आधुनिकता और शहरीकरण के नाम पर समाज में एक सोची समझी नीति के तहत हिंदुओं में पूजनीय स्त्री के प्रति निकृष्ट नजरिया सिनेमा जगत व अन्य संचार माध्यमों के द्वारा पैदा कर दिया गया है। इस सामाजिक पतन में संस्काररहित अधूरी शिक्षा नीति का योगदान है। इस शिक्षा से लोगों में भोगवादी नजरिया पैदा हो गया है। आज यौन अपराध उसी नजरिये की स्वाभाविक परिणति हैं। ऐसे माहौल में पड़े-लिखे कुसंस्कारित लोगों के मन में स्त्री को देखते ही घृणित भाव पैदा होते हैं। भोग की लिप्सा समाज में स्त्री के प्रति अपराध को पैदा करती और उसे बढ़ाती है। अगर देश का नेतृत्व देश की वास्तविक उन्नति करना चाहता है तो बाल मन में स्त्री के प्रति सम्मानजनक विचारों को रोपण करना पड़ेगा। उसके लिए हमें वेदों का ही सहारा लेना पड़ेगा। यह लेख वर्तमान में भारत की शिक्षा नीति निर्माताओं के हाथ में पड़े और इस लेख में दी गयी जानकारी बच्चों के पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से लगाई जायें।
इतिहास से साबित होता है कि वैदिक काल में नारी अध्ययन-अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र तक में भी जाती थी। जैसे, कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद स्त्रियों को पुरुषों से एक कदम आगे ही रखते हैं। अनेक ऋषिकाएं वेदमंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति, दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, मैत्रेयी आदि। तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना किए जाने का मिथ्या ढोल पीटते रहते हैं। विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है कि भारत में स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। आइए, वेदों में दर्शाए गए नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें।
अथर्ववेद में एक ब्रह्मचर्य सूक्त है – अध्याय 11 का पाँचवाँ सूक्त। इस ब्रह्मचर्य सूक्त के 18वें मंत्र में कन्याओं को भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है। यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है। इस मंत्र में कहा गया है कि कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें। इसी प्रकार अथर्ववेद 14.1.6 में कहा गया है कि माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज दें।
इसके बाद का मंत्र कहता है – जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने-कराने वाली हों, तब सुयोग्य पति से विवाह करे। स्त्रियों की सशक्तता को स्पष्ट करने वाले कुछ मंत्र तथा मंत्रांश नीचे प्रस्तुत हैं।
हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर। वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे। अथर्ववेद 14.1.20
पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता। संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो। हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ। अथर्ववेद 7.46.3
हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो। हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो। अथर्ववेद 7.47.1
तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो। हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ। अथर्ववेद 7.47.2
तुम हमें बुद्धि से धन दो। विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है। अथर्ववेद 7.48.2
हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो। हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो। अथर्ववेद 14.1.64
हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो। हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल। अथर्ववेद 2.36.5
हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है। हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है। यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये। अथर्ववेद 1.14.3
यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो। अथर्ववेद 2.36.3
ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं। ये स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं। यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं। अथर्ववेद 11.1.17
हे मातृभूमि! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो। स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला। अथर्ववेद 12.1.25
स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं। अथर्ववेद 12.2.31
हे वधू! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों। अथर्ववेद 14.1.20
हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं। अथर्ववेद 14.1.50
हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो। अथर्ववेद 14.2 .26
हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है। अथर्ववेद 14.2.71
यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है। यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो। अथर्ववेद 14.2.74
सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें। अथर्ववेद 7.38.4 और 12.3.52
