रक्षाबंधन भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि पर्व है ।अनेकानेक श्रेष्ठतम आदर्शों उच्चतम प्रेरणाओ,महान प्रतिमानों और वैदिक वांग्मय से लेकर अद्यतन संस्कृति तक फैले हुए भारतीयता के समग्र जीवन का प्राण है|यह पर्व श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित किया जाता जाता है, जब चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र में विचरण करते हों तो यह पर्व आता है। इस श्रवण नक्षत्र का नाम ही मातृ–पितृ भक्ति के श्रेष्टतम बिन्दु श्रवण कुमार के नाम पर पड़ा है|यह नाम ही बताता है कि हमारे आदर्श कैसे होने चाहिए। इस नाम की गरिमा इतनी आदरणीय है कि अनेक कुलीन परिवारों में श्रावणी कर्म किया जाता है।
इसी दिन भारत की सांस्कृतिक नगरी काशी में भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हुआ था,आज के ही शुभ दिन पर हमारे ऋषियों ने परम-पावन सिन्धु नदी में प्रातःकाल स्नान करके सामवेद को देखा था, इसी सामवेद में परम प्रतापी राजराजेश्वर नरेश्वर श्री लंकेश्वर महाराजा रावण ने स्वर दिया था श्री रावण उत्तम कुल उत्पन्न ऋषि पुलत्स के वंशज थे। सामवेद की स्वर परम्परा आज भी महाराजा लंकेश्वर का अनुसरण करती है|आज ही के दिन भगवान महादेव ने श्री अमरनाथ में परमसती त्रिपुर सुंदरी भगवती को पहली बार राम कथा सुनाई थी इसी के फल स्वरुप रामकथा इस धरती पर उतारी थी,इतना ही नही आज ही के दिन भगवान चंद्रमौलिस्वर विश्वेश्वर महादेव ने देवताओं की अत्मा हिमालय में भगवती जगदम्बा पार्वती को श्रीकृष्ण कथा का भी उपहार दिया था तभी से श्रीमदभगवत कथा की भाव भूमि बनी|
पुराणों में रक्षाबंधन के सन्दर्भ में कथा ऐसी है कि राजा बली की परीक्षा के लिए स्वयं भगवान वामन अवतार राजा बली के यहाँ गए रजा बली अपनी श्रेष्टतम दान कार्य के कारण प्रसिद्ध थे भगवान वामन ने रजा बली से अपने लिए साढ़े तीन पग भूमि की याचना की महाराज बली सहर्ष देने के लिए तैयार हो गए,यद्यपि महाराज बली के गुरु महर्षि शुक्राचार्य ने रजा बली को मना किया था कि भगवान वामन को दान नहीं देना, लेकिन अपने जीवन भर की उच्चतम परम्परा को रजा बली मलिन नहीं कर सकते थे और गुरु आदेश के विपरीत यह जानकर की स्वयं भगवान नारायण उनके यहाँ मांगने आये है रजा बली ने दान देना स्वीकार कर लिया और भगवान वामन ने तीन पग में तीनो लोको को नाप दिया आधे पग में अपनी पीठ रजा बली ने भगवान वामन के चरणों में रख दिया|यह देख साक्षात् नारायण अपने मूल स्वरूप में प्रगट होकर रजा बली को आशीर्वाद दिया और वर मांगने को कहा रजा ने बरदान में भगवान की अखंड भक्ति और यह भी माँगा की आप हमारी रक्षा सदैव करते रहे और निरंतर मेरे आँखों के सामने बने रहे भगवान श्री हरी ने एवमस्तु कहा और रजा बली के राज भवन के मुख्य द्वार पर खड़े हो गए क्योकि अब तो वे रजा बली के पहरेदार भी थे और निरंतर आँखों के सामने खड़े रहने का आशीर्वाद भी दे चुके थे|
इस प्रकार बहुत समय बीत गया भगवती नारायणी को देव वार्ताकार नारद जी ने यह पूरी सूचना दी तो भगवती बहुत चिंतित और दुखी हुई कि अब नारायण हमेशा रजा की रक्षा में ही रहेंगे,अनेक विचार विमर्श के बाद देवी नारायणी स्वयं रजा बली से याचना करने और दान मांगने रजा के सम्मुख राज सभा में पहुची रजा बली ने भगवती से निवेदन किया की आप निःसंकोच अपनी इक्छा प्रगट करे इस पर भगवती ने रजा से उस पहरेदार को ही मांग लिया जो मूल रूप से भगवान वामन थे यह सुन कर रजा बली ने कहा की श्री हरी वचन दे चुके है की अहर्निश मेरे आँखों के सामने ही रहेंगे यह संकल्प कैसे पूर्ण होगा|यह सुन कर भगवती नारायणी ने आशीर्वाद दिया की भगवन श्री हरी सदैव आप की भावभूमि में ही रहेंगे इसलिए निरंतर दर्शन का तो समाधान हो गया और भगवती ने अपने वस्त्र से कुछ धागे निकाल कर रजा बली के दाहिने हाथ में वाध दिया यह कहते हुए की इस रक्षा सूत्र से आप के और आप के राज्य की निरंतर रक्षा होती रहेगी वह पवित्र दिन श्रवण पूर्णिमा ही था और तभी से रक्षाबंधन की परम्परा हमारे समाज में चली आ रही है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्राध्यापक हैं)