Thursday, November 28, 2024
spot_img
Homeभारत गौरवहैदराबाद सत्याग्रह के महान बलिदानी अशर्फीलाल

हैदराबाद सत्याग्रह के महान बलिदानी अशर्फीलाल

आर्य समाज को जिस आन्दोलन के कारण अपूर्व गौरव मिला और इसकी ख्याति देश से बाहर पूरे विश्व में पहुँच गई, जिस के कारण आबाल वृद्ध को नवचेतना मिली, जिसने सागरवत् भयंकर लहरों को झकझोरते हुए भयंकर जवारभाटे का स्वरूप प्राप्त किया| जिस आन्दोलन ने आर्यों की आन,बान, शान को बढाया तथा जिस आन्दोलन ने आर्य समाज के लोगों को जीवित रहने के लिए मरने की कला सिखाई, वह सब से बड़ा आन्दोलन था “ आर्यों का हैदराबाद सत्याग्रह आन्दोलन |” इस आन्दोलन के लिए हजारों की संख्या में आर्य युवक, नौजवान् तथा वृद्ध, सब श्रेणियों, सब जातियों तथा सब व्यवसायों के आर्यों ने अपने जीवन की सब अभिलाषाओं को छोड़कर मृत्यु का वरण करने अथवा विजयी होने की लालसा के साथ हैदराबाद की और कूच किया| इस प्रकार अपना जीवन बलिदान करने के लिए हैदराबाद सत्याग्रह के लिए कूच करने वालों में हमारे कथानायक अशर्फीलाल जी भी एक थे|

अशर्फीलाल जी बिहार के चंपारण जिला के अंतर्गत नरकटियागंज के निवासी थे| आपके पिता अत्यंत वृद्ध थे और आप इस परिवार की एकमात्र संतान थे| यह तो पता ही नहीं चल पाया कि धर्म पर बलिदान होने के संस्कार उन्हें कहाँ से मिले जो कि परिवार के सब प्रकार के मोह माया के जाल से अलग होकर हैदराबाद रियासत की और मौत से आलिंगन करने चल पड़े| चाहे अशर्फीलाल जी के पास बहुत सीमित धन था किन्तु हृदय से अत्यंत धनवान् थे| लौकिक धन न सही, आलौकिक सम्पत्ति से तो आपके समकक्ष उस समय उस क्षेत्र में तो कोई अन्य नहीं था| इस कारण आपका बलिदान होने पर पूरा परिवार संकटों से घिर गया|

जब आप सत्याग्रह के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो उस समय बूढ़े पिता, रो रही माता का मोह तथा नव विवाहित पत्नी का स्नेह, इन में से कुछ भी आपके बलिदानी मार्ग में को अवरुद्ध करने में सक्षम न हो सका| अत: इस सब अवस्था में आपने हैदराबाद के लिए प्रस्थान किया| वहाँ जा कर सत्याग्रह किया और इस प्रकार दिनांक २२ जुलाई सन् १९३९ ईस्वी को निजाम की हैदराबाद जेल को ही भावी जीवन के लिए अपना निवास बना लिया| यह तो सर्वविदित ही है कि निजाम की जेलों में गंदा तथा रेत कंकड़ मिला खाना दिया जाता था और बंदियों पर अत्यधिक क्रूरता की जाती थी और इनसे अत्यधिक काम भी लिया जाता था| जेल की वायु भी अत्यंत ही दूषित होती थी| यह सब कुछ आर्य सत्याग्रहियों को परेशान करने के लिए काफी थीं, जबकि जेल के अधिकारियों का गंदा व्यवहार तथा अकारण सख्ती करते हुए प्रतिदिन यह कहा जाता कि क्षमा मांगो और जेल की इस नरक से निकलकर अपने घर लौट जाओ, किन्तु जेल में बंद अन्य आर्यों के समान अशर्फीलाल जी कोई यहाँ क्षमा माँगने तो आये नहीं थे, यह बलिदानी मार्ग तो उन्होंने स्वेच्छा से चुना था|

