जैन धर्म की सबसे प्राचीन आत्म उन्नयन की परम्परा है संथारा (संलेखना)। इस पर राजस्थान हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है और इसे अपराध घोषित किया है। जबकि संथारा आत्महत्या नहीं, आत्मसाधना है। संथारा एक अहिंसक और आध्यात्मिक साधना पद्धति है इसलिए इसके समर्थन में होने वाले उपक्रम भी अहिंसक एवं आध्यात्मिक ही होने चाहिए। मनुष्य जीवन निवृत्ति प्रधान जीवन है। निवृत्तिमूलक प्रवृत्तियां सांसारिक एवं शारीरिक विषय भोगों से अनासक्त/विरक्त और रत्नत्रय के संवर्द्धन का हेतु होने से भव भ्रमण करने में समर्थ कारण हैं।
प्रत्येक जीव का जन्म-मरण सूर्योदय और सूर्यास्त के समान सुनिश्चित है। जैसे सूर्य अपने सुनिश्चित समय में उदय होता है और सुनिश्चित समय में अस्त हो जाता है, वैसे ही जीव अपने सुनिश्चित समय में जन्म लेता है और सुनिश्चित समय में मरण को प्राप्त होता है। सूर्य का उदय और अस्त होना सूर्य की अपेक्षा नहीं है, अपितु सूर्य का क्षेत्र विशेष में प्रकाशित होने और न होने/क्षेत्रान्तर होने की अपेक्षा है। सूर्य तो सदैव ही अपने प्रकाश से प्रकाशित रहता है। उसी प्रकार जीव का जन्म-मरण जीव की अपेक्षा नहीं अपितु भवधारण और भवान्तर गमन सापेक्ष है। जीव तो सदैव ही अपने जीवत्व भावरूप से रहता है। सूर्य का क्षेत्रान्तर होने से सूर्य का नाश नहीं होता है। जीव का गत्यान्तर/भवान्तर होने से जीव का नाश नहीं होता है। सूर्य जब पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य में आता है तो जगत् में उसे ग्रहण लगा हुआ कहा जाता है, किन्तु ग्रहण के काल में भी सूर्य के तेज प्रकाश की हानि नहीं होती है। जीव जब मोह-रोग-द्वेष भावों के मध्य अर्थात् उस रूप परिणमन करता है तब उसे व्यवहार से संसारी कहा जाता है, परन्तु उसके चित् स्वभाव की हानि नहीं होती है।
अनादि संसार में कोई भी ऐसा जीव नहीं है जो जन्म लेकर मरण को प्राप्त न हुआ हो। देवेन्द्र, नरेन्द्र, मुनि, वैद्य, डाॅक्टर सभी का अपने-अपने सुनिश्चित समय में मरण अवश्य हुआ है। कोई भी विद्या, मणि, मंत्र, तंत्र, दिव्यशक्ति, औषध आदि मरण से बचा नहीं सकते। अपनी आयु के क्षय होने पर मरण होता ही है। कोई भी जीव यहां तक कि तीर्थंकर परमात्मा भी, अपनी आयु अन्य जीव को दे नहीं सकते और न उसकी आयु बढ़ा सकते हैं और न हर सकते हैं।
अज्ञानी मरण को सुनिश्चत जानते हुए भी आत्महित के लिए किंकर्तव्य विमूढ़ रहता है। जबकि ज्ञानी मरण को सुनिश्चित मानता है। वह जानता है कि जिस प्रकार वस्त्र और शरीर भिन्न हैं, उसी प्रकार शरीर और जीव भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए छूटते हुए शरीर को छोड़ने में ज्ञानी को न भय होता है और न ममत्व, अपितु उत्साह होता है।
प्रति समय आयु का हृास होना नित्य-मरण है। आयु का संपूर्ण हृास, सर्व संयोगों का एक साथ एक समय में छूटना और गत्यंतर होना तद्भव मरण है। जीव और शरीर के सर्वदेश वियोग को मरण कहा जाता है किन्तु एकदेश वियोग को नहीं, क्योंकि समुद्रघात के समय जीव का शरीर से एकदेश वियोग होता है, सर्वदेश वियोग नहीं होता है।
