भारतीय संस्कृति में सेवा, शिक्षा, चिकित्सा क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों-संस्थाओं के प्रति विशेष सम्मान रहा है। योग्य, समर्पित एवं निष्ठावान शिक्षकों-गुरुजनों के प्रति तो जनसाधारण में आज भी प्रायः पूज्य भाव ही देखने को मिलता है। यहाँ की रीति-नीति-परंपरा में सब प्रकार के वैचारिक आग्रहों-पूर्वाग्रहों, सहमतियों-असहमतियों, विरोध या समर्थन से परे इन क्षेत्रों में कार्यरत लोगों-संस्थाओं पर तीखी एवं कटु टीका-टिप्पणियों का चलन नहीं है। यहाँ तक कि शिक्षा-सेवा-चिकित्सा की आड़ में व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं तक को इस देश ने थोड़े-बहुत किंतु-परंतु के साथ स्वीकार किया। उनमें कार्यरत पादरियों एवं नंस के लिए भिन्न अर्थ प्रकट करने वाली प्रचलित शब्दावली फादर्स-मदर्स-सिस्टर्स-ब्रदर्स को भी भारतीय जन-मन ने संपूर्ण आत्मीयता एवं सहजता से अपनाया। क्यों, क्योंकि जो ज्ञान के मंदिरों से जुड़े हैं, पढ़ाने-लिखाने का काम कर रहे हैं, वे लोक-मानस के लिए सम्माननीय हैं।
सरस्वती के साधकों के लिए सहज श्रद्धा-आस्था-आदर-विश्वास का भाव यहाँ की मिट्टी-हवा-पानी में घुला-मिला है। अक्षर-ज्ञान को हमने ब्रह्म-ज्ञान जैसा पवित्र माना। ज्ञानार्जन का हमारा लक्ष्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का सार ही सब प्रकार की सीमाओं-संकीर्णताओं-लघुताओं से मुक्त होना है। स्वाभाविक है कि भारतीय मन-मिज़ाज-मान्यताओं को समझने वाले राजनेता भी इन क्षेत्रों में कार्यरत लोगों-संस्थाओं की अकारण आलोचना से बचते हैं। वे इन क्षेत्रों को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाते। यह अवश्य है कि शिक्षा के माध्यम से देश व समाज की तक़दीर और तस्वीर बदलने की कामना रखने वाले सुधी जन, शिक्षाविद-बुद्धिजीवी-राजनेता आदि शिक्षा संबंधी नीतियों, कार्यक्रमों या पाठ्यक्रमों आदि में बदलाव कर शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाने की माँग समय-समय पर करते रहे हैं, पर ऐसे दृष्टांत कदाचित दुर्लभ ही होंगे कि किसी प्रमुख दल के राष्ट्रीय नेतृत्व ने निजी शैक्षणिक संस्था या ट्रस्ट पर सीधे तौर पर हमला किया हो। कांग्रेस-नेतृत्व द्वारा विद्या-भारती जैसे शैक्षणिक संस्थान पर की गई तीखी टिप्पणी भारतीय मनीषा के प्रतिकूल है।
1952 में केवल एक सरस्वती शिशु मंदिर से संस्थानिक-यात्रा की शरुआत करने वाली विद्या भारती आज देश की एक ऐसी ग़ैर सरकारी संस्था बन चुकी है, जो निजी विद्यालयों की सबसे बड़ी शृंखला का संचालन करती है। वह इसके लिए सरकारी तंत्र, सहयोग-संरक्षण पर कभी निर्भर नहीं रही। उसने अपने तपोनिष्ठ-सेवाव्रती शिक्षकों (आचार्यों) के सतत प्रयास, परिश्रम, साधना, समर्पण तथा शिक्षा-प्रेमी समाज के सहयोग के बल पर ही यह सफलता अर्जित की है। उसके शिक्षकों ने यह सिद्ध किया कि शिक्षा केवल पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं है, अपितु चरित्र, आचरण और जीवन-जगत के प्रत्यक्ष व्यवहारों, विविध पहलुओं तक उसका विस्तृत वितान है। सीमित संसाधन, न्यूनतम शुल्क में भी उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा, मौलिक-अभिनव प्रयोग, उत्कृष्ट परीक्षा-परिणाम और नियमित अभिभावक-संपर्क इन विद्यालयों की प्रमुख विशेषता रही है।
ये विद्यालय सरकार द्वारा निर्धारित शिक्षा के सभी नियमों एवं मानदंडों का पालन करते हैं। उसके ट्रस्ट या प्रबंध-समिति सरकारी नियमों एवं धाराओं के अंतर्गत पंजीकृत होते हैं। ये विद्यालय सीबीएसई या राज्य शिक्षा बोर्ड से संबद्ध होते हैं। उसके निर्देशों-आदेशों-पाठ्यक्रमों को ही लागू करते हैं। एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें ही इन विद्यालयों में भी पढ़ाई जाती हैं। इनके आय-व्यय का प्रतिवर्ष नियमानुसार अंकेक्षण यानी ऑडिट कराया जाता है। उल्लेखनीय है कि एक ओर जहाँ विद्या भारती के 12,850 औपचारिक विद्यालय हैं, जिनमें लगभग 34,47,856 छात्र-छात्राएँ वर्तमान में नामांकित एवं अध्ययनरत हैं वहीं दूसरी ओर उसके 11,500 एकल शिक्षा केंद्रों में