुस्काती हुई, जयमाला लिये अर्जुन के पास पहुंची.
स तामुपादाय विजित्य रंगे
द्विजातिभिस्तैरभिपूज्यमानः।
रंगान्निरक्रामदचिन्त्यकर्मा
पत्या तथा चा। प्यनुगम्यमानः।।
ब्राह्मणों द्वारा सत्कृत हो, रंगभूमि में द्रौपदी को जीतकर अर्जुन सभामंडप से बाहर निकला. उस समय उसकी पत्नी द्रौपदी भी उसके पीछे चल रही थी. इस स्थान पर निश्चित रूप से द्रौदपी को अर्जुन की पत्नी लिखा है, अन्य किसी पांडव की नहीं.
अच्छा, अब कुंती की ‘पांचों भाई बाँट खाओ’ वाली बात को लीजिए. हमारे विचार में कुंती के मुख से ये शब्द कभी नहीं निकले. यदि कुंती ने ऐसा कहा होता, तो धृष्टद्युम्न को इसका पता अवश्य होता, क्योंकि वह छिपकर अर्जुन और द्रौपदी के पीछे गया था और भार्गव कुम्भकार के यहां पहुंचने पर पांडवों, कुंती एवं द्रौदपी में जो कुछ वार्तालाप हुआ, वह सब सुनता रहा था. उसने वहां की समस्त बातें अपने पिता को जाकर बतलायी थीं.
धृष्टद्युम्न कहता है कि जब भीम और अर्जुन द्रौदपी के साथ कुम्भकार के घर में घुसे, तब कुंती अन्य तीन पांडवों के साथ वहां बैठी थी.
तस्यास्ततस्ताववभिवाद्य पादा-
वुक्ता च कृष्णा त्वभिवादयेति।
स्थितां च तत्रैव निवेद्य कृष्णां
भिक्षाप्रचाराय गता नराग्रयाः।।
अर्थात भीम और अर्जुन दोनों ने कुंती को प्रणाम करके द्रौपदी से कुंती को प्रणाम करने के लिए कहा. फिर द्रौपदी को कुंती के पास छोड़कर वे सब नरश्रेष्ठ भिक्षा के लिए निकल गये.
इस स्थल पर न तो द्रौपदी भिक्षा की कोई बात ही कही गयी है और न कुंती का यह कथन है कि पांचों भाई इसे भोगो. यदि ऐसी बात कही गयी होती, तो धृष्टद्युम्न अपने पिता को अवश्य सुनाता, क्योंकि उसने कुम्भकार के घर हुई पांडवों की रत्ती-रत्ती भर बात का द्रुपद के सामने निवेदन किया है. वे सब बातें आदिपर्व के 195 वें अध्याय में वर्णित हैं.
हमारी समझ में धृष्टद्युम्न का उपर्युक्त कथन द्रौपदी की पांच पति वाली बात की जड़ ही काट देता है. यह प्रसंग महाभारत के संस्कर्त्ता की कल्पना मात्र रह जाता है.
आदिपर्व के 195 वें अध्याय में द्रुपद पांडवों का परिचय प्राप्त करके कहता है-
गृह्णातु विधिवत् पाणिमद्याŠयं कुरुनन्दनः।
पुण्येŠहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतां क्षणम्।।
अर्थात आज पवित्र दिन है. विशाल-बाहु अर्जुन विधिपूर्वक द्रौपदी के साथ विवाह करें. इसका तात्पर्य यही है कि द्रुपद अर्जुन को ही द्रौपदी का पति समझता है.
द्रौपदी का जब विवाह हो गया, तो वह रेशमी वस्र पहने कुए कुंती के सामने प्रणाम करके नम्र भाव से हाथ बांधकर खड़ी हो गयी. उस समय कुंती ने उसे जो आशीर्वाद दिया, वह मनन करने योग्य है-
रूपलक्षणसंपन्नां शीलाचार रसमन्विताम्।
द्रौपदीमवद्त प्रेम्णा पृथा।।
शीर्वचनैः स्नुषाम्।।
जीवसूर्वोरसूर्भद्रे बहुसौख्यसमन्विता।
सुभगाभोगसम्पन्ना यज्ञपत्नी पतिव्रता।।
रूप लक्षण-सम्पन्ना, शील और आचार वाली द्रौपदी को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देती हुई कुंती कहती है कि भद्र, तुम वीरप्रसविनी, पतिव्रता और यज्ञपत्नी बनो.
यहां पतिव्रता और यज्ञपत्नी दो शब्द ध्यान देने योग्य हैं. एक पति ही जिसका व्रत है, उसे पतिव्रता और एक पति के साथ जो यज्ञ में भाग लेती है, उसे यज्ञपत्नी कहा जाता है. क्या द्रौपदी पांच पति वाली होकर इन दोनों विशेषणों की अधिकारिणी बन सकती है? पांच पतियों वाली कथा बाद में जोड़ी गयी है, इसका सबसे बढ़िया प्रमाण विराटपर्व में मिलता है. भीम कीचक का वध करने के बाद कहता है-
अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम्।
शांतिं लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रिकण्टकम्।।
अर्थात आज मैं कीचक को मारकर अपने भाई की पत्नी के ऋण से मुक्त हो गया. यहां भी भीम द्रौपदी को अपनी भार्या नहीं कहता. वह उसे अपने भाई (अर्जुन) की भार्या कहता है.
महाभारत के ऊपर लिखे उद्धरणों से हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि द्रौपदी के पांच पति वाली कथा बाद में किसी ने जोड़ी है. उसके जोड़ने में कुछ उद्देश्य रहा हो, पर वह हमें आर्य-मर्यादा के अनुकूल नहीं जान पड़ती.
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