माता-पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें। माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज भी दें तो वह ज्ञान का दहेज हो। ऋग्वेद 10.85.7
पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है। ऋग्वेद 3.31.1
ऋग्वेद 10.1.59 में एक गृहपत्नी की मनोदशा का वर्णन है। इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों ही शची हैं। शची इन्द्राणी है, शची स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है (जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो)। उसके पुत्र-पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं। इस मंत्र के अनुसार एक गृहपत्नी प्रात:काल उठते ही कहती है –
‘यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है। मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूँ, उसकी मस्तक हूं। मैं भारी व्याख्यात्री हूं। मेरे पुत्र शत्रु-विजयी हैं। मेरी पुत्री संसार में चमकती है। मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूँ। मेरे पति का असीम यश है। मैंने वह त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट) विजय पाता है। मुझे भी विजय मिली है। मैंने अपने शत्रु नि:शेष कर दिए हैं।’
इसके बाद वह कहती है – ‘वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है। मैं जानती हूँ, अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर मैंने पति के प्रेम को फिर से पा लिया है।
मैं प्रतीक हूं, मैं शिर हूं, मैं सबसे प्रमुख हूं और अब मैं कहती हूं कि मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे। प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है।
मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं, मेरी पुत्री रानी है, मैं विजयशील हूं। मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है।
ओ प्रबुद्ध ! मैंने उस अध्र्य को अर्पण किया है, जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामथ्र्यवान हो गई हूं। मैंने स्वयं को अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है।
मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूं और विजेता हूं। मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे कि वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों। मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जिससे मैं इस नायक और उसकी प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूँ।’
ऋग्वेद 1.164.41 में स्त्री की शिक्षा के बारे में वर्णन है। वहाँ कहा है –
ऐसे निर्मल मन वाली स्त्री जिसका मन एक पारदर्शी स्फटिक जैसे परिशुद्ध जल की तरह हो वह एक वेद, दो वेद या चार वेद, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अर्थवेद इत्यादि के साथ ही छह वेदांगों – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद, को प्राप्त करे और इस वैविध्यपूर्ण ज्ञान को अन्यों को भी दे।
हे स्त्री पुरुषों! जो एक वेद का अभ्यास करने वाली वा दो वेद जिसने अभ्यास किए वा चार वेदों की पढऩे वाली वा चार वेद और चार उपवेदों की शिक्षा से युक्त वा चार वेद, चार उपवेद और व्याकरण आदि शिक्षा युक्त, अतिशय कर के विद्याओं में प्रसिद्ध होती और असंख्यात अक्षरों वाली होती हुई सब से उत्तम, आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और गौ स्वर्ण युक्त विदुषी स्त्रियों को शब्द कराती अर्थात् जल के समान निर्मल वचनों को छांटती अर्थात् अविद्यादी दोषों को अलग करती हुई वह संसार के लिए अत्यंत सुख करने वाली होती है।
ऋग्वेद 10.85.46 में स्त्री को परिवार और पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका में चित्रित किया गया है। इसी तरह, वेद स्त्री की सामाजिक, प्रशासकीय और राष्ट्र की सम्राज्ञी के रूप का वर्णन भी करते हैं। ऋग्वेद के कई सूक्त उषा का देवता के रूप में वर्णन करते हैं और इस उषा को एक आदर्श स्त्री के रूप में माना गया है। कृपया पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा लिखित ‘उषा देवता’, ऋग्वेद का सुबोध भाष्य देखें। इसमें पं. सातवलेकर यजुर्वेद 20.9 में स्त्रियों के बारे में दिए गए निम्न निर्देशों का उल्लेख करते हैं –
1. स्त्रियां वीर हों।
2. स्त्रियां सुविज्ञ हों।
3. स्त्रियां यशस्वी हों।
4. स्त्रियां रथ पर सवारी करें।
5. स्त्रियां विदुषी हों।
6. स्त्रियां संपदाशाली और धनाढ्य हों।
7.स्त्रियां बुद्धिमती और ज्ञानवती हों।
8. स्त्रियां परिवार समाज की रक्षक हों और सेना में जाएं।
9. स्त्रियां तेजोमयी हों।
10. स्त्रियां धन-धान्य और वैभव देने वाली हों।
इन उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि भारत में स्त्रियों को कभी भी हीन नहीं माना गया। भारत की ज्ञान परंपरा का मूल आधार वेद स्त्रियों परिवार और समाज का आधार मानते हैं। वेदों की शिक्षा की उपेक्षा करने से ही समाज में स्त्रियों की स्थिति खराब हुई है। यदि वेदों की इस शिक्षा को समाज में प्रचलित किया जाए तो स्त्रियों के प्रति देखने का हमारा दृष्टिकोण ठीक होगा और उनके प्रति समाज में अपराध भी घटेंगे।
लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता तथा शिक्षाविद् हैं।
साभार- https://www.bhartiyadharohar.com/ से