प्रसिद्ध विज्ञान लेखक श्री आईजैक असिमोव ने यह कथा १९७८ में ‘टाइम’ पत्रिका में लिखी थी। इसमें उन्होंने 50 साल बाद की दुनिया की कल्पना की थी…पानी गिर रहा है. आज फिर से आपको अपने दफ्तर पैदल ही जाना होगा. उपनगरीय रेलें ठसाठस भरी हैं. बसों के तो दिन ही लद गए हैं. गीली सड़कों पर साईकिल भी बेहद फिसलती है. गनीमत है कि आपको बहुत दूर नहीं जाना है. छाता है ही आपके पास, उसे तानिये और बस चल पड़िए.
बहुत सौभाग्यशाली हैं आप कि आपको पास में ही खड़ी बहुमंजिली इमारत को तोड़ने का काम मिल गया है. बिजली जाने के बाद उंची इमारतें नरक बन गई हैं. छोटे-छोटे लोग एक मंजिल के सादे खुले हवादार मकानों में रहने लगे हैं. अब इन बड़ी इमारतों को तेजी से तोड़ने का काम चल रहा है क्योंकि धरती में छिपी धातुओं के सारे भंडार खोद डाले जा चुके हैं और अब जरुरत आ पड़ने पर इस्पात आदि इन्हीं बेकार पड़ी इमारतों से निकाला जा रहा है. अपने इन महलों को खुद ही तोड़िए और जरुरत की चीजें निकाल लीजिए. पेट्रोल व बिजली की तरह कोयला भी ख़त्म हो चुका है. परमाणु ईंधन का अनुभव बेहद खतरनाक साबित हो चुका है. सौर ऊर्जा भी अव्यवहारिक ही थी.
दस साल से ऊपर की उम्र वाले अभी मोटरगाड़ियों को भूले नहीं हैं. बुजुर्गों को तो आज भी वे दिन याद हैं जब पेट्रोल के दाम आसमान छूने लगे थे. सड़कों पर रोज-रोज मोटरों की तादाद घटने लगी थी. पेट्रोल खरीदना सामान्य लोगों के बूते की बात नहीं बच पाई थी. केवल कुछ इने-गिने संपन्न लोग अपनी मोटरें चला पा रहे थे. ये मोटरें अब बेशर्म अमीरी का सबूत बन गई थीं. और इसीलिए बाकी इन गाड़ियों को देखकर खीज उठते थे. सड़कों पर दौड़ने वाली इक्की-दुक्की गाड़ियों को कभी लोग रोक लेते, उन्हें पलटकर आग देते. फिर राशनिंग हुई पेट्रोल की. सड़कों पर मोटरें और भी कम हो गई. हर तीन महीने बाद राशनिंग में पेट्रोल की तादाद कम से कम होती गई.
वह दिन भी आ गया जब राशनिंग भी बंद हो गई. गाड़ियां जहां की तहां गड़ गईं.
लेकिन इस निराशा भरे समय में आशा की किरणें चमक रही हैं, शर्त इतनी ही है कि आप उस चमक को देखना पसंद करें. सन 2027 के ये अखबार तो उठाइए. इनका कहना है कि हमारे शहरों की हवा अब कितनी साफ़ हो गई है. यहां अब न उद्योगों की चिमनी से निकलने वाला धुंआ है, न मोटरों का.
आशंका थी कि पुलिस की गश्ती जीपों के अभाव से शहर में अपराध बेहद बढ़ जाएंगे. पर ताज्जुब की बात है कि अपराधों की संख्या में खासी गिरावट आ गई है. अब पुलिस वाले भी पैदल गश्त लगाते हैं. सड़कें अब पहले जैसी वीरान नहीं हैं. पैदल चलने वालों से शहर भरा पड़ा है. बजाय अपनी-अपनी लंबी मोटरों में एकाकी घूमने के, अब लोग एक-दूसरे के साथ पैदल घूमते हैं. जानी पहचानी भीड़ में लोगों को एक दूसरे का संरक्षण मिल जाता है. सड़कों पर होने वाले अपराधों की तो कोई गुंजाइश ही नहीं बची है.