मरण के मुख्य पांच भेद हैं- (1) बालबाल मरण, (2) बाल मरण, (3) बालपण्डित मरण, (4) पण्डित मरण, (5) पण्डित पण्डित मरण
जिस जीव ने मिथ्यात्व से कलुषित होकर मरण किया है, वह बाह्य में संयमी हो, असंयमी हो किन्तु वह किसी भी आराधना का आराधक नहीं है। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं होते हैं इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव संयत होकर भी इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं हो पाता है। जैसे कोई विपरीत दिशा में दु्रतगति से गमन करने वाला अपने इष्ट स्थान को नहीं पहुंच सकता वैसे ही मिथ्यादर्शन के साथ उत्कृष्ट संयम का पालन करने पर भी मुक्त नहीं हो सकता। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बाल मरण कहते हैं। अथवा रत्नत्रय का नाशकर समाधिमरण के बिना मरण करना बालमरण है। पंचम गुणस्थानवर्ती संयतासंयत जीव का मरण बालपंडित मरण कहा जाता है। चारित्रवान मुनियों के मरण को पंडितमरण कहते हैं। अप्रमत्त संयम मुनि क्षपक श्रेणी का आरोहण कर चार घातिया कर्मों का क्षय कर पश्चात चार-अघाति कर्मों का क्षय होने से सिद्धपत प्राप्त करता है। सिद्धपद प्राप्ति वाले मरण को पंडित पंडित मरण कहते हैं।
जिस मरण के होने में आयु क्षय का समय पर आरोप आता है, किसी अन्य परद्रव्य/क्रिया आदि पर नहीं आता है वह सकाल मरण कहलाता है। इसमें जीव अपनी पूरी आयु भोगकर मरण को प्राप्त होता है।
अकाल शब्द का अर्थ है- काल को छोड़कर अन्य सर्वद्रव्य/क्रिया आदि अकाल हैं। जिस मरण के होने में काल पर आरोप न आकर किसी अन्य द्रव्य या क्रिया पर आता है, इस प्रकार के सभी मरण अकाल मरण कहे जाते हैं। सामान्यतया संसारी जीव यकायक मरण को अकालमरण समझता है, किन्तु मरण तो स्वकाल में ही होता है। फिर भी जो मरण किसी घटना के निमित्त से, योग विशेष से, हृदय गति रूकने से हो उसे अकालमरण कहा जाता है किन्तु यह तथ्य सर्वथा ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञानानुसार अकालमरण सकालमरण ही है।
आगम के आलोड़न से ज्ञात होता है कि आगम में अकालमरण के स्थान पर आयु का अपवर्तन/उदीरणामरण का उल्लेख मिलता है। मरण में काल को छोड़कर अन्य कारण निरपेक्षमरण को सकालमरण और अन्य कारण सापेक्ष मरण को अकालमरण कहने का व्यवहार है। वास्तव में मरण तो मरण ही है। सर्वज्ञदेव के ज्ञान के अनुसार तो आयु का अपवर्तन/उदीरणा भी स्वकाल में हुई है। इसलिए उदीरणामरण सकालमरण ही है किन्तु तत्वार्थ के अज्ञाता/अबोध को आयु की उदीरणा का ज्ञान न होने से उस उदीरणामरण को अकालमरण कहा है।
जो मरण ज्ञानपूर्वक होता है वह सुखद एवं भव भ्रमण विनाशक होता है। प्रत्येक जीव मरण समय में होने वाले दुःखों से भयभीत है, मरण से नहीं। अपने मरण को सुखद और स्वाधीन करने के लिए मरण संबंधी ज्ञान होना आवश्यक है। मरण का ज्ञान अर्थात् सल्लेखनामरण/समाधिमरण करने का ज्ञान होना आवश्यक है। सल्लेखनाव्रत धारण करने के लिए द्रव्यश्रुत का ज्ञान बहुत हो यह आवश्यक नहीं है, किन्तु सल्लेखना के योग्य परिश्रम-विशुद्धि रूप भावश्रुत का ज्ञान होना आवश्यक है।
