अद्वैत वेदान्त के प्रमुख आचार्य शङ्कर दूरद्रष्ट्रा सामाजिक चिन्तक थे । उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष को सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र बाँधने का प्रयास किया, तथा इसमें वे सफल भी हुए । इस हेतु उन्होंने भारतवर्ष के चारों दिशाओं में चार मठों (प्रथम मठ पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ, जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ, उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ तथा दक्षिण शृंगेरीपीठ) की स्थापना की । तथा ‘मठाम्नाय’ नामक ग्रन्थ में इन मठों के सम्यक् सञ्चालन हेतु नियम भी बनाये, जो आज तक विधिवत् पालन किए भी जाते हैं ।
आचार्य शङ्कर ने यद्यपि उत्तर क्षेत्र में वर्तमान उत्तराखण्ड में ज्योतिर्पीठ स्थापित किया, तथापि कश्मीर की ज्ञान परम्परा और विद्वता से भी वे भलीभाँति परिचित थे । आदि शङ्कराचार्य के विषय में अनेकों किंवदन्तियाँ वर्तमान में प्रचलित हैं । जिनमें उनके जन्म एवं चतुर्दिग्भ्रमण सम्बधी उल्लेख प्राप्त होते हैं । आचार्य विद्यारण्य प्रणीत शङ्करदिग्विजय नामक ग्रन्थ में उनके जन्म विषयक, दिग्भ्रमण विषयक, शास्त्रार्थविषयक अनेकों प्रश्नों के उत्तर प्राप्त होते हैं । शङ्करदिग्विजय में आचार्य शंकर के कश्मीर भ्रमण एवं शारदादेश भ्रमण सम्बन्धी उल्लेख भी प्राप्त होते हैं । जिससे तत्कालीन कश्मीर प्रदेश का वैशिष्ट्य एवं बौद्धिक परम्परा का बोध होता है । ग्रन्थ के अनुसार भूमण्डल पर जम्बूद्वीप सर्वश्रेष्ठ है, उसमें भी भारतवर्ष सर्वोत्तम है, भारतवर्ष में भी कश्मीर मण्डल प्रशंसनीय है। उस कश्मीर में वाणी की अधिष्ठात्री देवी शारदा देवी का निवास है –
‘जम्बूद्वीपं शस्यतेऽस्यां पृथिव्यां तत्राप्येतन्मण्डलं भारताख्यम् ।
काश्मीराख्यं मण्डलं तत्र शस्यं यत्राऽऽस्तेऽसौ शारदा वागधीशा’॥ (श.दि. १६/५५)
तथा यह शारदा देवी का मन्दिर चार द्वारमण्डपों से युक्त है, उसी मन्दिर में सर्वज्ञ पीठ है । विद्वानों के अनुसार उस पीठ पर आरोहण करने वाला व्यक्ति सर्वज्ञ कहलाता है । मन्दिर के चतुर्द्वारों में पूर्वदिशा के सर्वज्ञ पुरुष पूर्व के दरवाजे खोलकर प्रवेश करते थे, पश्चिम दिशा के सर्वज्ञ पश्चिम दिशा के दरवाजे खोलकर प्रवेश करते हैं, उत्तर दिशा के सर्वज्ञ उत्तर दिशा के दरवाजे खोलकर प्रवेश करते थे, किन्तु दक्षिण के लोग दक्षिण के दरवाजे नही खोल पाते थे –
प्राच्याः प्राच्यां पश्चिमाः प्रश्चिमायां ये चोदीच्यास्तामुदीचीं प्रपन्नाः ।
सर्वज्ञास्तद्द्वारमुद्घाटयन्तो दाक्षा नद्धं नो तदुद्घाटयन्ति ॥ (श.दि. १६/५७)
एक बार आचार्य शंकर भ्रमण करते हुए कश्मीर में पहुँचे तो जब शंकराचार्य जी को यह बात पता चली तो उन्होंने वहाँ जाकर इस किंवन्दती को (बन्द पङे दक्षिणी द्वार को कोई भी दाक्षिणात्य विद्वान् खोलने में समर्थ नही है, अतः उसको खुलवाने का कोई प्रयत्न नही करता है) विफल बनाने के लिए उस मन्दिर में प्रवेश किया । वहाँ पहुँचकर किवाङ खोलकर जब उन्होंने अन्दर जाने का प्रयास किया तो उसी समय प्रतिवादियों के समूह ने उन्हें रोका, तथा शङ्काराचार्य ने उन सभी को शास्त्रार्थ हेतु आमन्त्रित किया । तदनन्तर क्रमशः वैशेषिक, जैन, नैयायिक, साङ्ख्य, बौद्ध (बाह्यार्थवादी, बाह्यार्थानुमानवादी, विज्ञानवादी तथा शून्यवादियों द्वारा), दिगम्बर जैन एवं मीमासंक दर्शनों में पारङ्गत विद्वानों द्वारा अनेक दार्शनिक एवं तार्किक प्रश्न शङ्कराचार्य से पूछे गये । शङ्कराचार्य ने शान्त मन से विस्तृत रूप से उन प्रश्नों के उत्तर दिए । तथा उन प्रतिवादियों द्वारा ससम्मान उनके उत्तरों को स्वीकार भी किया गया । इसके बाद सभी शास्त्रों के उत्तर देने वाले आचार्य शङ्कर की उन सभी वादियों ने पूजा की और दक्षिण द्वार खोलकर उन्हें प्रवेश करने के लिए मार्ग प्रदान किया, तदनन्तर आचार्य ने उस मन्दिर के दक्षिण द्वार से प्रवेश किया –
शास्त्रेषु सर्वेष्वपि दत्तवन्तं प्रत्युत्तरं तं समपूजयंस्ते ।
द्वारं समुद्घाट्य मार्गं ततो विवेशान्तरभूमुभागम् ॥ (श.दि. १६/८१)
शङ्करदिग्विजय के इस वर्णन से तत्कालीन कश्मीर प्रदेश की विद्वत्परम्परा तथा विविध सम्प्रदायों के समन्वय का बोध होता है । कश्मीर में यह परम्परा पन्द्रहवीं शताब्दी तक स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है, इसमें विविध धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों की विस्तृत परम्परा है । इस प्रकार शङ्करदिग्विज्य के वर्णन से आचार्य शङ्कर के कश्मीर जाने और शास्त्रार्थ में विविध दर्शनों के आचार्यों को जीतकर शारदा पीठ में आरूढ होने का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । शङ्कराचार्य दूरद्रष्टा आचार्य थे, इस हेतु ही उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण कर सांस्कृतिक रूप से भारत वर्ष को संगठित किया ।
उन्हें न केवल अद्वैत वेदान्त का प्रचार और प्रसार किया, अपितु कश्मीर की शाक्त तान्त्रिक परम्परा का भी संवर्धन किया । अपने ‘त्रिपुरसुन्दरी’ नामक ग्रन्थ द्वारा शाक्त परम्परा को सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसारित करने का भी श्रेय आचार्य शंकर को ही जाता है, जिसके फलस्वरूप त्रिपुरसुन्दरी के विविध स्वरूप भारतवर्ष के विविध क्षेत्रों प्रचलित हैं । शङ्कराचार्य न केवल अद्वैत वेदान्त के आचार्य हैं, अपितु भारतीय ज्ञानपरम्परा के सभी विधाओं के आचार्य हैं । अतः आज पुनः सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र बाँधने एवं सम्पूर्ण मानव समुदाय के कल्याण हेतु शङ्कराचार्य जी के दार्शनिक विचारों को अनुभव में लाने की आवश्यकता है ।
( लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध छात्र हैं)
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