पिछले अंक से आगे, महाथिर मुहम्मद, 29 अक्तूबर 2020 को ट्विटर पर अपनी बातों में नवें बिन्दु से इस प्रकार कहते हैं:
“पश्चिम उसे (यूरोपीय महिलाओं की पोशाक) सामान्य मानता है। लेकिन उसे यह दूसरों पर थोपना नहीं चाहिए।” यह आरोप बेकार की चतुराई है! सर्वविदित है कि पश्चिमी पोशाकें, सुख-सुविधाएं, फर्नीचर, सौंदर्य प्रसाधन, फिल्में, साहित्य, कला, भवन-निर्माण, खान-पान, आदि संपूर्ण जीवन-शैली सारी दुनिया में लोगों ने स्वेच्छा से अपनाई है। इसे थोपना तो दूर, इस पर किसी पश्चिमी व्यक्ति को कोई परवाह तक नहीं है। अतः, महाथिर झूठ-मूठ शिकायत का बहाना खोज रहे हैं। फिर, पश्चिमी देशों में जाकर रहने के लिए किसी ने मुसलमानों को न्योता नहीं दिया था। वे खुद वहाँ सुखद, स्वतंत्र, आरामदेह जीवन की चाह से जाते हैं। किसी देश का मुसलमान अपने यहाँ से निकल कर सऊदी अरब, ईरान या मोरक्को रहने नहीं जाता। सभी यूरोप या अमेरिका जाते हैं। झूठ-सच बोलकर, अनुनय-विनय कर वहाँ की नागरिकता लेते हैं, और फिर उन्हीं पर धौंस जमाते, शरीयत थोपते हैं। यह खुली अहसान-फरामोशी और भीतरघात है, जिस का ही नवीनतम उदाहरण फ्रांस में सैमुएल का कत्ल है। सो, मुसलमान ही पश्चिमी समाज पर शरीयत थोपने की जिद करते हैं। उसी के लिए सारी हिंसा करते हैं। महाथिर के दुस्साहस पर हैरत होती है। क्या वे दूसरों को ऐसा बौड़म समझते हैं, कि उन की झूठी शिकायत का छल नहीं समझेंगे?
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महाथिर मुहम्मद को एक हिन्दू का उत्तर – 1
“पश्चिम वाले नाम को ही क्रिश्चियन रह गए हैं। यह उन का अधिकार है। लेकिन उन्हें दूसरे के मूल्य, और धर्म के प्रति निरादर नहीं दिखाना चाहिए। यही उन की सभ्यता का पैमाना है कि यह आदर दिखाएं।” इस में महाथिर एक बुनियादी बात छिपा रहे हैं। कि इस्लाम केवल 20 प्रतिशत रिलीजन है, शेष 80 प्रतिशत राजनीति। उस की संपूर्ण राजनीति, काफिरों को मिटाने पर केंद्रित है। कुरान में गैर-मुसलमानों को अपमानित करने, धोखा देने, आतंकित करने, उन का गला काट देने और उन्हें कभी मित्र न बनाने की ताकीदें हैं (9:29, 86:15, 8:12, 47:4, 3:28)। इस्लामी मूल ग्रंथों की संपूर्ण सामग्री में आधी से अधिक काफिरों के बारे में है, और सभी नकारात्मक, घृणास्पद, या हिंसक। क्या दूसरे धर्म के आदर की सीख खुद महाथिर को, मुसलमानों को नहीं लेनी चाहिए? वस्तुतः, इस्लाम की खुली घृणा को देखते हुए क्रिश्चियनों, यहूदियों, हिन्दुओं, बौद्धों को पूरा अधिकार है कि वे ऐसे मतवाद की भर्त्सना करें जो बाकी सब को घृणित, गुलाम बनाने या मार डालने लायक समझता है।
“मैक्रोन यह नहीं दर्शा रहे कि वे सभ्य हैं। वे इस्लाम और मुसलमानों को उस अपमानजनक शिक्षक की हत्या का दोषी बताने में बड़े आदिम जैसे लगते हैं। यह इस्लाम की सीख के अनुसार नहीं है।” क्या यह सभ्यता है कि जिस देश में आप रहे रहे हैं, वहाँ के कानून को ठेंगा दिखाकर मनमानी हत्याएं करें? वस्तुतः किसी भिन्न विचार वाले व्यक्ति का गला काट देना ही सब से बर्बर असभ्य काम है। फिर, इस्लाम की सीख के अनुसार किसी गैर-मुस्लिम को क्यों चलना चाहिए? महाथिर द्वारा अपने इस्लामी मतवाद को सब के ऊपर थोपना, और उस की हर बात को सही ठहराना भी मध्ययुगीन मानसिकता का प्रमाण है। इस्लाम की सीखों में सब से अधिक दुहराई गई बात गैर-मुस्लिमों के प्रति तरह-तरह से घृणा है। सभ्यता की दृष्टि से यही बात सब से अधिक शोचनीय है।
“अतीत के संहारों के कारण मुसलमानों को क्रोधित होने और लाखों-लाख फ्रांसीसियों को मार डालने का अधिकार है।” महाथिर के मूल अंग्रेज शब्द: “Muslims have a right to be angry and to kill millions of French people for the massacres of the past.” यह एक वाक्य ऊपर दी हुई हमारी सभी प्रतिक्रियाओं की पुष्टि करता है।