मनुष्य जीवन का सर्वोत्कृष्ट महोत्सव मृत्यु है। आत्मकल्याण करने के लिए सल्लेखना धारण कर अपनी मृत्यु का महोत्सव मनाना चाहिए। मनुष्य जीवन में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विविध प्रकार के उत्सव मनाने का अवसर प्राप्त होता है। प्रत्येक उत्सव का अपनी-अपनी जगह महत्व है। उनके महत्व का कारण उनमें अनेक विशेषताएं हैं। विशेष समय पर आते हैं, अनेक बार मनाने का अवसर प्राप्त होता है किन्तु मृत्यु महोत्सव जीवन के अंत में एक बार ही मनाने का अवसर प्राप्त होता है।
सल्लेखना मरण मुक्ति वधू को वरण करने के लिए विवाहोत्सव की भांति महोत्सव है। जैसे सामाजिक विविध उत्सवों में विवाहोत्सव सबसे अधिक उल्लास एवं आनंदपूर्वक किया जाता है। वर को संस्कारित/ शृंगारित किया जाता है। वर जब बारात लेकर वधू को वरण करने जाता है तब उसके यथेष्ट बाराती होते हैं। वर के मन में अपूर्व आल्हाद् होता है। उत्सव की चरम सीमा वधू को वरण करने के समय होती है। वैसे ही सल्लेखना का आराधक वर जब मुक्ति को वरण करने को उद्यत होता है तब आराधक वर जब मुक्ति को वरण करने को उद्यत होता है तब आराधक के जीवन में मरण से कुछ दिन पूर्व से ही व्रताचार होते हैं। चित्त को वैराग्य से संस्कारित/ शंृगारित किया जाता है। भावों में स्वरूप स्थिरता रूप अपूर्व शांति होती है। आराधक के साथ समता-दर्शन-ज्ञान-चारित्र-व्रत-तप आदि यथेष्ट बाराती/साथी होते हैं। महोत्सव की चरम सीमा मरणांत में देखी जाती है।
संसार में जीवों को जन्म-जरा-मृत्यु से मुक्त कराने वाला उत्सव ही सर्वोत्कृष्ट उत्सव है। इसलिए जैनाचार्यों ने मृत्यु को महोत्सव कहा है। यद्यपि जीवन के अंत में मरण सभी का होता है। इसलिए उसे महोत्सव पूर्वक करना/मनाना चाहिए। सल्लेखना जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ हैः सत्$लेखन। सम्यक् प्रकार से काय और कषाय का लेखन/कृश होना सल्लेखना है। अर्थात् साधक के साम्य भावों से दर्शन आदि चार आराधनाओं द्वारा स्वशुद्धात्मा की आराधनापूर्वक आयु के अंत में बाह्य में अनशन आदि तपों द्वारा शरीर को और आभ्यन्तर में श्रुतामृत द्वारा कषायों को कृश करना सल्लेखना है। काय और कषायों को कृश करने का प्रयोजन मात्र शरीर और कषायों को कृश करना नहीं है अपितु काय और कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को भी क्रमशः सम्यक् प्रकार से कृश करना है।
सल्लेखना में मूल क्रिया ‘लेखन’ है। चिकित्सा शास्त्र के अनुसार लेखन वह क्रिया है जो शरीर के दोषों को छील-छील कर जड़मूल से पृथक कर दें। अतः सल्लेखना शब्द से स्पष्ट होता है कि आत्मा के बाह्यान्तर दोषों को निर्मूल कर पृथक करना है। सल्लेखना परिणाम विशुद्धि की सर्वोच्च अवस्था है।
