अग्निहोत्र आरम्भ करने के लिए स्वामी दयानंद जी ने लिखा है कि ब्राह्मण के घर से अग्नि लाकर उस अग्नी से यज्ञाग्नि प्रज्वलित की जावे| इसके लिए ब्राह्मण की परिभाषा को भी समझना आवश्यक है| स्वामी जी ने केवल उस व्यक्ति को ही ब्राहमण नहीं स्वीकार किया, जिसका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ हो| स्वामी जी तो उस व्यक्ति को ब्राह्मण मानते हैं , जो गुण कर्म स्वभाव से ब्राहमण हो|
गुण क्या है ?
अब स्वामी जी के कहे अनुसार गुण के सम्बन्ध में भी जानना आवश्यक हो जाता है| स्वामी जी ने ब्राह्मण को चारों आश्रमों में सब से श्रेष्ठ स्वीकार किया है| इसका कारण है उसके गुण| यहां गुण से भाव है कि वह व्यक्ति उच्च शिक्षा से शिक्षित हो| जब वह चार वेद का सम्पूर्ण ज्ञाता होगा तो स्वामी जी के अनुसार उसमें ब्राहमण होने का गुण पैदा हो गया है किन्तु अभी वह पुर्णतयाब्राह्मण कहलाने का अधिकारी नहीं है| ब्राह्मण होने के लिए केवल वेदादि शास्त्रों में विद्वान् होना ही उसके लक्षण नहीं हैं| इसके लिए उसके पास ब्राह्मण होने के लिए स्वामी जी ने दो और योग्याताओं का होना भी स्वीकार किया है| वह हैं कर्म और स्वभाव|
कर्म क्या है?
ब्राह्मण का गुण जिस प्रकार शिक्षा ग्रहण करना है, उस प्रकार से स्वामी जी का कहना है कि ब्राह्मण होने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह कर्म से भी ब्राहमण हो| ब्राह्मण के लिए शिक्षा का लेना और देना दोंनों ही आवश्यक माने गए हैं| प्रथम गुण शिक्षा को लेना है तो उसका दूसरा गुण जिसे कर्म कहा गया है, वह यह कि वह शिक्षा देने वाला भी होना चाहिए| केवल वेदों का विद्वान् होने से ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं हो जाता, ब्राह्मण होने के लिए उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह वेद के ज्ञान का प्रचार और प्रसार करने में भी लगा हो| दूसरों को वेद ज्ञान की शिक्षाएं देता भी हो| यह ही उसका कर्म है|
स्वभाव
जब किसी व्यक्ति ने वेद के महीन तथ्यों को समझ लिया, उन्हें आत्मसात् कर लिया और दूसरों को इन तथ्यों का दान भी कर रहा है किन्तु तो भी वह पूर्ण रूप से ब्राह्मण नहीं है| पूर्ण रूप से ब्राह्मण बनने के लिए उसका स्वभाव अर्थात् उसका आचरण भी ब्राहमणों जैसा होना आवश्यक है| यहाँ स्वभाव से स्वामी जी का अभिप्राय: आचरण से है| भाव यह है कि वेदों के जिन गूढ़ रहस्यों को समझते हुए पढ़ा है और इन वेद के गूढ़ रहस्यों को पढ़ा भी रहा है किन्तु वेद की इन शिक्षाओं को अपने आप पर प्रयोग नहीं कर रहा तो वह ब्राहमण कहलाने का अधिकारी नहीं है| उसे ब्राहमण बनने के लिए वैदिक शिक्षाओं को अपने आचरण में लाना भी आवश्यक होता है|
स्वामी जी का कहना है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका जन्म किसी ब्राहमण के यहाँ हुआ हो, क्षत्रिय, वैश्य अथवा किसी शुद्र की ही संतान क्यों न हो किन्तु वह गुण, कर्म स्वभाव से ब्राहमण के गुणों को धारण किये हुए है तो उसे हम ब्राह्मण ही मानेंगे और यदि किसी सर्वश्रेष्ठ ब्राहमण की संतान वेद को न पढ़ सकी हो, वेद को पढ़ाने की योग्यता न रखती हो तथा वेदानुसार आचरण न करती हो अथवा इन तीनों में से एक भी कमीं उसमे हो तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी नहीं है| स्वामी जी ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि इन तीनों में से कोई भी गुण उसमें न हो तो ब्राह्मण की संतान होते हुए भी वह शुद्र ही है|
इस प्रकार स्वामी जी की दृष्टि में जो व्यक्ति ब्राहमण है, उसके घर से अग्नि लाकर अग्निहोत्र आरम्भ किया जावे| स्वामी जी ने यहाँ कुछ छूट भी दे दी है| आज इस प्रकार के ब्राह्मण नहीं मिल रहे क्योंकि ब्राहमणों का सम्बन्ध आज जन्म से हो गया है| इसलिए ब्राहमण के नाम पर हम एक दीपक को लिया हैं| इस दीपक में घी डालकर रुई की एक बती लगाकर रखते हैं ताकि इसे जला कर, इस अग्नि से अग्निहोत्र का कार्य आरम्भ किया जा सके|
इस दीप को जलाने के लिए अग्निहोत्र की आठवीं विधि के अंतर्गत गोभिलगृह्य सूत्र से मन्त्र संख्या १.११ का मन्त्र दिया है| जो इस प्रकार है:-
ओउम् भूर्भुव: स्व:|| गोभिग्रह्य. १.-११ ||
इस मन्त्र को बोलकर यज्ञमान दीप को जलाए| इसे ही अग्निहोत्र की आठवीं विधि के नाम से अथवा दीपप्रज्वालनम् के नाम से जाना जाता है| इस मन्त्र से हमने केवल दीप को ही प्रज्वलित किया है| अग्निहोत्र की अग्नि अब तक हमने प्रदीप्त नहीं की| इसे हम नवम् विधि के अनतर्गत आने वाले मन्त्र के साथ आरम्भ करेंगे|
डॉ. अशोक आर्य
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