मौसम? यदि अधिक ठंड है तो लोग बाहर धूप में बैठे हैं. और गरमी है तो भी लोग बाहर छांव में बैठते हैं. खुला वातावरण ही अब वातानुकूलन का एकमात्र तरीका है. घरों में बिजली नहीं दी जा सकती. वह बहुत कम रह गई है. गनीमत है कि अभी सड़कों पर बिजली की रोशनी उपलब्ध है.
नगर के मुख्य भाग में रहने वालों को इस बात की तसल्ली है कि उनकी जिंदगी उपनगरीय क्षेत्रों में रहने वालों के मुकाबले बेहतर है. ये भव्य उपनगर मोटरगाड़ियों के बलबूते पर ही पनपे थे. उन्ही के बल पर उनकी भव्यता कायम थी और आज उन्ही के कारण वे अपनी आखिरी सांस ले रहे हैं. आज उन उपनगरों में रहने वालों को भयानक मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. चौड़ी सड़कों के दोनों किनारों पर बने भव्य बंगलों में रहने वाले आज खाने-पीने का सामान हाथ-ठेलों पर लादकर ला रहे हैं. बर्फीले तूफान के दिनों में तो हालत खस्ता हो जाती है. बिजली चले जाने के बाद से फ्रिज बस टीन की आलमारी बनकर रह गए हैं. खाने-पीने की चीजों का अधिक संग्रह संभव नहीं. अलबत्ता घर के बाहर जमी बर्फ में खाने-पीने का सामान जरुर गड़ाया जा सकता है, पर वैसी हालत में गली के कुत्तों पर लगातार निगरानी रखनी पड़ती है!
रही सही जो ऊर्जा उपलब्ध है, उसे अब निजी सुख-सुविधा में उड़ाया नहीं जा सकता. राष्ट्र को तब तक हर कीमत पर चलाना है जब तक उर्जा के अन्य स्त्रोत नहीं हाथ लगते. इसलिए बची-खुची ऊर्जा को खेती के कामों में लगाया जा रहा है. कार बनाने वाली कंपनियां अब बस खेती के औजार बनाने में लगी हुई हैं. कड़ाके की ठंड होगी तो एक-दूसरे के साथ चिपककर बिस्तरों में सोया जा सकता है, गरमी पड़ी तो हाथ पंखा झेला जा सकता है. कार न सही, टांगे तो बरकरार हैं. पर अनाज न हुआ तो क्या करेंगे भाई? माना कि हमारी आबादी अधिक नहीं बढ़ रही है, फिर भी अनाज की वितरण-व्यवस्था को एक स्तर रखना रोज-रोज कठिन होता जा रहा है. फिर कुछ अनाज का निर्यात भी करना पड़ रहा है ताकि हम दूसरे देशों से पेट्रोल आदि की कुछ बूंदें यहां टपकवाते रहें.
जाहिर है दुनिया के बाकी हिस्से हमारे हिस्से जितना भाग्यशाली नहीं है. कुछ सिरफिरे लोगों का यह भी मानना है कि शेष भाग की बहुत बुरी खबर ही हम अमेरीकियों को तसल्ली दे रही है. पृथ्वी की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है, इसलिए उन हिस्सों में लोग भूख से तड़प रहे हैं. आबादी है लगभग साढ़े पांच अरब. और अमेरिका तथा यूरोप से बाहर बसने वाली आबादी में हर पांच में एक व्यक्ति के पास भी दो जून की रोटी नहीं है.
पर अब आंकड़े बताते हैं कि आबादी तेजी से घट चलेगी. इसका मुख्य कारण है शिशु मृत्यु दर में आई तेजी. भुखमरी का पहला शिकार ये बच्चे ही हैं. बहरहाल अमेरिका के कुछ अखबारों में इस प्रवृत्ति को अच्छा ही माना जा रहा है. क्यों? इस भुखमरी से आबादी जो कम हो रही है! जी हां ऐसी विकट परिस्थितियों में भी कुछ अखबार भद्दी खबरों से ठसे आठ पृष्ठ बराबर छापे जा रहे हैं.
