मलिका विक्टोरिया की मृत्यु के बाद ही एक अंग्रेज़ नौजवान भारतीय पुलिस में भर्ती हुआ और सन 1945 तक इस देश में काम करता रहा. जैसा उन दिनों कायदा था, अंग्रेज़ पुलिस अफसर की नियुक्ति डिप्टी से ऊपर नायब कप्तान के पद पर होती थी और कुछ ही वर्ष इस पद पर काम करने और अनुभव प्राप्त करने के बाद वह कप्तान बना दिया जाता था.
यह अंग्रेज़ नौजवान भी इसी तरह नियुक्त होकर उत्तर प्रदेश के इंस्पेटर-जनरल के पद तक पहुंचा. उसकी नौकरी के 42 साल हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई के भी सबसे मार्के के दिन थे और उन दिनों की घटनाओं को उसने सरकार के वफादार पुलिस अफसर के रूप में अक्सर काफी नज़दीक से देखा.
अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में (अब आज़ाद पार्क) मृत्यु होने के समय यह अंग्रेज़ अफसर उत्तर प्रदेश पुलिस का डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल और सी.आई.डी. विभाग का इंचार्ज था. सी.आई.डी. का मुख्य कार्यालय इलाहाबाद में ही था इलाहाबाद हमारे राजनीतिक आंदोलन का भी बड़ा महत्त्वपूर्ण केंद्र था.
इसी अंग्रेज़ अफसर ने, जिसका नाम हालिंस था, उन दिनों के अनुभवों के बारे में एक पुस्तक लिखी, जिसमें चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु की समूची घटना का वर्णन है. कुछ बातों में यह वर्णन हमारे क्रांतिकारी नेताओं द्वारा किये गये वर्णन से मेल खाता है. फिर भी पाठक को यह उत्सुकता हो सकती है कि शासक जाति के उस सी.आई.डी. अफसर ने इस घटना के बारे में क्या बयान किया.
जिन दिनों हालिंस उत्तर प्रदेश की सी.आई.डी. का डिप्टी इंस्पेटर जनरल नियुक्त हुआ, उससे कुछ ही पहले वायसराय की ट्रेन पर दिल्ली के निकट बम फेंका गया था. बम के सारे सुबूत, बम फेंकने वालों के छिपने का स्थान आदि सारी जानकारी तो पुलिस को मिल गयी, लेकिन बम फेंकने वालों को वह पकड़ न सकी थी. बड़ी सरगर्मी के साथ उनकी तलाश की जा रही थी.
क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए उत्तर प्रदेश सी.आई.डी. में विशेष रूप से एक कप्तान पुलिस की नियुक्ति की गयी थी. उसका नाम था नाट बावर. आज़ाद की मृत्यु तथा कई अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के लिए नाट बावर ही उत्तरदायी था. बाद में वह सर जान नाट बावर हुआ और लंदन की मेट्रोपोलिटन पुलिस का कमिश्नर.
हालिंस के कथानुसार, वह बड़ा उत्साही और मेहनती अफसर था. उसने आज़ाद तथा दूसरे क्रांतिकारियों के बारे में काफी जानकारी इकट्ठी कर ली थी. उनकी निजी आदतों और स्वभाव के बारे में भी छोटी-छोटी बातें उसे मालूम थीं. अपने दफ्तर में बैठकर हालिंस और नाट बावर अटकले लगाया करते थे कि कौन-क्रांतिकारी कहां जाने वाला है और उसे कहां गिरफ्तार किया जा सकता है, पुलिस की किस कार्रवाही का उन पर क्या असर पड़ेगा और वे बदले में क्या करेंगे?
हालिंस ने अपने बयान में कहा है-
उन दिनों हमने सभी बड़े स्टेशनों पर अपने खुफिया आदमी लगा रखे थे, जो हर समय यह देखते रहते थे कि कोई क्रांतिकारी तो उस स्टेशन पर नहीं उतरा या वहां से रेल में बैठा. किसी पर थोड़ा भी शक होते ही वह खुफिया सिपाही उसकी सूचना अपने अफसर को दे देता था. इस योजना में हमें काफी सफलता मिली. हालांकि वायसराय पर बम फेंकने वाले को हम गिरफ्तार नहीं कर सके थे, लेकिन सुराग हमें मिल चुका था. (और व्यक्ति और कोई नहीं प्रसिद्ध क्रांतिकारी यशपाल थे-लेखक)
क्रांतिकारी की गिरफ्तारी के लिए हमने इनामों की घोषणा कर दी थी और अपनी खुफिया आंखों की सहायता से आज़ाद के दो साथियों को रेल्वे स्टेशनों पर गिरफ्तार कर चुके थे. दोनों के पास रिवाल्वर और कारतूसें बरामद हुई थी और उनका टिकट इलाबाद तक का था.
उन्हीं दिनों क्रांतिकारी पार्टी की सदस्य दो महिलाएं- एक कलकत्ते से और दूसरी लाहौर से- इलाहाबाद पहुंची और यमुना के किनारे एक मकान में ठहरीं. दोनों का पीछा हमारे आदमी कर रहे थे.
नाट बावर से मैंने इन सारी बातों की चर्चा की और हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि इलाबाद में इन क्रांतिकारियों के जमघट का अर्थ है कोई भयंकर घटना घटने वाली है. उन महिलाओं को हमने जान-बूझकर गिरफ्तार नहीं किया. (लहौर से आनेवाली महिला प्रसिद्ध कांतिकारी शहीद भगवतीचरण की पत्नी दुर्गादेवी थीं- लेखक)
आज़ाद की टोह में हम बराबर लगे हुए थे. कुछ ही दिन बाद की घटना है कि नाट बावर का एक डिप्टी, बिशेश्वर सिंह एल्फ्रेड पार्क में सुबह की सैर को गया. उसने देखा एक बेंच पर तगड़ा आदमी अपने दो साथियों के साथ बैठा हुआ है. बिशेश्वर सिंह ने उन्हें देखा और उसी दम उसे लगा कि वह तगड़ा आदमी और कोई नहीं, स्वयं चंद्रशेखर आज़ाद हैं.
बिशेश्वर सिंह बना रुके उसी तरह टहलता चला गया और आंख से ओझल हो गया. वह तेजी से पास ही बनी विश्वविद्यालय की इमारत में पहुंचा और वहां से नाट बावर को खबर भेजी कि एक तगड़ा आदमी, जो आज़ाद मालूम होता है, अपने दो साथियों के साथ एल्फ्रेड पार्क में बैठा है.
तीन खुफिया सिपाहियों के साथ नाट बावर तुरंत अपनी कार में बैठा और तेजी से मोटर दौड़ाता हुआ पार्क में पहुंचा. सड़क के किनारे की जमीन ढाल के साथ ऊपर उठी थी और वहीं उसने तीनों आदमियों को देखा, जिनमें से एक लम्बे-चौड़े शरीर का मजबूत काठी वाला वही व्यक्ति था.
उस ऊंची जमीन के नीचे ही नाट बावर ने मोटर रोक दी. जेब में हाथ डालकर उसने मजबूती से अपनी पिस्तौल की मूठ पकड़ ली. वह सीधा उस व्यक्ति के सामने जा पहुंचा और उसका नाम पूछा. उस व्यक्ति ने फुर्ती से अपना रिवाल्वर निकाला. तुरंत, करीब-करीब एक साथ दो, दो गोलियां छूटीं. नाट बावर का पिस्तौल पहले दगा और गोली उस व्यक्ति के पैर में लगी, जिससे उसका निशाना चूक गया. दोनों ने फिर गोली चलायी. नाट बावर की गोली उसके सीने में लगी और उसकी गोली नाट बावर के बाजू को छेदती हुई निकल गयी. दोनों ने ही पेड़ों की आड़ ले ली.
यह सारी घटना कुछ ही सेकेंडों में घट गयी. खुफिया सिपाही इस बीच उन तीनों आदमियों के पीछे पहुंचकर अपना स्थान ले चुके थे. वहीं डिप्टी बिशेश्वर सिंह भी पहुंच गया और एक झाड़ी के पीछे से उसने उस तगड़े व्यक्ति पर गोली चलायी. वह व्यक्ति गोली की आवाज़ पर पलटा और उसने अट्ठावन गज की दूरी पर डिप्टी सुपरिटेंडेंट का सिर झाड़ी के ऊपर निकलता देखा. निशाना लेकर उसने रिवाल्वर चलाया और गोली डिप्टी के जबड़े पर जाकर लगी.
हालिंस के अनुसार यह बड़ा उम्दा निशाना उसने लगाया था, लेकिन यही उसका आखिरी निशाना था. उसकी रिवाल्वर से अभी धुंआ निकल ही रहा था कि एक खुफिया सिपाही की गोली उसके सिर में लगी और वह लुढ़क गया. इस प्रकार चंद्रशेखर आज़ाद, कमांडर, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का अंत हुआ.
हालिंस का वर्णन यहीं समाप्त हो जाता है. उसने यह नहीं बताया कि आजाद के उन दो साथियों ने इस घटना में क्या हिस्सा लिया. क्या वे आज़ाद द्वारा भगा दिये गये? यदि भगा दिये गये, तो पुलिस ने उनका पीछा क्यों नहीं किया?
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