सल्लेखना धर्मध्यान सहित साम्यभावपूर्वक ज्ञान-वैराग्ययुक्त वीतरागता की शीतल छाया में निर्विकल्प संपन्न होती है। इसमें शील आदि धर्मों की रक्षा एवं निज शुद्धस्वरूप की स्थिरता होने से सल्लेखनाधारी निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। समाधि/आत्महित चाहने वाले मुनियों, ज्ञानी श्रावकों सल्लेखना धारण करने से सांसारिक एवं शारीरिक किसी भी प्रकार के विषय-भोग भोगने का प्रयोजन नहीं होता है, अपितु शाश्वत अतीन्द्रिय आनंद प्राप्ति का प्रयोजन होता है, इसलिए आराधक अपने उपयोग को संसार एवं शरीर संबंधी विषयों में न भ्रमाते हुए निज शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर करता है तथा साम्य भावों के साथ शरीर का उत्सर्ग कर देता है। विनश्वर शरीर के लिए अविनश्वर शरीर को नहीं छोड़ता है। शरीर के विनाश होने पर पुनः दूसरा शरीर मिल जाता है किन्तु निज शुद्धत्म धर्म के छूटने पर उसका पुनः मिलना उदधि के मध्य गिरी हुई मुद्रिका का पुनः मिलने के समान दुर्लभ है।
सल्लेखना धारण करने का प्रयोजन है-दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की एकता की पूर्णता हो। इस अवसर में मिथ्यात्व-रागादि विकल्प जाल सहित निर्विकार, चित्-चमत्कार, विज्ञानधन, अनादिनिधन, स्वस्वरूप में अनुष्ठान करना मात्र ही मेरा प्रयोजन है। मैं सांसारिक एवं शारीरिक प्रयोजन नहीं साधना चाहता हूं। मैंने तो सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है।
मैं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता रूप पूर्णता की सिद्धि के प्रयोजनार्थ इस देह में रह रहा था। इसलिए देह की स्वस्थ या अस्वस्थ अवस्था से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। देह का परिणमन भी मेरे वश में नहीं है। अतः सल्लेखना धारण करने का एकमात्र प्रयोजन यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप-आराधनापूर्वक निज शुद्ध आत्मस्वरूप में निमग्न रहते हुए मरण का ही अन्त करना है तथा सल्लेखना पूर्वक मरण किये बिना भव भ्रमण का अंत नहीं आता है। भव का अंत करना ही सल्लेखना का प्रयोजन है।
मरण के समय सल्लेखना धारण करने के इच्छुक आराधक को पूर्व से ही सल्लेखना का अभ्यास सैनिक के समान करते रहना चाहिए। जैसे सैनिक युद्धकला का अभ्यास प्रतिदिन करता रहता है। रणभेरी बजने पर वह युद्ध के लिए सहर्ष सोत्साह युद्ध के मैदान में आ जाता है। धैर्य और विवेक से युद्ध करता हुआ शत्रुओं को पराजित कर अपनी विजय पताका फहराता है। वैसे ही आराधक जीवन में व्रत-तप आदि द्वारा सल्लेखना धारण करने का अभ्यास प्रतिदिन करता रहता है। मरण समय आने पर आराधक मृत्यु को जीतकर आत्म स्वातंत्रय की ध्वजा फहराता है।
आचार्यदेव ने तत्वार्थ सूत्र में सल्लेखना प्रसंग के अंतर्गत ‘‘मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता’ यह सूत्र प्रतिपादित किया है। सूत्र में जोषिता शब्द का अर्थ न केवल सेवन करना है अपितु प्रीतिपूर्वक सेवन करना है। प्रीति के अभाव में बलपूर्वक सल्लेखना न की जाती है और न कराई जाती है। सल्लेखनाधारी के उस भव के मरण का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण के साथ ‘अंत’ पद का भी ग्रहण किया गया है। मरण का अंत मरणांत है। जिसका यह मरणांत ही प्रयोजन है, वह मरणान्त की भावना से परिणत होकर मरण समय सल्लेखना धारण करना जीव का प्रयोजन है।
