क्या आप खड़ी बोली में लिखी किसी ऐसी पुस्तक के बारे में जानते हैं जो सवा करोड़ हिंदी प्रेमी परिवारों में पहुँच चुकी हो . आइए आप के साथ ऐसी ही एक पुस्तक राधे श्याम रामायण और उसके रचनाकार राधे श्याम कथावाचक के बारे में कुछ जानकारी साझा करुंगा. दुर्भाग्य यह है कि न सिर्फ़ आज की नई पीढ़ी बल्कि उससे एक पीढ़ी पूर्व के लोगों को भी हिंदी की विरासत के बारे पता नहीं हैं.
उत्तर प्रदेश के बरेली महानगर में काफ़ी पुराना मोहल्ला बिहारीपुर है , यही मोहल्ला राधेश्याम कथावाचक की जन्म स्थली है और यहीं रह कर उन्होंने हिंदी रंगमंच और काव्य को समृद्ध किया था .
पंडित जी के बारे में मुझे चन्दौसी रह कर पहली बार पता लगा , मेरे चन्दौसी के मित्र सुरेंद्र मोहन मिश्र की बहन विजय लक्ष्मी अपने विवाह के बाद बरेली के इसी मोहल्ले में गयी थीं और यही राधे श्याम कथावाचक उनके ददिया ससुर थे . सुरेंद्र भाई से ही मुझे खड़ी बोली की इस अद्भुत पुस्तक और उसके रचयिता के बारे में १९७५ में परिचय मिला . बाद में कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मेरा विवाह भी बरेली के इसी मोहल्ले में हुआ था . वहाँ जब भी आना जाना होता था मैं वहाँ देखा करता था एक गली का नाम पंडित जी के नाम पर है . लेकिन तब तक बरेली वासी पंडित जी के बारे में लगभग भूल चुके थे .
पंडित जी ने १७-१८ वर्ष की आयु से ही लेखन शुरू कर दिया था , दरअसल गोस्वामी तुलसी दास लिखित राम चरित्र मानस में अवधी का ज़बरदस्त पुट है इसलिए खड़ी हिंदी क्षेत्र के लोग भले ही इसे अपनी धार्मिक पुस्तक मानते हैं लेकिन इसे समझने के लिए उन्हें साथ में दिए अर्थ की मदद लेनी पड़ती है . इसलिए राधे श्याम जी की रामायण सरल हिंदी में लिखने को एक चुनौती के रूप में लिया था , उनकी कृति ऐसी बन पड़ी है जिसे समझने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती . पंडित जी ने पूरे भक्ति भाव को अपनी इस कृति में उड़ेल दिया , साथ ही इसे गाने की अद्भुत राधे श्याम तर्ज़ विकसित की जिससे उसके मंचन और गायन का आनंद और बढ़ जाता था .
पंडित जी अपनी रामायण के कारण प्रसिद्ध हुए लेकिन उन्होंने साथ ही ५६ अन्य पुस्तकें भी लिखी तथा 175 से अधिक पुस्तकों का सम्पादन एवं प्रकाशन किया , उनका अपना प्रकाशन केंद्र राधेश्याम पुस्तकालय (प्रेस) के नाम से बरेली में ही था .
पंडित जी की आवाज़ में जादू था , मंच पर जब वो अपनी कृति का सस्वर पाठ करते , ऐसा लगता था मानो सरस्वती स्वयं आ कर बैठ गयी हों . यही कारण है वे लगभग 45 वर्षों तक कथावाचन एवं नाट्यलेखन-मंचन में हिंदी भाषी क्षेत्र के सिरमौर बने रहे। उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं। रामकथा वाचन की शैली पर मुग्ध होकर मोतीलाल नेहरू ने उन्हें इलाहाबाद अपने निवास पर बुलाकर चालीस दिनों तक कथा सुनी थी। 1922 के लाहौर विश्व धर्म सम्मेलन का शुभारम्भ उन्ही के लिखे व गाये मंगलाचरण से हुआ था। यही नहीं उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई और कृष्ण-सुदामा जैसी फिल्मों के लिये गीत भी लिखे। महामना मदनमोहन मालवीय को पंडित जी ने अपना गुरु मान रखा था . पृथ्वीराज कपूर उनके अभिन्न मित्र और प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला उनके परम भक्त थे। स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित कर उनसे पंद्रह दिनों तक रामकथा का आनन्द लिया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु धन जुटाने महामना जब बरेली पधारे तो राधेश्याम ने उनको अपनी साल भर की कमाई उन्हें दान दे दी थी। नेपाल नरेश ने पंडित जी की ख्याति सुन कर उन्हें सम्मानित किया था .
मेरी बड़ी इच्छा थी मेरे पास पंडित जी की रामायण की प्रति हो , मुरादाबाद के शिव अवतार रस्तोगी सरस जी को जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने बड़े जतन से संजो कर रखी अपनी प्रति मुझे देने का संदेश भेजा था , हाल ही उनका स्वर्गवास हुआ है , उनके परिवार ने मुझे यह प्रति देने के लिए संभाल कर रखी है .
हिन्दी भाषा-भाषीप्रदेशों, विशेषतया उत्तर प्रदेश के ग्राम-ग्राम में, इसका प्रचार हुआ। कथावाचकों ने अपने कथावाचन तथा रामलीला करनेवालों ने रामलीला के अभिनय के लिए इसे अपनाया। इसके कई अंशों के ग्रामोफोन रिकार्ड भी बने। सामान्य जनता में उनकी ख्याति रामकथा की इनकी विशिष्ट शैली के कारण तेज़ी से फैल गयी थी .
अल्फ्रेड कम्पनी से जुड़कर उन्होंने वीर अभिमन्यु, भक्त प्रहलाद, श्रीकृष्णावतार आदि अनेक नाटक लिखे। एक समय ऐसा भी था जब उनके लिखे कई नाटकों ने पेशावर, लाहौर और अमृतसर से लेकर दिल्ली, जोधपुर, बंबई, मद्रास और ढाका तक धूम मचा रक्खी थी। भक्त प्रहलाद नाटक में पिता के आदेश का उल्लंघन करने के बहाने उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आंदोलन का सफल सन्देश दिया तथा हिरण्यकश्यप के दमन व अत्याचार की तुलना ब्रिटिश शासकों से की। वे इतने सधे हुए नाटककार थे कि उनके नाटकों पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई आधार ब्रिटिश राज में अंग्रेजों को नहीं मिल सका .
अल्फ़्रेड कम्पनी के लिए उन्होंने लगभग एक दर्जन नाटक लिखे जिनमें से श्रीकृष्णावतार, रुक्मिणीमंगल, ईश्वरभक्ति, द्रौपदी स्वयंवर, परिवर्तन आदि नाटकों को रंगमंचीय दृष्टि से विशेष सफलता मिली। एक अन्य पारसी कंपनी ‘सूर विजय’ के लिये लिखे हुए उषा अनिरुद्ध ने वीर अभिमन्यु नाटक के समान ही ख्याति प्राप्त की।
पंडित जी का निधन 26 अगस्त 1963 को 73 वर्ष की आयु में हुआ।खेद इस बात का है कि पंडित जी की इस विरासत को लोग पूरी तरह भुला चुके हैं .
(प्रदीप गुप्ता स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और विभिन्न विषयों पर निरंतर लेखन कर रहे हैं)