आजकल नेपाल में कोहराम मचा हुआ है लेकिन हम भारतीयों का ध्यान दूसरे पड़ौसी देशों की तरफ ज़रा ज्यादा जाता है। हमारे लोग यह जानने की जरुरत भी नहीं समझते कि नेपाल में आजकल कई लोग रोज़ क्यों मारे जा रहे हैं? वे भूकंप और बाढ़ की चपेट में नहीं आए हैं बल्कि पुलिस वालों की गोलियों के शिकार हो रहे हैं। कौन हैं, ये नेपाली लोग?
नेपाल के ये नागरिक हिंदीभाषी हैं। ये मैथिल या उ.प्र. और बिहार की कई बोलियों का प्रयोग करते हैं। ये लोग बिहार और उ.प्र. से जुड़ी हुई नेपाल की सीमा में रहते हैं। यह प्रायः मैदानी इलाका है। इसे तराई कहते हैं। इन लाखों लोगों को नेपाली कहने की बजाय ‘मधेस’ कहते हैं। याने नेपाल और भारत के मध्य का जो प्रदेश है, उसमें रहने वाले लोग। इन लोगों का संघर्ष काफी पुराना है। इनका कहना है कि ‘मधेस’ का इलाका पिछड़ा हुआ तो है ही, उसके नागरिकों को राजकाज में भी उचित स्थान नहीं है। अभी कुछ वर्ष पहले तक नेपाली संसद में वे हिंदी में नहीं बोल सकते थे और धोती-कुर्ता नहीं पहन सकते थे। उनके साथ-साथ थारु जाति के लोग भी उत्पीड़न-ग्रस्त हैं।
राजशाही के खत्म होने के बाद आशा की जा रही थी कि इन वंचित वर्गों को न्याय मिलेगा। कांग्रेसी और मार्क्सवादी लोग जातिवाद और पहाड़ व तराई के भेदभाव से ऊपर उठेंगे लेकिन उन सब ने मिलकर अब जो संघात्मक संविधान बनाया है, उसमें मधेसियों और थारुओं के स्वायत्त प्रांत बनाने की बजाय उन्हें सात सामान्य प्रांतों का हिस्सा बना दिया है। उनकी एकता को भंग करने की कोशिश हो रही है। सत्ताधीशों को डर है कि यदि मधेसियों के अलग प्रांत बना दिए गए तो वे कहीं स्वतंत्र मधेस राष्ट्र की मांग न करने लगें।
सत्ताधीशों का यह भय निराधार है। श्रीलंका में तमिलों को अलग प्रांत दे देने से क्या श्रीलंका टूट गया? क्या पख्तूनों का अलग प्रांत बनने से क्या पाकिस्तान टूट गया? क्या भारत में सिखों और नगाओं को अलग प्रांत दे देने से क्या वे नए देश बन गए? 21 वीं सदी में इतना अधिक राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी विकास हो गया है कि अब पृथकतावादी शक्तियां अत्यंत क्षीण हो गई हैं। वे बड़ी इकाई के साथ जुड़कर और भी बड़ी बनना चाहती हैं। इस मामले में भारत की चुप्पी आश्चर्यजनक है। भारत सरकार को चाहिए कि वह चुपचाप कूटनीतिक हस्तक्षेप करे, क्योंकि यदि तराई में हिंसा फैल गई तो उसका सीधा असर पटना और दिल्ली पर ज्यादा होगा।
साभार- नया इंडिया से