मानव शरीर की लाखों वर्ष की विकास यात्रा में हमने करोड़ों जर्म्ज़ यानी कीटाणुओं के साथ जीना सीख लिया है। हमारे शरीर में करोड़ों बैक्टीरिया और वायरस निवास करते हैं और शरीर संरचना का ही भाग बन चुके हैं। हमारा शरीर और उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अनेक जर्म यानी बैक्टीरिया और वायरस के अनुरूप एंटीबॉडीज आदि बनाकर शरीर को स्वस्थ रख पाती है।
परंतु आधुनिक ऐलोपैथिक विज्ञान इन जर्म्ज़ को हमारे अनेक रोगों का प्रमुख कारण मानता है और इसका आरम्भ हुआ 1860 में फ्रेंच जीव विज्ञानी लुइ पास्चर का शोध के उपरांत। इसके साथ ही एक नई परंपरा आरम्भ हुई जिसमें यह माना गया कि यह बैक्टीरिया, वायरस आदि जर्म ही हमारे रोगों का प्रमुख कारण है और इनको मार कर ही हम रोगों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जैसे-जैसे एंटीबायोटिक अर्थात् बैक्टीरिया को मारने वाली दवाओं का विकास हुआ वैसे वैसे ही सारे आधुनिक एलोपैथिक विज्ञान का ध्यान जर्म्ज़ को मारने की ओर बढ़ता गया। परिणामस्वरूप शरीर को और उसकी रोग प्रतिरोधी क्षमता को सशक्त रखने की ओर से हमारा ध्यान हटता गया।
एलोपैथी का प्रभाव बढ़ने के साथ साथ स्वास्थ्य से जुड़े अन्य विज्ञान जैसे आयुर्वेद, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, जो कि यह मानते थे कि यदि शरीर को सशक्त रखा जाए तो जर्म – बैक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते, उनका प्रभाव कम होता चला गया। आयुर्वेद तो जर्म के साथ ही वातावरण और शरीर की रोगपात्रता दोनों को रोगों का कारण मानता रहा है।
एलोपैथी को हानिकारक बैक्टीरिया को मारने में एंटीबायोटिक के माध्यम से सफलता मिली तो नए एंटीबायोटिक ढूंढें जाने लगे और प्रायः सभी रोगों में उनका प्रयोग भी बढ़ता ही गया। परंतु आधुनिक विज्ञान को एंटीबायोटिक के बैक्टीरिया को मारने के अतिरिक्त जो हमारे शरीर पर प्रभाव हो रहे हैं उनके बारे में बहुत देर तक जानकारी नहीं थी। सन् 2000 के बाद यह शोध भी आने लगे कि एंटीबायोटिक दवाओं का हमारे शरीर पर और क्या-क्या प्रभाव हो रहा है, जैसे कि हमारे इम्यूनिटी के सिस्टम को यह दवाएं कैसे बिगाड़ रही हैं।
एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग से जो सबसे बड़ी समस्या आज बन रही है वह है बैक्टीरिया की एंटीबायोटिक के विरुद्ध रेजिस्टेंस। तो इसका सीधा सा यह अर्थ यह हुआ कि एंटीबायोटिक दवाओं के दुष्प्रयोग ने बैक्टीरिया अर्थात् जर्म को तो और अधिक सशक्त कर दिया पर साथ ही दवाओं का प्रभाव भी समाप्त होता जा रहा है या कहें कि वे रोग के विरुध्द दुर्बल या निष्प्रभावी होती जा रही हैं। आज पूरे विश्व में एंटीबायोटिक से रेजिस्टेंस और सुपरबग अर्थात् एण्टीबायोटिक से न मर सकने वाला बैक्टीरिया सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है।
