चौतरफा हैरानी है कि कोविड़-19 वायरस से अमीर-विकसित देशों में लोग क्यों ज्यादा मर रहे है? पहली बात कि विकसित-सभ्य देशों में नागरिक की मौत का सत्य रिकार्ड होता है। व्यक्ति की जान का महत्व है तो चिकित्सा सुविधा जहां अच्छी और अधिकांश मरीज अस्पताल में भर्ती व चिकित्सा के साथ इलाज-रिकार्ड़ में हर तरह की पारदर्शिता। इसलिए अमेरिका और योरोप के देशों में महामारी एक सत्य है जबकि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसों देशों में महामारी झूठ है! तो इन देशों में कौन बीमार है और कौन-किससे मर रहा हैं इसका आंकड़ा भगवान जाने। दूसरी गौरतलब वजह यह है कि अमीर-विकसित देशों की संपन्नता से वहां आबादी में बुजुर्ग-बुढ़े अधिक है। लोगों के जिंदा रहने की अवधि, प्रत्याशा अधिक है। कई देशों में तो अस्सी-नब्बे साल औसत उम्र है। सो बुजुर्ग लोग वायरस के आसान शिकार है।
लंदन की ‘द इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने संयुक्त राष्ट्र के आबादी आंकड़ों में आयुवार विभाजन कर आयु विशेष के लोगों पर संक्रमण की मृत्यु दर का हिसाब बनाया है। ब्राजील, डेनमार्क, ब्रिटेन, स्वीडन, इटली, नीदरलैंड, स्पेन, स्विट्जरलैंड के कुछ हिस्से व अमेरिका में वायरस से हुई मौत के रिकार्ड का अध्ययन किया। इसमें निष्कर्ष है कि समान चिकित्सा सुविधा में वायरस के हमले की स्थिति में मौत का आंकड़ा उम्रगत आबादी के अनुसार अलग-अलग संभावना लिए हुए है।
उस नाते दुनिया में वायरस के आगे सर्वाधिक असुरक्षित जापान है क्योंकि वहां सर्वाधिक अधिक उम्र की बुजुर्ग आबादी है। वहां बुजुर्ग बनाम शेष आबादी की मध्य रेखा 48 है। मतलब बुढ़े कुल आबादी में पचास प्रतिशत के करीब है तभी संक्रमणजन्य मृत्यु दर भी सर्वाधिक 1.3 प्रतिशत बनती है। फिर उसके नीचे इटली में बुजुर्ग बनाम शेष आबादी की मध्य रेखा 47 वर्ष है तो वहां संक्रमणजन्य मृत्यु दर 1.1 प्रतिशत संभावित है। पूरे योरोप में बुढ़ी आबादी क्योंकि ज्यादा है तो योरोप की संक्रमणजन्य मृत्यु दर 0.1 प्रतिशत बनेगी। मतलब योरोप में अमेरिका (0.7 प्रतिशत) चीन (0.5 प्रतिशत) भारत (0.3) से अधिक संक्रमणजन्य मृत्यु दर होना ही है क्योंकि बुजुर्ग ज्यादा है।
सो जिस देश में जितने ज्यादा बुढ़े वहां वायरस के संक्रमण से मौत का ज्यादा खतरा। अफ्रीका में बुजुर्ग बहुत कम (क्योंकि कम उम्र में ही लोगों के, जल्दी मरने का अधिक अनुपात है) है तो संक्रमणजन्य मृत्यु दर 0.2 से भी कम संभावी है। अन्य शब्दों में अफ्रीका के सर्वाधिक गरीब-बदहाल युगांडा में लोग वायरस संक्रमण से सर्वाधिक कम इसलिए मरेंगे क्योंकि वहां बूढों की आबादी न्यूनतम है। वहां पूरी आबादी की मध्यरेखा के बुजुर्ग पाले में सिर्फ 17 प्रतिशत लोग है। सो वहां की संक्रमणजन्य मृत्यु दर मुश्किल से 0.1 प्रतिशत संभावी है। मतलब जापान और इटली के मुकाबले दस गुना कम लोग युंगाड़ा में मरेंगे!
