भाषा और भारत के प्रतिनिधित्व के सिद्धांत में हिन्दी के योगदान को सदा से सम्मिलित किया जा रहा है और आगे भी किया जाएगा, किन्तु वर्तमान समय उस योगदान को बाजार अथवा पेट से जोड़ने का है। सनातन सत्य है कि विस्तार और विकास की पहली सीढ़ी व्यक्ति की क्षुधा पूर्ति से जुडी होती है, अनादि काल से चलते आ रहे इस क्रम में सफलता का प्रथम पायदान आर्थिक मजबूती से तय होता हैं। वर्तमान समय उपभोक्तावादी दृष्टि और बाजारमूलकता का है, ऐसे काल खंड में भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला जैसे ध्येय वाक्य के अनुसार भाषा का सार्वभौमिक विकास भी रचना अनिवार्य होगा।
भारत में हिन्दी भाषा का व्यापक कार्य क्षेत्र है और विस्तारवादी दृष्टिकोण से हिन्दी जब तक बाजार की भाषा नहीं बनती, रोज़गार प्रदाता के रूप में स्थापित नहीं होती वह ऐसे ही अभागन का जीवन जीती रहेगी।
भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार हैं, यदि इस राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषाओँ में हिन्दी का स्थान अग्रगण्य है तो यहाँ की सरकारों को इस दिशा में सार्थक प्रयास करना होंगे जिससे भारत के जनमानस के बीच हिन्दी में कार्य व्यवहार हो, रोज़गार, आमदनी के अवसर मिले, हिन्दी में लिखने वालों की आय सुनिश्चित हो सकें, यहाँ तक कि हिन्दी विषय लेकट उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले नौजवानों को सरकारी महकमे से रोज़गार इत्यादि उपलब्ध हो सके, ऐसी व्यवस्थाओं से ही हिन्दी का भविष्य सुरक्षित रह पाएगा अन्यथा भविष्य के गर्भ में बैठा मलाल हिन्दी को लील जायेगा।
सरकारों ने हिन्दी को प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से राजभाषा विभाग बनाया है, सैकड़ों हिन्दी सेवी संस्थान देशभर में कार्यरत हैं। सरकार हिन्दी प्रचार के नाम पर बड़े-बड़े पुरस्कार तो घोषित कर देती है, सालाना कुछ मुठ्ठीभर लेखक रचनाकारों को सम्मानित करके अपने कर्तव्यों से इतिश्री भी कर लेती हैं। विभागों में हिन्दी के नाम पर मोटा वेतन लेकर कागज़ी कार्यवाही में अव्वल अफसरान हिन्दी की असल दुर्दशा की ओर ध्यान तक नहीं देते।
अनुमानन देश में हिन्दी के नाम पर सालाना करोड़ों रुपए केवल योजना बनाने और पुरस्कार बाँटने में खर्च हो जाते है जबकि उन्हीं पैसों से गाँवो-गाँवों में हिन्दी भाषा का प्रचार किया जा सकता हैं। पुस्तकालय खुलवाएं जा सकते हैं जहां देश के कई प्रकाशन संस्थाओं से किताबें खरीद कर लोगों को पढ़ने के लिए उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। इस कार्यक्रम से लेखकों को आय भी मिलेगी और हिन्दी में लिखने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। विज्ञान, विधि जैसे विषयों पर जहाँ एक ओर हिन्दी में पठन सामग्री बहुत कम है तब सरकार और प्रकाशन से जुड़े लोग मिलकर लेखकों से अनुबंध करके इन विषयों पर गुणवत्तायुक्त पाठ्य सामग्री तैयार करवा सकते हैं। जिनके बाजार में आने से हिन्दी माध्यम में अध्ययन करने वाले छात्र -छात्राओं को अच्छी सामग्री पढ़ने के लिए मिलेगी। जब नई शिक्षा नीति मातृभाषा में शिक्षा का स्तर उच्च करने की दिशा में तैयार की गई है तो ऐसे समय में गुणवत्तायुक्त अध्ययन सामग्री तैयार करवाना भी नैतिक दायित्व हैं।
