Sunday, November 24, 2024
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“जब कठिन समय आता है तो अभिव्यक्ति के कई माध्यम ढूँढने होते हैं“–राजेश जोशी

“लॉकडाउन में किताबें भावनाओं को सेनेटाइज करती हैं” –अशोक महेश्वरी

अनिश्चितता में हम रोज़ कुछ निश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार, जरूरी व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करने में सक्रिय है तो आम जनता और कुछ संस्थाएं सड़क पर बदहवास चले जा रहे हैं लोगों के लिए खाना या पानी उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ दूर के लिए कोई सवारी मिल जाने से निश्चिन्तता नहीं मिलेगी। जरा राहत मिल जाएगी। उसकी निश्चिन्तता घर की पहुंच है।

दरअसल यह कोशिशें ही इस समय का सच है। हमारे समय के सवालों का जवाब।

लेखक अनु सिंह चौधरी ने राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव से जुड़कर कहा कि, “हमारे भीतर ये सवाल गूंजता है कि जो भी हम कर रहे हैं इसका मानी क्या है? इस बीमारी के बारे में कहीं कोई जवाब नहीं है। तब इतिहास और साहित्य के पन्ने को पलट कर देखना एक उम्मीद, एक हौसले के लिए कि कैसे हमारे पूर्वज़ों ने बड़ी त्रासदियों का सामना किया है। कहानियों, किस्सों या काल्पनिक कथाओं के जरिए अपने समय को देखा है। उम्मीद या नाउम्मीदी कोई तो रास्ता वहां से निकलेगा…”

कई भाषाओं एवं बोलियों में न केवल महामारियों बल्कि अन्य प्राकृतिक आपदाओं का जिक्र हुआ है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, कमलाकान्त त्रिपाठी, विलियम शेक्सपीयर, अल्बैर कामू, गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ जैसे कई साहित्यकारों ने अपने समय की आपदाओं को अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाया है।

“लेकिन जब कठिन समय आते हैं तो अभिव्यक्ति के कई माध्यम ढूँढने होते हैं।“ राजेश जोशी ने यह बात लाइव बातचीत के दौरान कही। राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव से जुड़कर उन्होंने कहा, “यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य है – हरिवंश राय बच्चन की यह पंक्ति आज के समय में बिलकुल बदल जाती है। पैदल चलते हुए मनुष्यों का दृश्य महान दृश्य नहीं हृदय विदारक और दुखी कर देने वाले दृश्य हैं। इस समय उम्मीद देने वाला दृश्य उन डॉक्टर, स्वास्थकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों, एक्टिविष्ट को देखना है जो जीवन को बचाने में रात दिन लगे हुए हैं।“

राजकमल प्रकाशन समूह के साथ फ़ेसबुक लाइव के जरिए राजेश जोशी ने अपनी कई नई कविताएं और कुछ पुरानी कविताओं का पाठ किया। राजेश जोशी ने अपनी कविताओं को जीवन को बचाने में लगे लोगों को समर्पित किया-

“उल्लंघन / कभी जान बूझकर / कभी अनजाने में / बंद दरवाज़े मुझे बचपन से ही पसंद नहीं रहे / एक पांव हमेशा घर की देहरी से बाहर ही रहा मेरा / व्याकरण के नियम जानना मैंने कभी जरूरी नहीं समझा / इसी कारण मुझे कभी दीमक के कीड़ों को खाने की लत नहीं लगी / और किसी व्यापारी के हाथ मोर का पंख देकर उसे खरीदा नहीं / बहुत मुश्किल से हासिल हुई थी आज़ादी / और उससे भी ज़्यादा मुश्किल था हर पल उसकी हिफ़ाजत करना..”

“लॉकडाउन में किताबें भावनाओं को सेनेटाइज करती हैं” – अशोक महेश्वरी

गुरुवार की शाम राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने फ़ेसबुक लाइव के जरिए किताबों की बातें और प्रकाशन की वर्तमान स्थिति पर कई महत्वपूर्ण जानकारियां साझा कीं। उन्होंने कहा, “हम कुछ भी अच्छा तभी कर पाते हैं जब हम बहुतों के लिए कर रहे होते हैं, बहुजन हिताय। और जब हम इसी करने में अपना सुख, अपना आनन्द भी जोड़ लेते हैं तब यह स्वान्तः सुखाय भी हो जाता है।“

राजकमल प्रकाशन अपने प्रकाशन के 74वें साल में प्रवेश कर चुका है। कई हजार किताबें और उनकी लाखों प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस संदर्भ में बात करते हुए उन्होंने कहा, “हमारी पूरी टीम किताब तैयार करती है, पहली छाती भर साँस उसके साथ हम लेते हैं, फिर यह किताब पाठकों तक पहुँचती है। हम आनन्द पाते हैं पर हृदय की धड़कन बढ़ी रहती है। पाठकों की खुशी, उनकी प्रतिक्रिया हम तक पहुँचती है, पाठकों का यह आनन्द हमारा भी आनन्द बन जाता है, तभी हमारी साँस छूटती है। सृजक का यह आनन्द भरपूर तभी होता है, जब पाठकों की भावनाएँ छलछलाती हुई हम तक आती हैं।“