वनवासी-जनजातीय-सीमावर्त्ती क्षेत्रों, शहरों-ग्रामों की सेवा बस्तियों के बच्चे अध्ययनरत हैं। प्रशंसनीय है कि यहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों में लगभग 80,000 छात्र-छात्राएँ मुस्लिम और ईसाई मतावलंबी भी हैं। यह उनका अपना चयन है और उन्हें अपने विद्यालयों या उनके प्रबंधन से कभी कोई शिकायत नहीं रही। यहाँ शिक्षा के साथ-साथ व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक खेलकूद, कला, संगीत, साहित्य जैसी अभिरुचियों एवं पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। जाति-मत-पंथ-संप्रदाय से परे देशभक्त एवं समाज के प्रति संवेदना रखने वाली संस्कारक्षम पीढ़ी का निर्माण इनका लक्ष्य रहा है। सामाजिक समरसता, सर्वधर्म समभाव, सभी विचारों का आदर, विविधता में एकता की भावना को इन विद्यालयों में प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलता है। इन सभी विशेषताओं के कारण ही समय-समय पर जाने-माने शिक्षाविदों एवं विद्वत जनों द्वारा विद्या-भारती की मुक्त कंठ से सराहना की जाती रही है।
भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ अल्प शुल्क में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दिलाना आज भी आम आदमी का बड़ा सपना है, वहाँ दूरस्थ ग्रामीण अंचलों-कस्बों-शहरों के लिए विद्या भारती के विद्यालय वरदान हैं। राहुल गाँधी भाजपा की नीतियों, निर्णयों, कार्यक्रमों, योजनाओं की आलोचना करें, इस पर भला किसी को क्या आपत्ति होगी! यह उनका अधिकार भी है और जिम्मेदारी भी। पर या तो सत्ता की लपलपाती लिप्सा, अंधी महत्त्वाकांक्षा या सुर्खियाँ बटोरने, सनसनी पैदा करने की सस्ती-सतही आतुरता एवं व्यग्रता में विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालयों की तुलना पाकिस्तान के मदरसों से करके वे न केवल देश की विधि-व्यवस्था की खिल्ली उड़ा रहे हैं, अपितु सार्वजनिक विमर्श को भी छिछले स्तर पर ले जा रहे हैं।उतावलेपन में कदाचित उन्होंने यह विचार भी नहीं किया कि उनका बयान केवल संघ-भाजपा को ही नहीं बल्कि देश की संपूर्ण शिक्षा-व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने वाला है। क्या वे यह कहना चाहते हैं कि 1952 से लेकर अब तक जिन-जिन सरकारों ने विद्या-भारती को कार्य करने की वैधानिक अनुमति दी, वे सभी पाकिस्तानी मदरसे जैसी सोच को पालना-पोसना-बढ़ाना चाहते थे?
ऐसे निराधार आरोपों और बयानों से वे यहाँ अध्ययनरत लाखों विद्यार्थियों के परवान चढ़ते सपनों का गला घोंट रहे हैं? आजीविका के लिए उसमें काम करने वाले लाखों आचार्यों के रोज़गार पर भी चोट कर रहे हैं। संस्थाओं को ध्वस्त करने, उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने का यह नया चलन राजनीति को तो पतन के गर्त्त में धकेल ही रहा है, देश और समाज को भी भारी नुक़सान पहुँचा रहा है। सत्ता के लिए समाज में विभाजन की ऐसी गहरी लकीर खींचना और खाई पैदा करना स्वस्थ एवं दूरदर्शिता पूर्ण राजनीति नहीं है। भले ही वे यह सब किसी रणनीति के अंतर्गत कर रहे हों, पर यह रणनीति दलगत लाभ के लिए देश की छवि को दाँव पर लगाने वाली है। यह परिणामदायी नहीं है। इससे उन पर ही सवाल उछलेंगे कि उन्होंने कभी चर्च में व्याप्त कदाचार, वहाँ होने वाले दलितों-जनजातियों के उत्पीड़न पर तो मुँह नहीं खोला, शिक्षा की आड़ में धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाली शैक्षिक संस्थाओं को तो कठघरे में खड़ा नहीं किया? फिर किस एजेंडा के तहत वे भारतीय मूल्यों पर आधारित देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल, युगीन एवं आधुनिक शिक्षा देने वाली, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में सर्वाधिक लोकप्रिय शैक्षणिक संस्था की साख़ और विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं? सच यही है कि ऐसे अनर्गल आरोपों से विद्या भारती की साख़ और विश्वसनीयता कम होने की बजाय स्वयं उनकी साख़, विश्वसनीयता, गंभीरता एवं परिपक्वता संदिग्ध होगी।
प्रणय कुमार
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