गुरु की महत्ता का मूल कारण जुड़ा है हमारे अपने अस्तित्व से। हमें दैहिक जन्म मिलता है माता पिता से और हमें आत्म जगत में, ज्ञान के संसार में जन्म मिलता है गुरु से।
माता और पिता को “गुरु” और “देव” दोनों की संज्ञा है ,वे प्रथम गुरु है। फिर करीब 8 साल की उम्र में दूसरे जन्म की व्यवस्था की गयी, द्विज होने की ।
8 साल इसलिये कि 7 साल की उम्र तक आदमी अपने जीवन का 50 प्रति शत से अधिक सीख चुका होता है और शेष ज्ञान के लिये एवं ज्ञान परिमार्जन के लिए मार्गदर्शन की जरुरत होती है। अतः गुरु आवश्यक होता है।
“द्विज” का अर्थ ही होता है दूसरा जन्म , ज्ञान के संसार में जन्म और इस जन्म के माता व् पिता क्रमशः सरस्वती और गुरु होते है।
“सावित्री माता भवति आचार्यः तुः पिता।” यानि सरस्वती माता है और गुरु है पिता ।
जन्म से सभी व्यक्ति शुद्र होते है यानि अपरिष्कृत ,असंस्कारित, स्थूल। आचार्य ज्ञान देकर परिस्कृत करता है और इस प्रकार हमें दूसरा जन्म देता है, द्विज बनाता है इसलिए पिता तुल्य है।
द्विज की श्रेणियां है तीन वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण। ये कोई जातिगत वर्गीकरण नहीं थे वर्तमान में हो गए है यह अलग बात है। ब्राह्मण थी चेतना की चरम अवस्था और शुद्र थी निम्नतम अवस्था।
गुरु सहायक होता था उन्नति में, शूद्र से ब्राह्मण की यात्रा में।और गुरु सहायता इसलिये कर पाता था क्योकि वह स्वयं उस पथ का कभी पथिक था, राह गीर था; अतः मार्ग से, उसकी कठिनाइयों से भिज्ञ था ।गुरु ने भी कभी पूरी की थी शुद्र से ब्राह्मण तक की यात्रा।
आत्म के लोक में जो कठिनाई थी और अब भी है और यह अनंत काल तक रहने वाली है। यह उतनी ही शाश्वत है जितनी आत्मा या यह मनुज देह। वह कठिनाई है मन की वृत्तियाँ और बगैर इन वृत्तियों को नियंत्रित किये आत्मलोक में प्रवेश संभव नहीं है और न था। गुरु सहायक था इन वृत्तियॉ को नियंत्रित करने की कला सिखाने में। वह स्वयं दे नहीं सकता था किन्तु मार्ग दर्शन कर सकता था और इसी हेतु के कारण गुरु का सम्मान था।
आचार्य हम उसे कहते थे या गुरु वह होता था जिसने स्वयं ज्ञान प्राप्त किया था, ज्ञान को दिया भी था और साथ साथ उस ज्ञान को जिया भी था।
अब वर्तमान परिपेक्ष्य का अवलोकन और आकलन आप स्वयम् कर लें कि गुरु की उपलब्धता है कि नहीं।
मुझे लगता है वर्तमान में या तो शिक्षक है या फिर कथा वाचक या उपदेशक या धर्म के व्यापारी है। “सद गुरु” नगण्य ही है, बहुत कम है।
मेरी समझ में शब्द में सामर्थ्य ही नहीं है कि वह गुरु को व्यक्त कर दे, परिभाषित कर दे। दो पंक्ति जो गुरु के सन्दर्भ में कभी लिखी थी, निवेदित है।
“गुरु में
छिपा है तत्व
आकर्षण पे
जिसके
टिकी सत्ता
ज़माने की।
शब्द में
सामर्थ्य कब है
‘विनोदम्’
महत्ता
गुरु की
बताने की ।।”
समस्त सद् गुरुओं को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आशीष आकांक्षा सहित
श्रद्धावनत नमन !वंदन! अभिनन्दन!