जो लोग पाकिस्तान में हिंदू युवतियों के अपहरण व जबरन निकाह को गंभीरता से उठाते हैं, वही भारत में ऐसी समस्या पर मौन हैं।
जिस समय लगभग पूरा टेलीविजन मीडिया सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने के लिए मुंबई में जूझ रहा था, उसी समय दिल्ली की एक पत्रकार बिहार के बेगूसराय में एक पंद्रह वर्षीय बच्ची के अपहरण पर जनता का ध्यान आकर्षित करने और पुलिस द्वारा मामले में समुचित कार्रवाई के लिए अथक प्रयास कर रही थीं। इसके बावजूद जो बिहार पुलिस सुशांत सिंह मामले में डीजीपी स्तर तक उचित कारणों से उद्वेलित नजर आ रही थी, वही बेगूसराय प्रकरण में उदासीन बनी रही। करीब एक माह बाद इस महिला पत्रकार द्वारा राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग में गुहार लगाने के उपरांत जब आयोग ने कार्रवाई का नोटिस दिया, तब पुलिस हरकत में आई और आरोपित इज्मुल खान को गिरफ्तार किया।
इसी बीच यूपी के सहारनपुर से भी इसी तरह का एक समाचार प्रकाश में आया। वहां भी एक हिंदू युवती के परिजनों ने पड़ोसी शावेज पर उसके अपहरण का आरोप लगाया। बेगूसराय की तरह हो सकता है कि सहारनपुर मामले में नाबालिग की जान बच जाए, परंतु यूपी के लखीमपुर खीरी में एक सत्रह वर्षीय दलित छात्रा की किस्मत अच्छी नहीं थी। निकाह के प्रस्ताव को ठुकराने पर दिलशाद नामक युवक ने उस छात्रा की नृशंस हत्या कर दी। ये तीन मामले पिछले कुछ दिनों की एक छोटी-सी तस्वीर हैं। नाबालिग हिंदू लड़कियों को चिह्नित कर उनका अपहरण करने एवं उनसे जबरन निकाह करने का प्रयास एक विकराल समस्या बन चुका है, जिसका समाधान तो दूर, उन पर चर्चा भी सार्वजनिक विमर्श से गायब है।
यह अत्यंत क्षोभ का विषय है कि देश का राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व जब-तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हिंदू युवतियों के अपहरण और उनसे जबरन निकाह के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गंभीरता से उठाता है, लेकिन वह भारत में इसी तरह की समस्या पर पूरी तरह मौन बना हुआ है। यदि गौर से देखा जाए तो इस समस्या के काफी आयाम भारत में भी वही हैं, जो पाकिस्तान में हैं। जहां कानून 18 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं से किसी भी वयस्क के संबंधों को स्पष्ट रूप से शारीरिक शोषण और उनके लोप को अपहरण मानता है, वहीं अपहरणकर्ता और उनके परिजन इन कुकर्मों का बचाव बड़ी बेशर्मी से प्रेम प्रसंग बताकर करते हैं।
मस्जिदों से धर्म परिवर्तन के प्रमाण पत्र और काजी द्वारा निकाहनामे भी तुरत-फुरत तैयार करा लिए जाते हैं। ये प्रमाण पत्र अक्सर पुरानी तारीखों में बनाए जाते हैं। इस तरह के प्रपत्रों पर नाबालिग अपहृतों की आयु 18 वर्ष से ऊपर दर्ज की जाती है। जाहिर है इस प्रकार मानवीयता को शर्मसार कर और कानून के भय को ताक पर रख अपहरणकर्ताओं के समर्थन में मजहबी लामबंदी उस मानसिकता को दर्शाती है, जिसमें कहीं 14-15 साल, तो कहीं तरुण अवस्था को ही विवाह योग्य आयु मान लिया जाता है।
हालांकि हर प्रकार का बाल शोषण समाज में उद्वेलना का विषय है, किंतु मजहबी उद्देश्य से बच्चियों को लक्ष्य बनाना एक व्यवहारजनित विकृति है। इस विकृति का प्रदर्शन भी नियमित रूप से देखने को मिलता रहता है। दो वर्ष पूर्व गाजियाबाद में एक 11 वर्षीय बच्ची के अपहरण और उसके साथ दुष्कर्म की घटना ने सनसनी फैला दी थी। अपहरणकर्ता सत्रह साल का युवक था, जिसे एक मौलवी ने मदरसे में पनाह दी थी। सोशल मीडिया पर इस संगीन मामले को भी प्रेम-प्रसंग बताने की भरसक कोशिश हुई। इस मध्ययुगीन घृणित सोच को और अधिक बल देश की भ्रष्ट और अकर्मण्य व्यवस्था से मिल रहा है।