दूसरी ओर वायरस के प्रति आज तक आधुनिक विज्ञान को कोई विशेष सफलता मिल नहीं पाई। पर फिर भी सारी मॉडर्न साइंस का ध्यान वायरस को मारने में ही लगा रहा। हमने ना जाने कौन-कौन सी एंटीवायरल, एंटीबायोटिक, एंटीपैरासिटिक, स्टीरायड आदि औषधियों के प्रयोग किए और यह भूल गए कि हम वायरस को मारने में तो हम असफल हो ही रहे हैं, परंतु शरीर को भी अनेक प्रकार की हानि कर रहे हैं, या कहें उसे ही मारते जा रहे हैं। इन दवाओं के हमारे इम्यून सिस्टम से छेड़छाड़ करने, दबाने के उपरांत भी शरीर का रोग से लड़ने का प्रयास हमारी इम्यूनिटी का हमारे शरीर पर आक्रमण ही माना जाने लगा और उसे ही निश्क्रिय करने के उपाय किये जाने लगे। इस प्रकार शरीर की रोग प्रतिरोधी कार्यक्षमता को क्षीण करने से अनेक ब्लैक फंगस जैसे असाध्य रोग भी लोगों की जान लेने लगे। हम आधुनिक विज्ञान के पितामह माने जाने वाले हिप्पोक्रेट्स की वह शपथ भी भूल गये कि “सबसे पहले रोगी को हानि से बचाओ – First Do No Harm”। इसका ताजा उदाहरण करोना में हुई इतनी मौतें हमारे सामने हैं।
वैसे तो हर वर्ष चार से छः लाख मौतें वायरस इन्फेक्शन में होती ही थी, परंतु इस वर्ष एक तो वायरस अधिक तेजी से फैलने वाला था और दूसरी ओर हमारी उसके प्रति उग्रता इतनी अधिक थी कि भर भर के दवाइयां यह सोचे बिना खिलाई गईं कि इन से हानि क्या क्या हो रही है। संक्रमण के डर से न कोई पोस्टमार्टम हुए, न ढंग से कोई विश्लेषण हो पाए। इस भय और मतिभ्रम के वातावरण में यह भी हुआ कि सभी सीनियर डॉक्टर, प्रोफेसर आदि डेढ़ वर्ष से अपने घरों पर या कमरों में बंद बैठे रहे, न रोगियों को देखा, न कोरोना से होने वाली समस्याओं पर शोध या यह विश्लेषण कर पाये कि क्यों इतनी भयंकर नयी नयी समस्याएं बनती जा रही है। परिस्थितियां ऐसी विकट बनती चली गयी कि आधुनिक विज्ञान इस बात पर तो चिन्ता और प्रयास करता रहा कि उन रोगियों को कैसे बचाया जाए जो इन्फ्लेमेशन, आक्सीजन की कमी, खून जमना, ब्लैक फंगस जैसी कठिन समस्याओं से जूझ रहे हैं पर इस ओर किसी ने सम्भवतः ध्यान ही नहीं किया कि थोड़े से बुखार और गला, जुकाम आदि में रोगी की स्थिति क्यों इतनी बिगड़ रही है, क्या वायरस से लड़ने में आरम्भ में ही कोई चूक तो नहीं हो रही।
कोरोनावायरस को मारने के चक्कर में ज्वर उतारने के लिए दी गई पेरासिटामोल से लेकर एंटीबायोटिक एंटी वायरल आदि सभी दवाओं के बारे में वैज्ञानिक प्रमाण और सभी शोध पूर्णतः स्पष्ट है कि इन्हें देने से न केवल रोग की अवधि लंबी हो रही है अपितु मृत्यु दर भी तेजी से बढ़ रही है। जब इतना बड़ा अंधकार, इतनी बड़ी विडंबना सामने हो, हमारा आधुनिक विज्ञान अपने ही वैज्ञानिक शोधों प्रमाणों को अनदेखा कर रहा हो, ऐसे में जनता ही जागरूक होकर और शरीर को सशक्त रख अपना बचाव कर सकती है।
विवेक अग्रवाल
(स्वास्थ सम्बंधित शोधकर्ता,लेखक, समाज सेवी एवं व्यवसायी) नई दिल्ली।