दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली और कई भाषाओँ में अनुदित हो चुकी इस पुस्तक के लेखक का मानना है कि मौत के कगार पर पहुँचा व्यक्ति किन छोटी सी पाँच बातों को लेकर जिंदगी भर पछताता रहता है, जिनको हासिल करना हर समय उसके हाथ में रहता है मगर…
आस्ट्रेलिया की ब्रोनी वेयर कई वर्षों तक कोई सार्थक काम तलाशती रहीं, लेकिन कोई शैक्षणिक योग्यता एवं अनुभव न होने के कारण बात नहीं बनी। फिर उन्होंने एक हॉस्पिटल की Palliative Care Unit में काम करना शुरू किया। यह वो विभाग होता है जिसमें अंतिम साँसें गिनने वाले मरीजों को रखा जाता है। यहाँ मृत्यु से जूझ रहे लाईलाज बीमारियों व असहनीय दर्द से पीड़ित मरीजों के मेडिकल डोज़ को धीरे-धीरे कम किया जाता है और काऊँसिलिंग के माध्यम से उनकी अध्यात्मिक व श्रध्दा पर आधारित चिकित्सा की जाती है ताकि वे एक शांतिपूर्ण मृत्यु की ओर उन्मुख हो सकें।
ब्रोनी वेयर ने ब्रिटेन और मिडिल ईस्ट में कई वर्षों तक मरीजों का मार्गदर्शन करते हुए पाया कि मरते हुए लोगों को कोई न कोई पछतावा ज़रूर था। कई सालों तक सैकड़ों मरीजों की काउंसलिंग करने के बाद ब्रोनी वेयर ने मरते हुए मरीजों के सबसे बड़े ‘पछतावे’ या ‘regret’ में एक सामान्य नजरिया पाया।
जैसा कि हम सब इस सच्चाई से वाकिफ़ हैं कि मरता हुआ व्यक्ति हमेशा सच बोलता है, उसकी कही एक-एक बात अकाट्य सत्य अर्थात ‘ईश्वर की वाणी’ जैसी होती है। मरते हुए मरीजों के इपिफ़नीज़ को ब्रोनी वेयर ने 2009 में एक ब्लॉग के रूप में रिकॉर्ड किया। बाद में उन्होनें अपने निष्कर्षों को एक किताब द टॉप फाईव रिग्रेट्स ऑफ द डाईंग (“THE TOP FIVE REGRETS of the DYING” ) के रूप में प्रकाशित किया। छपते ही यह विश्व की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक साबित हुई और अब तक लगभग 29 भाषाओं में छप चुकी है। पूरी दुनिया में इसे 10 लाख से भी ज़्यादा लोगों ने पढ़ा और प्रेरित हुए।
ब्रोनी द्वारा सूचीबध्द किए गए ‘पाँच सबसे बड़े पछतावे’ हैं-
1) “काश मैं दूसरों के अनुसार न जी कर अपने अनुसार ज़िंदगी जीने की हिम्मत जुटा पाता!”
यह सबसे ज़्यादा जो सामान्य पछतावा था, इसमें यह भी शामिल था कि जब तक हम यह महसूस कर पाते हैं कि अच्छा स्वास्थ्य ही आज़ादी से जीने की राह देता है तब तक यह हाथ से निकल चुका होता है।
2) “काश मैंने इतनी कड़़ी मेहनत न की होती”- सब्रोनी ने बताया कि उन्होंने जितने भी पुरुष मरीजों का उपचार किया लगभग सभी को यह पछतावा था कि उन्होंने अपने रिश्तों को समय न दे पाने की ग़लती मानी। ज़्यादातर मरीजों को पछतावा था कि उन्होंने अपना अधिकतर जीवन अपने कार्य स्थल पर खर्च कर दिया! उनमें से हर एक ने कहा कि वे थोड़़ी कम कड़ी मेहनत करके अपने और अपनों के लिए समय निकाल सकते थे।
3) “काश मैं अपनी भावनाओँ का इज़हार करने की हिम्मत जुटा पाता”- ब्रोनी वेयर ने पाया कि बहुत सारे लोगों ने अपनी भावनाओं का केवल इसलिए गला घोंट दिया ताकि शाँति बनी रहे, परिणाम स्वरूप उनको औसत दर्ज़े का जीवन जीना पड़ा और वे जीवन में अपनी वास्तविक योग्यता के अनुसार जगह नहीं पा सके! इस बात की कड़वाहट और असंतोष के कारण उनको कई बीमारियाँ हो गयीं!
4) “काश मैं अपने दोस्तों के सम्पर्क में रहा होता”-ब्रोनी ने देखा कि अक्सर लोगों को मृत्यु के नज़दीक पहुँचने तक पुराने दोस्ती के पूरे फायदों का वास्तविक एहसास ही नहीं हुआ था! अधिकतर तो अपनी ज़िन्दगी में इतने उलझ गये थे कि उनकी कई वर्ष पुरानी ‘सुनहरी दोस्ती’ उनके हाथ से निकल गयी थी। उन्हें ‘दोस्ती’ को अपेक्षित समय और ज़ोर न देने का गहरा अफ़सोस था। हर कोई मरते वक्त अपने दोस्तों को याद कर रहा था!
5) “काश मैं अपनी इच्छानुसार स्वयं को खुश रख पाता!”आम आश्चर्य की यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात सामने आयी कि कई लोगों को जीवन के अन्त तक यह पता ही नहीं लगता है कि ‘ख़ुशी’ भी जीने की एक पसंद या विकल्प है!
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि- ‘ख़ुशी वर्तमान पल में है’…इसलिए जीवन के हर उस क्षण का आनंद लीजिये जो आपको अभी मिला है, अपने दोस्तों से मिलिये, परिवार जनों का हालचाल पूछते रहिए और कभी किसी की याद आ जाए तो उसके घर चले जाईये या उसे अपने घर बुला लीजिये..