ऐसे पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए संघर्षरत अग्निवीर संस्था के संजीव नेवर का कहना है कि अधिकांश मामलों में पुलिस का रुख उदासीन या कभी-कभी तो प्रतिकूल भी होता है। पीड़ितों के अवयस्क होने के बावजूद न तो आरोपितों पर पोक्सो एक्ट लगाया जाता है और न ही दुष्कर्म की धाराएं तामील होती हैं। कई मामलों में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलने का खतरा बताकर आरोपितों के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज नहीं किए जाते। दिल्ली के सुल्तानपुरी इलाके में एक 14 वर्ष की बच्ची के अपहरणकर्ता सद्दाम अंसारी का नाम पुलिस ने बार-बार यह कहकर एफआइआर में दर्ज करने से मना कर दिया था कि इससे मामला सांप्रदायिक हो जाएगा। कुछ ऐसा ही रवैया मीडिया के एक हिस्से का भी है। बड़ी संख्या में पीड़ित किशोरियों की दलित पहचान होने के बावजूद एससी-एसटी एक्ट की धाराएं भी तब तक नहीं लगाई जातीं, जब तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग विषय का संज्ञान न ले ले। अपहृत किशोरियों के शारीरिक शोषण और जान को खतरा होने के बावजूद पुलिसिया कार्रवाई में कोई तीव्रता नजर नहीं आती है।
पुलिस-प्रशासन की इसी मानसिकता के चलते इंग्लैंड के कुख्यात रॉटरडैम प्रकरण में पाकिस्तानी मूल के अपराधियों ने ग्रूमिंग गैंग्स बनाकर वहां की हजारों किशोरियों का यौन शोषण किया था। नाबालिग हिंदू बच्चियों पर हो रहे इस मजहबी आघात में जहां पुलिस का भीरुपन एक कारण है, वहीं कानूनी खामियां इन गंभीर अपराधों में सहभागी काजी और मौलवियों पर कार्रवाई की गुंजाइश को भी सीमित कर देती हैं। दरअसल किसी भी ठोस कानून के अभाव में जबरिया या धोखे से किए गए धर्म परिवर्तन में राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों का ही सहारा रह जाता है, परंतु विडंबना यह है कि मात्र आठ राज्यों में ही इस आशय के कानून बने हुए हैं। इन प्रावधानों के तहत आज तक पूरे भारत में कभी किसी आरोपित को सजा नहीं हुई है। इसी प्रकार समान नागरिक संहिता का अभाव दूसरी बड़ी कानूनी अड़चन है। इसी के फलस्वरूप मतांध काजियों को फर्जी निकाहनामे बनाने का अवसर मिलता है।
हालांकि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार इस प्रकार के मामलों में कार्रवाई के लिए एक एक्शन प्लान बना रही है, परंतु समस्या के अंतरराज्यीय पहलुओं के चलते जब तक उपरोक्त कानूनी बाधाओं को पाटकर एक विशिष्ट केंद्रीय जांच एजेंसी का गठन नहीं होगा, तब तक इस लड़ाई में सफलता आंशिक ही रहेगी। बेटी बचाओ को राष्ट्रीय मुहिम बनाने वाली मोदी सरकार को यह समझना होगा कि उसकी चुनौती लिंगानुपात में सुधार, लैंगिक समानता के प्रयास, अपराध और शोषण से बचाव के साथ-साथ किशोरियों को मजहबी आखेट से बचाने की भी है। इस कोशिश में हिंदू व मुस्लिम समेत सभी वर्गों के बुद्धिजीवियों को भी समस्या से लड़ने के लिए आवाज उठानी होगी।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं स्तंभकार हैं)
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