मैं एक नुस्खा आजमाता हूं। देश दुनिया के राजनैतिक समाचारों पर, सोशल मीडिया में मुस्लिम्स का क्या अप्रोच रहता है, किस पोस्ट को वो लाइक करते हैं, किस पर एंग्री या लाफिंग रिएक्शन देते हैं, क्या कमेंट करते हैं, इस पर नज़र रखता हूं। अलग से इसके लिए मेहनत नहीं करता, लेकिन जब कुछ दिख जाता है तो नोटिस कर लेता हूं। हर जगह मुस्लिम्स की बातों और प्रतिक्रियाओं में एकरूपता मुझको दिखती है। कमाल है! इतने सारे लोग एक जैसे कैसे सोच सकते हैं, एक जैसी बात कैसे कर सकते हैं?
2019 में अगस्त से दिसंबर के बीच कश्मीर, अयोध्या निर्णय, सी ए ए आदि हुआ। मुस्लिम समुदाय का जनरल माइंडसेट उस दौर में गुस्से से भरा था, विक्टिम वाली भावना थी, लेकिन कॉविड के बाद वाला जनरल मुस्लिम रिएक्शन उससे भिन्न है, कमोबेश पीसफुल, रिलैक्स्ड, इवन चीयरफुल मिजाज़ दिखता है, गहरा दुःख और फिक्र नहीं मिलती। वो इस बात को जानते हैं कि वायरस ने हिंदुस्तान और उसकी हुकूमत को कमज़ोर किया है और इसके क्या मायने हैं।
कुछ दिन पहले कुणाल कामरा ने एक फिल्म का दृश्य शेयर किया। फिल्म मुझे प्रिय थी इसलिए फिल्म के बारे में टिप्पणी की। कामरा उस दृश्य को सरकार के खिलाफ़ इस्तेमाल करना चाह रहे थे पर मेरी टिप्पणी केवल तथ्यात्मक थी। मैं चौंका जब मुझे मुस्लिमों के सौ से ज्यादा लाइक्स मिले। मैंने ख़ुद से पूछा कि मैंने क्या ग़लत बात कह दी जो ये लोग मेरे कमेंट को लाइक कर रहे हैं। फिर सोचा कामरा को लाखों मुस्लिम्स फ़ॉलो करते हैं, उसकी ऑडियंस ही यही है इसलिए उन्हीं के लाइक्स आ रहे हैं। पर क्या कामरा इस्लामिक स्कॉलर है जो उसको इतने मुस्लिम फ़ॉलो करते हैं? या वो सरकार विरोधी होने के कारण उनको प्रिय है। यही हाल रवीश कुमार और दिलीप मण्डल और योगेन्द्र यादव और अभिसार शर्मा का है। इनके फॉलोअर्स में मुस्लिम्स भरे हुए हैं। अगर आप हिन्दू धर्म, सवर्णों, आरएसएस और भाजपा की मुखालफत करते हैं तो आपको मुस्लिमो का सपोर्ट मिलेगा, और वो आपसे उम्मीद करेंगे कि आप अमरीका, इसराइल, फ्रांस की भी मुखाल्फत करें, तालिबान, पाकिस्तान और इस्लामिक स्टेट पर चुप रहें, और मुस्लिम्स पर होने वाले ज़ुल्म की बात करें, मुस्लिम्स द्वारा किए जाने वाले ज़ुल्म की नहीं। आप देखेंगे ये मनोवैज्ञानिक दबाव इन सब पर काम करता है।
इस्लाम से यही मुझको सबसे बड़ी प्रोब्लम है। उसमें दूसरे नज़रिए की कोई जगह नहीं। केवल अपना हित सर्वोपरि है। ईमान की बात को ये अपने हक़ में मोड़ने में माहिर हैं। ये अपने अन्दर झांककर नहीं देख सकते। ये पूरी दुनिया पर इस्लाम और शरीयत की जीत देखना चाहते हैं ये छुपी हुई बात नहीं है।
अगर मुस्लिम्स में ईमानदारी होती, दुनिया की हर मजलूम कौम के लिए उनके दिल में जगह होती तो आज फलस्तीन में मर रहे मासूमों के लिए सहज ही भावना उमड़ रही होती। लेकिन किसी के लिए दिल पसीजना एक बात है और राजनीति और स्वार्थ के चलते इन्सान इन्सान के दुःख में भेद करना दूसरी बात है। इस भेद की कला में मुस्लिम्स ने महारत हासिल कर ली है।
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