अर्णव गोस्वामी की गिरफ्तारी और निरंंकुश पुलिसिया व्यवहार पर जो लोग आज ताली बजा रहे हैं और चुप्पी साधे बैठे हैं, वो याद रखें, कल यही पुलिस तुम्हें भी इसी तरह उठाकर ले जाएगी….
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। नागरिक अधिकारों की रक्षा करने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया की विशेष भूमिका होती है। उसका उत्तरदायित्व निष्पक्षता से सूचना पहुँचाने के साथ-साथ जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना , जनजागृति लाना, जनता और सरकार के बीच संवाद का सेतु स्थापित करना और जनमत बनाना भी होता है। सरोकारधर्मिता मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यह भी सत्य है कि सरोकारधर्मिता की आड़ में कुछ चैनल-पत्रकार अपना-अपना एजेंडा भी चलाते रहे हैं।
हाल के वर्षों में टीआरपी एवं मुनाफ़े की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने मीडिया को अनेक बार कठघरे में खड़ा किया है। उनका स्तर गिराया है। उनकी साख़ एवं विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाया है। निःसंदेह कुछ चैनल-पत्रकार पत्रकारिता के उच्च नैतिक मानदंडों एवं मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे हैं। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम से जुड़े होने के कारण उन्हें जो सेलेब्रिटी हैसियत मिलती है, उसे वे सहेज-सँभालकर नहीं रख पाते और कई बार सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि मर्यादा और नैतिकता की यह लक्ष्मण-रेखा किसी बाहरी सत्ता या नियामक संस्था द्वारा आरोपित न होकर पत्रकारिता के धर्म से जुड़े यशस्वी मीडियाकर्मियों एवं सरोकारधर्मी पत्रकारों द्वारा स्वतःस्फूर्त दायित्वबोध से ही खींचीं गई है। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर स्वातन्त्रयोत्तर काल तक भारतवर्ष में पत्रकारिता की बड़ी समृद्ध विरासत एवं परंपरा रही है। उच्च नैतिक मर्यादाओं एवं नियम-अनुशासन का पालन करते हुए भी पत्रकारिता जगत ने जब-जब आवश्यकता पड़ी लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। सत्य पर पहरे बिठाने की निरंकुश सत्ता द्वारा जब-जब कोशिशें हुईं, मीडिया ने उसे नाकाम करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आपातकाल के काले दौर में तमाम प्रताड़नाएँ झेलकर भी उसने अपनी स्वतंत्र एवं निर्भीक आवाज़ को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। लोकतंत्र को बंधक बनाने का वह प्रयास विफल ही मीडिया के सहयोग के बल पर हुआ। पत्रकारिता के गिरते स्तर पर बढ़-चढ़कर बातें करते हुए हमें मीडिया की इन उपलब्धियों और योगदान को कभी नहीं भुलाना चाहिए| फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संक्रमण के दौर से भला आज कौन-सा क्षेत्र अछूता है? ऐसे में केवल मीडिया से निष्पक्षता एवं उच्चतम नैतिकता की अपेक्षा रखना सर्वथा अनुचित है।
माना कि कुछ मीडिया घराने और पत्रकार निष्पक्ष नहीं हैं, नहीं होंगें। कुछ के बहस के तरीके भी आक्रामक, एकपक्षीय, हास्यास्पद या शोर भरे हो सकते हैं। परंतु क्या केवल इसी आधार पर आए दिन मीडिया पर होने वाले हमलों को जायज़ ठहराया जा सकता है? आज मीडिया पर चारों ओर से जो हमले हो रहे हैं, सत्ता की जैसी हनक और धमक दिखाई जा रही है, उसके विरुद्ध देश भर के विभिन्न न्यायालयों में जिस प्रकार की याचिकाएँ डाली जा रही हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, दलीय समर्थकों द्वारा विरोध में बोलने वाले पत्रकारों की ट्रोलिंग कराई जा रही है, यह सब लोकतंत्र के लिए शुभ एवं सकारात्मक संकेत तो निश्चित ही नहीं।
सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या पक्षधर पत्रकारिता अपराध है? ऐसी पत्रकारिता कब और किस दौर में नहीं रही? बल्कि पत्रकारिता-जगत के तमाम जाने-माने, चमकदार चेहरे गाजे-बाजे के साथ पक्षधरता की पैरवी करते रहे। विचारधारा विशेष के प्रति उनकी पक्षधरता ही उनकी प्रसिद्धि की प्रमुख वजह रही। उनमें से कई तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते रहे कि पक्ष तो सबका अपना-अपना होता है, अतः उनका भी है तो आपत्ति क्यों? पक्ष के नाम पर कुछ तो सौदेबाजी करते भी पकड़े गए। राडिया-प्रकरण में उछले पत्रकारों के नाम देश के ज़ेहन में आज भी तरो-ताजा हैं। सौदेबाजी अपराध है, पर पक्षधरता नहीं। और यदि पक्ष लेना अपराध है, तब तो पूरा देश ही अपराधी है, क्योंकि हरेक का अपना-अपना पक्ष होता है।