वर्तमान में लॉकडाउन की परिस्थिति ने सबकुछ स्थिर कर दिया है। ऐसे में राजकमल प्रकाशन संस्थान ने आभासी मंच एवं वाट्सएप्प के रास्ते लोगों तक पहुंचने की नई पहल की।

राजकमल फेसबुक लाइव के कुल 182 सेशन अब तक हो चुके हैं। जिनमें कुल 138 वक्ता भागीदारी कर चुके हैं। इन सभी सत्रों के वीडियो को 9 लाख से ज्यादा लोगों ने अब तक देखा है। यानी औसतन हर सेशन को 5,000 लोगों ने देखा है। यह एक नया और दिलचस्प अनुभव है। पुष्पेश पंत का कार्यक्रम ‘स्वाद-सुख’ खान-पान की विशेषता से भरपूर रोचक कार्यक्रमों में शामिल है।

वाट्सएप्प द्वारा साझा की जा रही पुस्तिका ‘पाठ– पुन:पाठ’ पाठकों के बीच ख़ासी चर्चित एवं सराही जा रही है। इस संदर्भ में बात करते हुए अशोक महेश्वरी ने कहा, “ इन दिनों नई किताब के गंध का सुख तो हम नहीं ले सकते, लेकिन किताब के नए अवतार पाठकों तक पहुँचाए जा रहे थे। ई-बुक, ऑडियो बुक, वाट्सएप्प बुक ने अपने होने का एहसास बखूबी पाठकों को दिलाया है। इस कठिन समय से बाहर निकलने में इन सबके महत्त्वपूर्ण योग को नकारा नहीं जा सकता। वाट्सएप बुक का आविष्कार इस समय की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है। ई-बुक और ऑडियो बुक ने अपनी पैठ नए-नए पाठकों तक बनाई है। इनकी बिक्री कई गुना बढ़ गई है। वाट्सएप बुक ने तो जन्म लेते ही पच्चीस हजार से ज्यादा पाठक बना लिए हैं।“

उन्होंने बताया, “इसकी जरूरत महसूस तब हुई जब लगा कि यह घरबन्दी लम्बी चलेगी। उनका क्या होगा जो पढ़ना चाहते हैं। उनके लिए जिनका ई-बुक और ऑडियो बुक तक पहुँचना और उन्हें पढ़-सुन पाना सरल नहीं है। वाट्सएप को इस समय सन्देशों के आदान-प्रदान का सबसे सरल साधन माना जा रहा है।“

इस पहल को लेकर कुछ सवाल भी लोगों ने खड़े किए। इन सवालों पर बात करते हुए अशोक महेश्वरी ने कहा, “जैसे बिजली के गाँवों में पहुँचने पर लगता था कि जिस पानी से बिजली यानी ताकत निकल गयी वह पानी तो शक्तिहीन हो गया, उस फोके पानी को पीने का क्या लाभ। ऐसे ही वाट्सएप बुक पर भी मुफ्त खोरी को बढ़ावा देना, रॉयल्टी की हानि, मार्केटिंग फण्डा आदि-आदि आरोप लगे। बहुजन हिताय की सोच और पाठकों को मानसिक तोष पहुँचा सकने की मुहिम के आगे यह सब बेमानी समझा और पानी से ताकत निकाल लेने की अफवाहों की तरह ही इसे नकार दिया।

उन्होंने कहा, “पाठकों के उत्साहवर्द्धन से तो ये आरोप खुद ही खारिज होते रहे हैं, हो रहे हैं।“

अशोक महेश्वरी ने लाइव बातचतीत में उन किताबों का भी जिक्र किया जिसे लॉकडाउन के दौरान वे पढ़ रहे हैं। किताबों से उन्होंने कुछ चुनिन्दा अंशों का रोचक पाठ भी किया।

“मैं अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं से प्यार करता हूँ। मातृभाषा में काम करना और उसी में पुस्तकों का प्रकाशन करना पसन्द करता हूँ।“

किताबों पर बात करने से पहले उन्होंने कुछ सवाल भी उठाए, जो किताबों के संबंध में बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं। उन्होंने कहा, “आज के समय में किताबों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। उसे समाचार पत्रों द्वारा छोड़ दिया गया काम भी करना पड़ रहा है। समाचार पत्रों ने अच्छें लोगों की खबरें देना बन्द कर दिया है। समाज में अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है, मीडिया में उनकी खबरें जगह नहीं पातीं। साम्प्रदायिक, अपराधी और दुष्ट लोग जिनकी संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, उनकी खबरों से अखबार भरे पड़े रहते हैं। अच्छे लोग जिनकी संख्या 80 प्रतिशत से ज्यादा है, उन्हें समाचारों में जगह नहीं मिलती। बुरे लोगों की खबरों को ही मीडिया में स्थान मिलता है। अच्छे लोग पिछले एक सौ पचास वर्षों से खबरों से बाहर हैं। पत्रकारिता ज्यादा से ज्यादा राजनीति जुर्म और ग्लैमर में बंधकर समाज से दूर होती गयी है। इस जगह को किताबों को भरना है और वे भर रही हैं।“

एक निवेदन

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