इसी तरह भारतीय सिनेमा उद्योग प्रायः सम्पूर्ण देश में यहाँ तक कि विदेशों में प्रचलित और प्रसिद्द हैं, आजकल फिल्म उद्योग में वेब सीरीज का चलन हैं, उन वेब सीरीज में आने वाली कहानियों को हिन्दी के लेखक भेज सकें, उनकी कहानियाँ खरीदी जाएँ जिसका मानदेय लेखक को मिलेगा तो यह भी उसके आय के स्त्रोत को मजबूत करेगा। भारतीय विज्ञापन उद्योग में काम आने वाली कविताओं के लिए हिन्दी लेखकों को कार्य मिले, उनकी लघुकथाएँ, कविताएं इत्यादि मानदेय प्राप्त कर उपयोग में ली जा सकती हैं। इसके लिए हिन्दी विभागों को एक मंच तैयार करना चाहिए जिसके माध्यम से आसानी से लेखक सीधे फिल्म अथवा विज्ञापन निर्माताओं तक अपनी सामग्री पहुँचा सके। जिस तरह किसान अपनी फसल को मण्डी इत्यादि व्यवस्थाओं के माध्यम से सीधे खरीददार अथवा दूकानदार को बेच सकता है उसी तरह हिन्दी के सृजकों के लिए भी यह बंदोबस्त किया जाना चाहिए। मातृभाषा उन्नयन संस्थान और हिन्दीग्राम इसके लिए प्रतिबद्धता से कार्य कर रहा हैं। किन्तु उसका भी आर्थिक दायरा कमजोर है इसीलिए वे केवल अपने ही वृत में कार्य कर पा रहे है। शासकीय हिंदी विभागों और मंत्रालयों को संज्ञान लेकर इस तरह की व्यवस्था हिन्दी के लेखकों के लिए उपलब्ध करवाना चाहिए।
भारतीय भाषाओँ के उत्थान को ध्यान में रखते हुए शासन को विभिन्न राज्यों में कार्यव्यवहार क्षेत्रीय भाषाओँ में बढ़ाने के साथ-साथ दुभाषिए की नियुक्तियाँ करना चाहिए और उनका वेतन हिन्दी प्रचार के नाम पर होने वाले अनावश्यक खर्चों से कटौती करके सुनिश्चित किया जा सकता हैं। भारत में भाषा समन्वय की नीति अपना कर सरकारें भारतीय भाषाओँ का भी उचित सम्मान बरक़रार रख सकती है और जब उन भाषाओँ के जानने-समझने वालों को आमदनी भी मिलेगी और उस भाषा में कार्य करने वालों की संख्या भी बढ़ेगी।
न्यायालयों की भाषा यदि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा होती है तो इस दिशा में विधि सम्बंधित लेखकों के साथ-साथ दुभाषिए के कार्य को भी स्थान मिलेगा उन्हें भी रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो सकते है जिससे हिन्दी सिखने वालों की संख्या भी बढ़ेगी और कार्य आसान भी होगा। जनता को जनता की भाषा में न्याय मिलेगा जिससे भारत का प्रत्येक वर्ग लाभान्वित होगा। जब न्यायालयों के निर्णय मातृभाषा में नहीं मिलते तो फरयादी के गुमराह होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं। आंचलिक क्षेत्र में कई अधिवक्ताओं द्वारा अंग्रेजी में प्राप्त दस्तावेजों का अपने फायदे के अनुसार उपयोग किया जाता हैं। इसी लिए जनता अपनी भाषा में न्याय प्राप्त कर सके यह सुनिश्चित करने के लिए भारतीय भाषाओँ और हिन्दी को न्यायिक प्रक्रिया में बढ़ावा देना चाहिए।
भारतीय स्वाधीनता के बाद से ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के माँग जोर पकड़ रही है और यह होना भी चाहिए इसी के साथ हिन्दी को जन लोकप्रियता के तराजू में तौल कर बाज़ारमूलक भाषा के तौर पर स्थापित करने की दिशा में सार्थक प्रयास होने चाहिए। लेखकों को भी ऐसे विषयों पर अपनी कलम चलनी चाहिए जिनकों पढ़ कर आज की अथवा भावी पीढ़ी भी ज्ञानार्जन कर सकें, विज्ञान, विधि, चिकित्सा, पत्रकारिता, फिल्म तथा इन्हीं के साथ-साथ कम्यूटर जैसे विषयों पर प्रायोगिक अध्यनन करने वालों के लिए सामग्री उपलब्ध करवाना, किताबें लिखना यह कार्य किया जा सकता हैं। प्रकाशकों को भी कविताओं, किस्सागोई के साथ-साथ अध्ययन वाले विषयों पर किताबें छापनी चाहिए। लोक सेवकों एवं जनप्रतिनिधियों को अपने कार्य क्षेत्र में ग्राम-नगर में पुस्तकालय खुलवाना चाहिए उन पुस्तकालयों में प्रायोगिक विषयों की किताबें रखनी चाहिए।
[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं स्तंभकार
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