सत्ता और कतिपय संचार-माध्यमों के मध्य नेपथ्य का संबंध तो सदैव से सार्वजनिक रहा है। अर्नब का दोष केवल इतना है कि, जो संबंध परदे के पीछे निभाए जाते रहे , उसे अर्नब ने बिना किसी लाग-लपेट के परदे के सामने ला भर दिया। उन्होंने आम लोगों की भाषा में जनभावनाओं को बेबाक़ी से स्वर दे दिया। जिसे समर्थकों ने राष्ट्रीय तो विरोधियों ने एजेंडा आधारित पत्रकारिता का नाम दिया। पर सवाल यह है कि केवल अर्नब ही सत्ता के आसान शिकार और कोपभाजन क्यों? प्रशस्ति-गायन पर पुरस्कृत-उपकृत करने और विरोध या असहमति पर दंडित किए जाने की परिपाटी स्वस्थ और लोकतांत्रिक तो कदापि नहीं! लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी है। संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। असहमति या विरोध की क़ीमत गिरफ़्तारी तो नहीं।
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार मुँह अँधेरे रिपब्लिक चैनल के प्रमुख अर्नब गोस्वामी को एक पुराने एवं पर्याप्त सबूत के अभाव में लगभग बंद पड़े मामले में जिस तरह से आनन-फ़ानन में गिरफ़्तार किया, वह उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। पूरा देश मुंबई पुलिस से सुशांत सिंह के आत्महत्या प्रकरण में न्याय की बाट जोह रहा था, घोर आश्चर्य है कि उस मामले में कोई न्याय न देकर उस पर सवाल पूछने वाले को ही उठाकर जेल की कालकोठरी में डाल दिया। दो साल पुराने मामले में किसी को ख़ुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में अर्नब को गिरफ्तार करने की महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस की नीयत जनता ख़ूब समझती है। गौरतलब है कि पुलिस इस केस की क्लोजर रिपोर्ट भी दाख़िल कर चुकी है। अब अचानक पुलिस को ऐसा कौन-सा सबूत मिल गया कि वह अर्नब को गिरफ़्तार करने पहुँच गई। और वह भी इतने बड़े लाव-लश्कर, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और हथियारों से लैस! कमाल यह कि वह कोर्ट से अर्नब को पुलिस रिमांड में रखने की इजाज़त भी माँग रही है।
अर्नब गोस्वामी का कोई आपराधिक अतीत नहीं, वे कोई सजायाफ्ता मुज़रिम या आतंकी नहीं हैं। बल्कि वे एक ट्रेंड सेटर पत्रकार हैं। जिनका यूपीए सरकार के घपलों-घोटालों को उजागर करने में अभूतपूर्व योगदान रहा है। 2014 के उनके धारदार एवं चर्चित इंटरव्यू सिद्ध कर दिया था कि कौन प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत रखता है और कौन नहीं? क्या उनसे उस समय लिए गए इंटरव्यू का हिसाब चुकता किया जा रहा है? क्या आम पत्रकार द्वारा प्रश्न पूछा जाना इन महत्त्वाकांक्षी, वंशवादी नेताओं को नागवार गुजरा है? क्या सत्ता के अहंकार के कारण वे इस मामूली पत्रकार को उसकी हैसियत दिखाना चाहते हैं? क्या आज भी वे राजा की ग्रन्थि पाले बैठे हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि मुल्क आजाद हो चुका है?
सुबह-सुबह मय दल-बल पुलिस का उनके घर धमक पड़ना और बिना किसी पूर्व सूचना या कारण बताए उन्हें गिरफ़्तार करके घसीटकर ले जाना, पूछ-ताछ की फ़ौरी कार्रवाई कम और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई अधिक प्रतीत होती है। यह औक़ात दिखाने की मानसिकता से उपजी घोर अहंकारी प्रतिक्रिया है। यदि महाराष्ट्र सरकार को लगता है कि रिपब्लिक चैनल उसकी छवि धूमिल कर रहा है तो उन्हें अन्य चैनलों एवं माध्यमों के ज़रिए जनता तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए। छवि चमकाने के लिए अर्नब को गिरफ़्तार करके ज़बरन उनकी आवाज़ को दबाने की कहाँ आवश्यकता है? और आश्चर्य है कि अर्नब की गिरफ़्तारी पर अधिकांश चैनल और मीडिया घराने चुप हैं। क्या व्यावसायिक मुनाफ़ा सभी सरोकारों पर भारी पड़ता है? सनद रहे कि ऐसी चुप्पी सत्ता को निरंकुश एवं अराजक बनाती है और असहमति, आलोचना, विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए ख़ारिज करती है। क्या स्वस्थ लोकतंत्र में असहमति एवं आलोचना के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए?
और यदि अर्नब ने कुछ ग़लत भी किया है तो न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत पारदर्शी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए, न कि जोर-जबरदस्ती से? यदि निष्पक्षता पत्रकारिता का धर्म है तो कार्यपालिका एवं सरकार का तो यह परम धर्म होना चाहिए। उसे तो अपनी नीतियों एवं निर्णयों के प्रति विशेष सतर्क एवं सजग रहना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना, उसे डरा-धमकाकर चुप कराना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। और लोकतंत्र के सभी शुभचिंतकों एवं प्रहरियों को ऐसे किसी भी कृत्य का विरोध करना चाहिए। लोकतांत्रिक मूल्यों में इस देश की आस्था अक्षुण्ण है। जब देश ने आपातकाल थोपने वालों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंका तो वंशवादी बेलें क्या बला हैं? जो इस मौके पर चुप हैं, समय उनके भी अपराध लिख रहा है। आज अर्नब की तो कल हमारी या किसी और की बारी है| महाकवि दिनकर के शब्दों में……
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध। जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।।
प्रणय कुमार
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