सल्लेखनामरण से स्वेच्छापूर्वक शरीर-विसर्जन/मरण नहीं है। यद्यपि सल्लेखनामरण की विधि में प्रीति पूर्वक मरण को ग्रहण करना कहा गया है। प्रीति का अर्थ उत्साह है, स्वेच्छा नहीं। सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक धारण मरण के अंत समय में मरण का अंत करने के लिए किया जाता है। जीव अपने ही परिणामों से प्राप्त इन्द्रिय, बल, और आयु के प्रति निर्मोह रहता है तथा भविष्य में भी इनकी प्राप्ति की चाह नहीं रखता है।
सल्लेखना का धारण आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यानपूर्वक निदान आदि रहित शुद्ध भावों से किया जाता है। जबकि स्वेच्छापूर्वक जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराकर स्वर्गादिक के भोगों की अभिलाषा से या अपना नाम अमर करने की कामना से किया जाता है जो कि अज्ञान मरण है, अज्ञानजनित भावातिरेक है। मरण के यथार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ गुरु के उपदेश से जल-प्रवाह, जल-प्रपात, जलाशय मंे डूबकर, ऊपर से कूदकर, शस्त्रों से तन पृथक कर, जमीन में दबकर, अग्नि में प्रवेश कर स्वर्ग प्राप्ति की कामना से किया गया मरण स्वेच्छामरण है, जो कि सल्लेखना से सर्वथा विपरीत है। अतः स्पष्ट है कि सल्लेखना-मरण, स्वेच्छा-मरण नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में स्वेच्छा नहीं है, अपितु मरण समय आने पर छूटते हुए शरीर को निर्ममत्व भाव से छोड़ा जाता है।
सल्लेखना का धारण अपने अभिप्राय पूर्वक किया जाता है तो भी आत्महत्या नहीं है, क्योंकि इसके धारण करने में प्रमत्त योग का अभाव है। अप्रमत्त जीव अहिंसक है, वह आत्मघाती नहीं होता है। वह तो पतझड़ में झड़ते हुए पके पत्ते की भांति छूटते हुए शरीर को छोड़ता है। इसलिए सल्लेखनामरण आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या तो तब होती है जब प्रमत्त योगपूर्वक प्राणों का घात किया जाता है। जैसे कषायवश, विष भक्षण कर, शस्त्र घातकर, श्वासादि का निरोध कर, कूप आदि जलाशय में डूबकर पर्वत आदि उच्च स्थानों से गिरकर, भवन आदि के ऊपर से कूदकर, शरीर में आग लगाकर मरण करने में प्रमत्त योग होने से हिंसा है/आत्मघात है/आत्महत्या है, परन्तु सल्लेखनामरण में मरण को अवश्यंभावी जानकर रागादि के अभावपूर्वक शरीर छोड़ा जाता है, इसलिए आत्मघात नहीं है।
जगत् के जीव बलात् द्रव्य प्राणों के घात को तो आत्मघात स्वीकार करते हैं, किन्तु विषय कषायों से ग्रसित शरीर से एकत्वभाव रखते हुए इन्द्रियाधीन होकर, अभक्ष्य आदि का सेवन करते हुए कुस्थानों में दुध्र्यान के साथ मरण करना आत्मघात नहीं मानते हैं, जबकि ऐसा मरण आत्मघात/आत्महत्या ही है।
जो मरण संसार का किनारा न लावे, भव की वृद्धि करे वह आत्मघात नहीं तो फिर क्या है? क्योंकि सल्लेखना मरण करने से आराधक को संसार से पार होने का किनारा मिल जाता है, भव का अंत हो जाता है किन्तु जिस मरण से संसार से पार होने का किनारा न मिले वह मरण आत्मघात/आत्महत्या ही है।