“चूँकि आपने एक क्रोधित आदमी के काम के लिए सभी मुसलमानों और मुसलमानों के धर्म को दोषी ठहराया है, इसलिए मुसलमानों को फ्रांसीसियों को दंडित करने का अधिकार है।” महाथिर की यह बात पिछली टिप्पणी से जुड़ी है जो लाखों-लाख फ्रांसीसियों को मार डालने के उकसावे की कैफियत जैसी है। इस के आगे भी महाथिर ने दो टिप्पणियाँ और लिखीं जिस पर कोई क्रमांक नहीं दिया है। उसे भी देख लेना उचित है, क्योंकि वह इसी की और कैफियत के रूप में ही दी गई है। महाथिर ने लिखा, “आम तौर पर अभी तक मुसलमानों ने ‘आँख के बदले आँख’ वाला कानून नहीं अपनाया है। मुसलमान ऐसा नहीं करते हैं। फ्रांसीसियों को भी नहीं करना चाहिए। इस के बदले फ्रांसीसियों को अपने लोगो को दूसरे लोगों की भावनाओं का आदर करना सिखाना चाहिए।” यह दोनों टिप्पणियाँ धमकी और दबाव की क्लासिक इस्लामी नीति है। ताकि गैर-मुस्लिम आतंकित होकर, जान बचाने के लिए इस्लामी वर्चस्व को मानते जाएं। यह कूटनीति सदियों से सफल रही है। अतः महाथिर द्वारा इस का उपयोग स्वभाविक है।
उसी क्रम में, महाथिर मुहम्मद की अंतिम बिना क्रमांक टिप्पणी भी हत्या के आवाहन से ही संबंधित है। वे लिखते हैं, “क्रोधित लोग मार डालते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। इतिहास में फ्रांसीसियों ने लाखों को मारा है। उन में अनेक मुस्लिम थे।” यहाँ भी महाथिर ने अर्द्ध-सत्य, बल्कि लगभग पूरा झूठ लिखा है। पिछले चालीस साल में ही धर्म के नाम पर जितनी हत्याएं और संहार हुए हैं, उन में 95 प्रतिशत से अधिक हत्याएं करने वाले इस्लाम के अनुयायी थे। क्या किसी ने जैन धर्म मानने वालों को भी हत्या करते सुना है? फिर, दूसरे धर्मों के लोग अपवाद-स्वरूप क्रोध में हत्या करते हैं, जबकि इस्लाम के अनुयायी बिना क्रोध के, कार्यक्रम बनाकर, मजे से जिहादी कांड करते हैं जिस में अबोध बच्चों, स्त्रियों, बूढ़ों समेत तमाम निर्दोष लोगों की हत्याएं शामिल हैं। जिन का कसूर मात्र यह था कि वे दूसरे धर्म को मानने वाले थे। कश्मीर से लेकर न्यूयॉर्क तक वैसे निर्दोष लोगों की बेहिसाब संख्या तो केवल हाल की है। गत 1400 सौ सालों के इतिहास में इस्लामी जिहाद ने 27 करोड़ गैर-मुसलमानों की हत्या इसीलिए की, क्योंकि वे दूसरे धर्मो को मानने वाले थे।
इस प्रकार, अपनी सभी चौदह-पंद्रह बातों से महाथिर मुहम्मद क्लासिक इस्लाम की संपूर्ण प्रस्तुति कर देते हैं। उन्हें इस के लिए काफिर का धन्यवाद कि उन्होंने दिखा दिया कि इस्लाम के नाम पर दूसरों की, लाखों-लाख अनजान, निर्दोष लोगों की हत्या कर देने की भावना किसी ‘भटके हुए’, इक्के-दुक्के मुसलमानों की नहीं है। राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री पदो पर रहने वाले मुसलमान भी ठसक से उसी की धमकी, सीख और ताकीद करते रहते हैं। साथ ही, इस का दोष पूरी तरह गैर-मुसलमानों पर ही डालते हैं। यह भी क्लासिक इस्लाम का ही नमूना है, जो आरंभ से ही यथावत है।
अब यह काफिरों को सोचना है कि ऐसे मतवाद, राजनीतिक इस्लाम को केवल ‘धर्म’ समझते हुए, उसे अपने ही धर्म के समान एक और धर्म मान कर सम्मान देते हुए, कितनी बड़ी गफलत में रहते हैं। उन्हें राजनीतिक इस्लाम को पहचान कर उसे हराने, और मुसलमानों को भी इस्लाम के राजनीतिक हिस्से से दूर करने का कर्तव्य घोषित करना चाहिए। कोई मतवाद उन्हें मारने, अपमानित करने, धोखा देने, आतंकित करने की खुली जिद रखता है, तो क्या इसे गलत कहकर भर्त्सना भी करने से हिचकना चाहिए?
महाथिर ने पुनः प्रमाणित किया है कि सारी दुनिया में जिहादी हिंसा का कारण कुछ नामसमझ मुसलमान नहीं, बल्कि वह मतवाद है जो उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करता है। अतः काफिरों को उन मुसलमानों से नहीं, उस मतवाद से लड़ना होगा। खुशी की बात है कि यह कोई सैनिक युद्ध नहीं, बल्कि वैचारिक लड़ाई है जिसे लड़ना उन का अधिकार और सहज कर्तव्य भी है। (समाप्त)
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