Friday, January 10, 2025
spot_img
Homeकविताअति दूर

अति दूर

ढूँढ रही हैं अँखियाँ मेरी, तुम हो कितनी दूर

नाप न पाई दूरी अब तक, प्रियतम तुम अति दूर

आस का दीपक लिये करों में, पंथ निहारूँ साँझ सवेरे

पागल मन ये जान न पाये, प्रीत वैरागी मन उलझाये

छेड़ूँ जब वीणा के तार, करुण स्वरों की हो बौछार

कहती है अम्बुआ की डार, ग्रीष्म ऋतु है दूर

तुमको फिर भी ढूँढ रही हूँ, प्रियतम तुम अति दूर

 

खुले नयन में सपने बुनती, अमर प्रेम की ज्योत जलाये

विरह की पीड़ा से मैं जलती, परदेसी पर तुम न आए

मुझ बिरहन को सखियाँ देखें, पूछें दिल का हाल ?

रूठ गया मधुमास है मुझ से, रूठा है जगसार

आ जाओ प्रिय पाहुन से तुम, बन सावन की बहार

बुझती बाती रौशन कर दो, अमर प्रीति अवलोकित कर दो

आकर प्रियतम पास में मेरे, दूरी ये कर दो दूर

प्रियतम तुम अति दूर हो मुझसे, प्रियतम तुम अति दूर

***

सविता अग्रवाल ‘सवि’, कैनेडा

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार