जिंदगी में पत्थर उन्हीं राहों पर मिलेंगे, जिन राहों पर सड़क का निर्माण होगा। सफलता-विफलता में लोग बदलते हैं मगर उन सफलताओं को पाने के लिए अवसर बार-बार नहीं आते और यह भी सच है कि जीवन की एक असफलता का मतलब सम्पूर्ण जीवन की विफलता नहीं है। अगर हम गौर करें तो हार, हर बार बुरी नहीं होती, वह सबक हमेशा जीतने का सिखाती है। टूटना ,बिखरना और फिर संभल जाना एक निराला खेल है। खुद पर विजय की अभिलाषा बड़ी ताकत है। इतिहास वही लोग लिखते हैं जो शेरों की भाँति संघर्ष करते हुए साहसी होने का परिचय देते हैं । वरना शोर करने के लिए तो खूब गीदड़ हैं । ध्यान दीजिए कि पत्थर को अनोखा आकार, विकार से ही मिलता है। अगर पत्थर में विकार नहीं होगा तो एक अनोखी मूर्ति कैसे बनेगी? हर मीठी चीज अच्छी नहीं होती है और हर कड़वी चीज बुरी नहीं होती है और मेहनत का स्वाद कड़वा है, लेकिन परिणाम मीठा।
एक बार बनारस में स्वामी विवेकनन्द मां दुर्गा के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहां मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छीनने लगे। वे उनके नजदीक आने लगे और डराने भी लगे। कुछ देर तक स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए और खुद को बचाने की कोशिश करने लगे। वो बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए और वे भी उन्हें पीछे-पीछे दौड़ाने लगे। पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहे थे। उन्होंने स्वामी जी को रोका और कहा, “रुको ! डरो मत, उनका सामना करो। ” वृद्ध सन्यासी की ये बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढ़ने लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बन्दर तुरंत भाग गए। उन्होंने उस बुजुर्ग संन्यासी को बहुत-बहुत धन्यवाद कहा।
इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में इसका जिक्र भी किया और कहा, “यदि तुम कभी किसी समस्या से भयभीत हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो। ” वास्तव में हम भी अपने जीवन में आयी समस्याओं का सामना करें और उससे भागें नहीं तो बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा ! स्मरण रहे स्वामीजी ने एक बार पत्थर के दो टुकड़े उठाकर उन्हें आपस में टकराते हुए कहा था खतरे और मृत्यु के समक्ष मैं स्वयं को चकमक पत्थर के समान सबल महसूस करता हूं, क्योंकि मैंने ईश्वर के चरण स्पर्श किये हैं और मैं हिम्मत कभी नहीं हार सकता।
दरअसल जीवन जोखिम से जुड़ा है। गहराई से समझें तो सबसे बड़ा जोखिम है बिना जोखिम वाला जीवन। लेकिन यह भी काबिलेगौर है कि जब हमारा किसी समस्या पर नियंत्रण न हो तो हमें पूरी जिम्मेदारी खुद लेते हुए, मुस्कुराकर, शांति, विवेक और ईमानदरी के साथ उस समस्या को स्वीकार कर उसके साथ जीना सीख लेना चाहिए। यहां पसंद, नापसंद की बात बेमानी है। कोरोना काल को ही ले लीजिए। महामारी ने बेशक बेहद कहर बरपाया। कई जानें चली गयीं, लेकिन जीना तो पड़ा आखिर उसके साथ ! और अब तक जी रहे हैं। जब हम समस्या को पूरे साहस से स्वीकार कर लेते हैं तब उसके नियंत्रण का रास्ता भी सूझने लगता है। समस्या की जड़ तक पहुंचना बुनियादी बात है। आप जड़ों में बदलाव बिना फलों में बदलाव नहीं ला सकते।
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