एक यह भी खबर है कि भुखमरी से ग्रस्त इलाकों में काफी बड़ी आबादी ऐसी भी है जो थोड़ा-सा ही खा पा रही है. इस नए कुपोषण से एक और विचित्र समस्या सामने आ रही है. ऐसे लोगों का शरीर तो चल रहा है पर कुपोषण के कारण उनका दिमाग लगातार कमजोर होता जा रहा है. हर साल ऐसे कमजोर या विकृत हो चुके दिमागों की संख्या बढ़ती जा रही है. हमारे यहां यह भी कहा जाने लगा है कि ऐसे लोगों को चुपचाप मार देना चाहिए. यों अखबारों में ऐसी खबरें तो छपी नहीं है कि कहीं यह ‘व्यवहारिक कदम’ व्यवहार में लाया गया है. पर दुनिया के दूसरे भागों से आने वाले कुछ यात्री ऐसे भयानक किस्से दबी जुबान से सुनाने लगे हैं.
उर्जा के इस संकट ने एक बड़ा काम और कर दिखाया है- हर राष्ट्र से उसकी सेनाएं न जाने कहां गायब हो गई हैं. पेट्रोल को हजम करने की भयानक ताकत रखने वाली इन सेनाओं को आज भला कौन रख सकता है? कंधे पर बंदूक लगाए इने-गिने वर्दीधारी सैनिक यहां-वहां जरुर बच गए हैं. पर अब वे पैदल घिसटते हैं. फुर्र-फुर्र उड़ने वाले वायुसेना के हवाई जहाज, दौड़ने वाले टैंक, ट्रक. जीपें सब पड़े-पड़े धूल खा रहे हैं.
रही-सही उर्जा के स्त्रोत लगातार चुकते जा रहे हैं और इसीलिए अब मशीनों की जगह हाथों को लेनी पड़ रही है. मशीनों की बिदाई ने काम के घंटे बढ़ा दिए हैं और बेमतलब आराम के घंटे कम कर दिए हैं. पर वैसा आराम करके क्या करेंगे- बिजली की कमी ने आराम और मनोरंजन के निरर्थक साधनों को यों भी चौपट कर दिया है. चौबीस घंटे ऊल-जलूल विज्ञापन और कार्यक्रम टेलीविज़न अब रात को सिर्फ तीन घंटे चलता है. सिनेमाघर हफ्ते में सिर्फ तीन शो दिखा सकता है. नई किताबों का छापना तो बंद हो ही गया है. सन 2027 में बस तीन चीजें ही बाकी रह गई हैं – काम करो, सोओ और खाओ. आखिरी चीज की गारंटी नहीं है भाई!
यह परिस्थिति कहां जाकर खत्म होगी? आगे नहीं पीछे लौटेगी. एक मोटा-सा अंदाज है कि यह सन 1800 के दिनों तक वापस खिंचेगी- शहरों में एकत्र हो गई आबादी को गांवों में लौटना पड़ेगा, छोटे-छोटे स्वावलंबी उद्योगों और छोटी खेती पर निर्भर करना पड़ेगा. हस्तउद्योग और ग्रामोद्योग बिना नारे के वापस आ रहे हैं.
क्या हम आज इस परिस्थिति में कोई सुधार नहीं ला सकते हैं? जी नहीं, अब कोई रास्ता नहीं बचा है ऐसा. हां, यदि आज से पचास साल पहले यानी 1978 में कुछ निर्णय लेते तो आज सन 2027 की परिस्थिति को टाला जा सकता था. और यदि कहीं हम 1958 में सही दिशा में चलने लगते तो चीजें और भी आसान होतीं आज!
अब आप ही तय कीजिये कि लेखक की ये कल्पना कहाँ तक सच हुई है …!
साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से