क्या मतलब हुआ? कोरोना वायरस, बुढ़े लोगों, बुजुर्ग आबादी वाले देशों में ज्यादा मारक है। कोविड-19 की आसान शिकार है बुजुर्ग आबादी। साठ-पैसंठ साल और उससे अधिक की उम्र के लोगों के लिए कोरोना वायरस का मतलब है यमराज की लगातार दस्तक।
सो कोविड-19 का शिकार होने के किसके अधिक अवसर है, इस सवाल पर वैज्ञानिकों की अभी तक की शौध में बुजुर्ग होना, अधिक उम्र का शरीर वायरस के आगे सर्वाधिक नाजुक है। इसके बाद फिर हाईपरटेंशन, डायबिटिज और मौटापे की बीमारी में जुझते शरीर को सावधान रहने की जरूरत है। मोटे लोग, सिगरेट पीने वाले वायरस के ज्यादा शिकार हो रहे है और यह बात अमेरिका से भी झलक रही है। बुनियादी और त्रासद बात है जो विकास ने जिन अमीर देशों में जीवन प्रत्याशा अधिक बनाई है और जापान व योरोप में जहां बहुत बुजुर्ग आबादी है वही वायरस का सर्वाधिक खतरा है। यह तो गनीमत जो जापान-अमेरिका की चिकित्सा व्यवस्था और चौकसी-चुस्ती जबरदस्त है जो बुजुर्ग लोग बचे हुए है अन्यथा कई देशों में महामारी से अब तक भूतहा स्थिति बन चुकी होती।
एक सवाल और उठता है। किन देशों ने वायरस-महामारी का सामना वैज्ञानिकता से किया है? किन देशों, किन सरकारों ने वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों की सलाह से वैज्ञानिक तौर-तरीकों से वायरस के खिलाफ लड़ाई लडी है? इस सवाल पर स्विट्जरलैंड की एक वैज्ञानिक पत्रिका फ्रंटीयरस् ने मई-जून में 25 हजार रिसर्चरों से पूछा तो सर्वाधिक वाहवाही न्यूजीलैंड सरकार की सुनाई दी। न्यूजीलैंड के वैज्ञानिको-शोधकर्ताओं ने एक मत से कहां कि उनकी सरकार और प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिकों से सलाह करके फैसले लिए। मार्च में वैज्ञानिकों से सलाह-तैयारी करके लॉकडाउन लगाया। तभी आश्चर्य नहीं जो न्यूजीलेंड ने दो दफा वायरस के उफान को सफलता से दबाया और लोगों ने भी प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न को अक्टूबर के आम चुनाव में रिकार्ड मतों से वापिस जीताया। नंबर दो पर वैज्ञानिकों ने चीन को लेकर कहां कि वहां सरकार ने विज्ञान सम्मत वायरस का सामना किया। नंबर तीन पर वैज्ञानिक जर्मनी की चासंलर मर्केल की यह तारीफ करते मिले कि उन्होने वायरस से लड़ने की अपनी रीति-नीति में साइंस को महत्व दिया।
बाकि देशों में ब्रिटेन, स्पेन, बेल्जियम जैसे देशों की सरकारों को भी मौटे तौर विज्ञान के अनुसार व्यवहार करते हुए शोधकर्ताओं ने माना मगर अमेरिका को लेकर वैज्ञानिकों का वहीं मत है जो पूरी दुनिया में डोनाल्ड ट्रंप पर बना है। उन्होने विज्ञान- वैज्ञानिकों की नहीं सुनी, अपनी मनमर्जी की, लापरवाही बरती, देश को झूठ में झुलाए रखा तो वायरस का वहां जमकर तांडव है और उससे डोनाल्ड ट्रंप भी चुनाव हार बैठे है। अमेरिका, ब्राजिल, फिलीपीन के राष्ट्रपतियों ने वायरस और विज्ञान दोनों के प्रति हिकारत दिखाई और ये सभी देश भारी कीमत चुकाते हुए है।
रिपोर्ट में भारत का जिक्र नहीं है। ठीक भी है! भला हमारी राजनीति का, हमारे शासन का ज्ञान-विज्ञान से क्या लेना-देना! जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर का यह कहना कि यदि दुनिया में सर्वाधिक कहीं सटीक है तो वह भारत में ही है कि राजनीति और विज्ञान में साझा नहीं हुआ करता। दोनों मिक्स नहीं होते। तभी भारत 21वीं सदी की महामारी में भी दुनिया का वह बिरला देश बना है जिसके प्रधानमंत्री ने दीये-ताली-थाली से वायरस को खत्म करने का जादू मंतर चलाया और वायरस छू मंतर भी हो गया!
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