अत: बलवान् आत्मा के धनी, सिंह शावक के समान मजबूत अशर्फीलाल यह सब कैसे सहन करते? इस कारण उन पर सख्ती पहले से भी अधिक कर दी गई| इस अवस्था में जेल में रहना अर्थात् बीमारी और मौत को चुनौती देना ही था| न तो जेल के अधिकारियों की कठोरता और न ही उनकी उदारता उन्हें अपने निश्चय से डिगा सकी| परिणाम जो उपेक्षित था, उसके अनुरूप अशर्फीलाल जी को अन्य जेल के बंदियों के समान ही भयंकर रोग ने आ घेरा| रोगी पर तो निजाम के अत्याचार अपनी सीमा को भी लाँघ जाते थे, अत: रोग से त्रस्त और ऊपर से निजामशाही के अत्याचारों ने उनके शरीर को तोड़ दिया| उनके रोग की भयंकरता को देखकर तथा उनकी काया की अत्यंत क्षीण्ता को देख जब निजाम को यह यकीन हो गया कि अब यह बचने वाला नहीं है तो जेल में उपचार के अभाव में किसी कैदी की मृत्यु हुई है, इस कलंक से बचने के लिए दिनांक १५ अगस्त १९३९ ईस्वी को इन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया|

अशर्फीलाल जी अत्यंत रुग्ण तथा अत्यधिक क्षीण अवस्था में घर तो लौट आये किन्तु निजाम के अत्याचारों के कारण यह शारीरिक क्षीणता इतनी अधिक थी कि चिकित्सकों की कोई भी दवा उन पर अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखा पा रही थी| अब अशर्फीलाल जी समझ गए कि उनका यह शरीर उनके धर्म तथा जाति के साथ ही साथ उनके परिवार के लिए भी एक प्रकार से बोझ बन गया है| इस कारण पुराने वस्त्रों की भाँति इसे भी अब बदलने की आवश्यकता है ताकि नया शरीर लेकर फिर से जाति, धर्म की सेवा की जा सके | यह विचार आते ही दिनांक १९ अगस्त १९३९ इस्वी को इस शरीर को यहीं छोड़ कर नए शरीर की खोज में अनंत यात्रा को निकल पड़े|

इस पकार अशर्फीलाल जी जब तक जीवित रहे, आर्य समाज की सेवा में निरंतर लगे रहे और यह सेवा करते हुए ही इस संसार से विदा हुए| इस संसार से जाते हुए भी आपकी यह ही इच्छा रही कि परमपिता उन्हें शीघ्र से दूसरा शरीर दें ताकि वह पुन: इस संसार में प्रवेश कर अपने अधूरे छोड़े वेद प्रचार और धर्म रक्षा के कार्यों को करते हुए ऋषि ऋण से उऋण हो सकें| |

अशर्फीलाल जी ने अपना बलिदान देकर आर्य समाज के गौरव को बढाया| इस कारण आर्य समाज ने भी उनके निराश्रित परिवार की चिंता की और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा की और से उनके परिवार को आजीवन पेंशन लगा दी, ताकि परिवार का भरण पौषण ठीक से हो सके किन्तु अशर्फीलाल जी का परिवार भी स्वाभिमानी परिवार था| यह धर्म के पैसे से अपना जीवन नहीं चलाना चाहते थे| अत: अपनी दयनीय अवस्था में रहते हुए भी उन्होंने पेंशन लेनी बंद कर दी|

ऐसे वीर विश्व में खोजने से भी नहीं मिलते, किन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की बलिदानी परम्परा से प्रेरित इस प्रकार के वीरों ने घुट्टी पी, उसके कारण बलिदानी वीरों की एक बाढ़ सी ही आ गई, जिस में कभी न समाप्त होने वालों की पंक्ति में खड़े हो वीर युवक अपने बलिदान की बारी की प्रतीक्षा में लगे रहे| सब में होड सी लगी हुई थी कि वह पहले अपना बलिदान देंगे! क्या विश्व में ऐसा कोई अन्य भी समुदाय देखने में आया है कि जो मरने के लिए, अपना बलिदान देने के लिए, एक दूसरे से आगे निकलने की दौड़ लगा हो| पूरे विश्व में एक मात्र आर्य समाज ही एक ऐसी संस्था है, जिसके सदस्य बलिदान देने के लिए भी सदा स्पर्धा में ही रहते थे|

डॉ. अशोक आर्य
पकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन से. ७ वैशाली
२०१०१२ गाजियाबाद उ.प्र.भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६
E Mail ashokarya1944@rediffmail.com

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार