मेरी मुख्य रूचि मनुष्य के प्राचीनकालीन निवास के पुरातात्विक प्रमाणों को जानने की रही है किन्तु मैं अन्य बातों को भी जानना चाहता हूं। उनमें से एक है भारत की वैदिक संस्कृति का इतिहास। वैदिक संस्कृति से मेरा अभिप्राय उस सभ्यता से है जो वेदों पर आधारित है। जिनमें संस्कृत की मूल पुस्तकें तथा उनसे व्युत्पन्न पुस्तकें है। कुछ प्रमुख विद्वानों का यह मत है कि वैदिक संस्कृति लगभग 3500 वर्ष पूर्व भारत में पश्चिमी देशों से आई। किन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि वैदिक संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा से ही रही है। मैं भी इस लेख में इसी दृष्टिकोण का पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर समर्थन करुगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि 3500 वर्ष पुराने हैं, भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन शहरी केन्द्र वैदिक वास्तुशिल्प के अनुसार बनाए गए हैं। इस वास्तुशिल्प का वर्णन संस्कृत के महाकाव्य महाभारत में हुआ है जिसकी रचना 5000 वर्ष पूर्व हुई। आधुनिक सेकुलर विद्वान इसकी रचना 3000 वर्ष पूर्व मानते है। वास्तुकला का उपयोग न केवल निजी भवन के निर्माण में बल्कि पूरा नगर बनाने में भी किया जा सकता है। वास्तुकला के मुख्य तत्व की धारणा एक वास्तु पुरूष की है, जिसका अपना एक निजी रूप है। वास्तु पुरूष के उद्गम के विभिन्न वृतांत हैं, जिसमें से एक है सृष्टि के रचना के समय एक असुर था। उसने देवताओं का विरोध किया। ब्रह्मा के नेतृत्व में देवताओं ने उस असुर को भूतल पर गिरा दिया तथा उस पर काबू कर लिया । ब्रह्मा ने उस असुर को वास्तु पुरूष का नाम दिया। वास्तु पुरूष का उद्धार करते हुए ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि सभी को आवास स्थान बनाने हेतू उसे यज्ञ तथा पूजन द्वारा प्रसन्न करना होगा।
वास्तु पुरूष के रूप का सुस्पष्ट वर्णन वास्तु पुरूष मंडल में हुआ है। मंडल की आकृति चौरस है। उसका चौरस रूप दिव्य अनुक्रम को प्रदर्शित करता है जबकि घेरा अनियोजित भौतिक सच्चाई को प्रदर्शित करता है। पुरूष एक मानव रूप में वर्णित है जिसका चेहरा नीचे की ओर, शीर्ष पूर्वोत्तर भाग में तथा पैर दक्षिण पश्चिम की ओर हैं। उसका दायां घुटना पथा दाई कोहनी दक्षिण-पूर्व कोण पर मिलते हैं तथा बायां घुटना तथा बाई कोहनी उत्तर-पश्चिम कोण पर मिलते हैं। वास्तु पुरूष पर रूप विकृत है जिससे उसे चौरस में परिसीमित किया जा सके। मण्डल को मुख्य वर्ग 64 या 89 समान भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक वर्ग में देवता वास करता है।
वास्तु तथा नगर योजना
किसी नगर निर्माण का प्रथम कार्य भूमि को समतल करना है। उसके पश्चात उस पर वास्तु पुरूष मण्डल की आकृति बनाई जाती है जोकि उसकी रूपरेखा का आधार होती है। सामान्यतः इस मण्डल का रूप चौरस होता है। कई भारतीय शहर जैसे जयपुर वास्तुकला के चिन्ह दर्शाते हैं।
शताब्दियों पूर्व भारत के चार-पांच हजार वर्ष पुराने अनेक नगरों की खुदाई को चुकी है। उनमें से सबसे अधिक प्रसिद्ध सिन्धु घाटी क्षेत्र (वर्तमान में पाकिस्तान का भाग) है, जिसमें हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों भी सम्मिलित है। इन दोनों नगरों में हड़प्पा नगर प्रायः विद्वानों द्धारा इनकी संस्कृति को प्रस्तुत करने हेतु उपयोग में लाया जाता है। विद्वानों में इनकी संस्कृति के बारे में विभिन्न मत है, कुछ का कहना है कि उस समय वैदिक संस्कृति के लोग काफी बाद में आए, आज से लगभग 3500 वर्ष पूर्व। एक समस्या यह है कि हड़प्पा संस्कृति की मूल धारणा के विचारों से विद्वानों संतुष्ट नहीं हुए। कुछ ने इसे अवैदिक रूपों में प्रस्तुत किया। जबकि अभी भी इस विषय पर बहस चल रही है( मैं सैद्धांतिक रूप से वैदिक धारणा का समर्थन करता हुं)। पुरातात्विक प्रमाणों का अध्ययन उस सभ्यता को जानने हेतु मददगार सिद्ध हो सकता है। सन् 2008 बसंत ऋतु के समय मैं गुजरात के लोथल शहर में हड़प्पा संस्कृति के अन्वेषण हेतु गया जो कालक्रम के अनुसार 3000 वर्ष पूर्व में था। मैंने इस बात पर शोध किया कि वह वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार है या नहीं। इस प्रश्न के उत्तर का संबंध, उस समय में रह रहे लोगों का सूचक हो सकता है, जिन्होंने लोथल शहर का निर्माण किया। यदि उस शहर का निर्माण वास्तु सिद्धातों के अनुसार किया गया था तो उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे लोग वैदिक संस्कृति के थे।
लोथल में मैंने उस स्थान को तथा उसकी योजना को देखा जोकि 4400 वर्ष पुराना है, कथित रूप से जब वैदिक संस्कृति भारत मे आई, उससे भी 1000 वर्ष पूर्व। योजना यह दर्शाती है कि लोथल का नक्शा चौरस खींचा गया था, जिसके कोण प्रमुख दिशाओं की ओर थे जोकि एक मानक वास्तु संजाल के समान हैं। वास्तु सिद्धांत के अनुसार नगर के लिए आदर्श स्थान उत्तर व पूर्व की अपेक्षा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा रहता है। लोथल का दक्षिणी भाग स्तर में ऊँचा है जोकि उत्तर तथा पूर्व दिशा की ओर ढलान का रूप ले रहा है। वास्तु विशेषज्ञ कहते हैं कि मकानों का मुख मुख्य दिशाओं की ओर होना लाभकारी है तथा कोण की ओर होना अशुभ माना जाता है। लोथल में सभी इमारतों का मुख मुख्य दिशाओं की ओर है। सड़के उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर बनी हुई हैं जोकि वास्तुकला के अनुरूप है। वास्तु सूत्रों के अनुसार अपशिष्ट जल को उत्तर तथा पूर्व दिशा में बहना चाहिए। मैंने यह पाया कि मुख्य अपशिष्ट जल प्रणाली की दिशा पूर्व की ओर थी।
वास्तु सिद्धांतों के अनुसार चार सामाजिक वर्ग (कर्मचारी, व्यापारी, शासक तथा पुरोहित) को क्रमशः पश्चिम, दक्षिण, पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर वास करना चाहिए। लोथल में कारखाने प्रमुखतः पश्चिमी दिशा की ओर पाए गए। दक्षिणी पूर्व कोण जोकि लोथल के व्यापार का केन्द्र है, गोदामों द्वारा घिरा हुआ है। लोथल की योजना यह दर्शाती है कि शहर के केन्द्रीय भाग से पूर्वी भाग तक आवासीय इमारतें हैं। लोथल की उत्तरी सीमा के मध्य एक वेदी है जिसे पुरोहितों द्वारा उपयोग में लाया जाता रहा होगा। अतः चारों सामाजिक वर्गों के द्वारा उपयोग में लाए गए भवनों की स्थिति उपयुक्त दिशा में है। वास्तु पुरूष मंडल में उत्तर दिशा के प्रमुख विग्रह सोमदेव हैं। लोथल का निचला शहर जिसमें अधिकतर आवासीय क्षेत्र हैं, इस देश के उत्तरार्ध भाग में है जबकि शहर के दक्षिणार्ध भागों में गोदाम, प्रशासनिक क्षेत्र तथा कारखाने हैं।
लोथल स्थान की योजना उत्तर-पश्चिमी सीमा के बाहर एक कब्रिस्तान दर्शाता है और पुरातत्व विज्ञानी एस एस राव जिन्होंने उस स्थान की खुदाई की, ने बताया कि लोथल शहर के आकार की अपेक्षा वहां पर पाए जाने वाले कंकालों की संख्या काफी कम है। उन्होंने इस आधार पर करीब 15000 जनसंख्या के होने का अंदाजा लगाया। तो उन्होंने यह अनुमान लगाया कि उस समय मृत शरीरों का मुख्यतः दाह संस्कार ही किया जाता होगा। 81 चौरस वास्तु पुरूष मंडल उत्तर-पश्चिम कोण का मुख्य विग्रह रोग (क्पेमंेम) है। रोग के थेाड़ा नीचंे पापक्ष्यमान और पापक्ष्यमान के नीचे शोष है। यह संभावना विचारणीय है कि उत्तर पश्चिमी कब्रिस्तान में दफनाये गए लोग काफी अशुभ रोगों द्वारा पीड़ित थे। ऐसे लोग दाह संस्कार के योग्य नहीं माने गये थे। वास्तु पुरूष मंडल के आधार पर हम एक पुरातात्विक घोषणा कर सकते हैं कि शवदाहगृह लोथल सीमाओं के दक्षिण-पश्चिमी कोण के बाहर तथा नदी के किनारे रहा होगा जहां पर एक समय नदी बहती होगी। वास्तु पुरूष मंडल का दक्षिणी भाग यम, मृत्यु के देवता द्वारा शासित है। वह नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती थी तथा यह उपयुक्त लगता है क्योंकि विशिष्ट हिन्दू नगर में शवदाह गृह नदी के किनारे होते हैं जिससे नदी शहरों में बसे हुए क्षेत्रों से अशुद्ध जल को बहाकर ले जाए।
निष्कर्ष
भारत में हड़प्पा के एक शहर लोथल के अन्वेषण से हमने देखा कि उसका नक्शा वास्तु सिद्धांतों के अनुसार है। यह शहर 3000 से 5000 वर्ष पूर्व से है। वास्तु जिसका वर्णन महाभारत में हुआ है, वैदिक संस्कृति का अंग माना जाता है जो यह इंगित करता है कि वह शहर वैदिक संस्कृति का भाग था। इससे यह भी सुझाव मिलता है कि महाभारत उसी समय के दौरान हुआ था। यह लेख इस बात का भी समर्थन करता है कि वैदिक संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा से रही हैं, न कि पूर्व पश्चिम देशों से आई है।
साभार- https://www.bhartiyadharohar.com/ से