जगत में जिन जीवों की परिणति/परिणाम/भाव संसार एवं शरीर भोगों से अनासक्त हैं तथा अन्य पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्म-स्वभाव को जानते मानते हैं उनका मरण ही सल्लेखना मरण है। यद्यपि सल्लेखना धारण करने में बुद्धिपूर्वक आहार आदि का क्रमशः त्याग किया जाता है। विकारों के शमन होने से शरीर का परिणमन सल्लेखना के अनुकूल रहता है। शरीर में ऐसा कोई विकार पैदा नहीं होता है कि जिससे आराधक के परिणामों में आत्र्त-रौद्र ध्यान हो।
सल्लेखना मरण आत्महत्या इसलिए भी नहीं है कि सल्लेखना का आराधक शरीर एवं बाह्य साधनों को पदोन्नत शासकीय कर्मचारी की भांति छोड़ देता है। जैसे किसी शासकीय कर्मचारी की पदोन्नति होकर स्थानान्तर होता है, तब वह शासकीय कर्मचारी शासकीय समस्त साधन/उपकरण एवं आवास स्थान को छोड़कर चला जाता है। प्राप्त उन्नत पद को सहज ही संभाल लेता है वैसे ही जिनेन्द्र शासन का अनुसरण करने वाला जीव मोक्षपद प्राप्त करने के लिए पदोन्नत होता हुआ सल्लेखना मरण करता है। इसलिए वह शरीर एवं बाह्य साधनों को निर्ममत्व भाव से छोड़ देता है तथा प्राप्त भावी शरीर को ग्रहण कर लेता है। इसलिए भी सल्लेखना मरण, आत्महत्या नहीं है।
आत्मघात/आत्महत्या तो तब होती है जब जीव का परिणाम/भाव संसार एवं शरीर भोगों में आसक्त हो। आत्महित की भावना से शून्य हो, देहादि पर द्रव्यों में एकत्व बुद्धि हो, स्त्री-पुत्र आदि चेतन पदार्थों में अति ममत्व हो। शरीर की उत्पत्ति में अपना उत्पाद, उसके विनाश में अपना विनाश, उसके विकास में अपना विकास मानता हो तथा दुःखों के कारणभूत अशुचि, विपरीत बंध स्वरूप आस्रव भावों में सुख समझता हो। ऐसे अन्यथा श्रद्धान-युक्त जीव का मरण आत्मघात/आत्महत्या है।
सल्लेखना और आत्महत्या में बहुत बड़ा अन्तर है। सल्लेखना धारण करने में जीव के परिणाम पर द्रव्य एवं पर भावों से भिन्न एवं पर के कर्ता-भोक्ता रहित होते हैं तथा अपने शुद्ध चैतन्य में ही स्थिर रहते हैं। बाह्य में होने वाली अनुकूलता एवं प्रतिकूलता से अपना लाभ-अलाभ न मानते हुए साम्य भावों के साथ सल्लेखना धारण की जाती है। किन्तु आत्मघात में सांसारिक एवं शारीरिक विषय भोगों की चाह होती है। इच्छा के अनुरूप विषय भोगों के आसार दिखाई न देने पर, कठोर वचन सहन न होने पर, अपमानजनित दुःख/भय होने पर आत्महत्या करता है।
सल्लेखना धारण करने में विषय-कषायों को क्रमशः विधि पूर्वक कृश किया जाता है। आत्मस्वरूप की स्थिरता की वृद्धि के हेतु विद्यार्थी का शाला और पुरानी पुस्तकों की भांति शरीर आदि को छोड़ दिया जाता है। जिस प्रकार विद्यार्थी ज्ञानवृद्धि हेतु निम्नस्तरीय शाला और पुस्तकों को छोड़कर उच्चस्तरीय शाला और पुस्तकों को ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार आराधक निज शुद्ध स्वरूप की स्थिरता की वृद्धि हेतु जीर्ण शरीर एवं बाह्य अन्य साधनों को छोड़ देता है और नया शरीर और साधनों को ग्रहण कर लेता है अर्थात् योग्य आत्म-साधना का कार्य आगे बढ़ाने के लिए पूर्व शरीर को छोड़ नया शरीर ग्रहण कर लेता है किन्तु आत्महत्या इसके बिल्कुल विपरीत है।
प्रस्तुतिः ललित गर्ग
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