गांधीजी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग की बानगी है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वस्तुतः उनका जीवन और सत्य एक दूसरे के पर्याय हैं। सत्य उनके लिए कसौटी था। सत्य का आनंद ही उनका परम ध्येय था। बापू ने संसार को सत्य की प्रयोगशाला माना। उनकी जीवनी और आत्मकथा दोनों सत्य के साक्षात्कार तथा उसके आत्मसातीकरण की खुली किताबों के समान हैं। सत्य को ईश्वर के रूप में पहचानने वाले गांधी, वास्तव में सत्य के सार्वभौमिक प्रवक्ता हैं। सत्य उनके साधना-पथ का साध्य रहा और उस सत्य को साधने के लिए अहिंसा को उन्होंने एक कारगर माध्यम बनाया।
गांधी जी का जीवन कथनी का नहीं, करनी का था। उन्होंने जो कहा उसके उदाहरण पहले स्वयं बने। वाद-विवाद से दूर संवाद के समीप रहा उनका जीवन। इसलिए समझना होगा कि गांधीवाद उनका कोई पंथ नहीं है अपितु उनके सिद्धांतों, मन्तव्यों का संग्रह है। अपनी किसी राह पर लोगों को चलने के लिए उन्होंने किसी को बाध्य नहीं किया, बल्कि कहा सत्य और अहिंसा की राह पर चलो।
बापू ने कहा – मैं कभी इस बात का दावा नहीं करता कि मैंने नया सिद्धांत चलाया है। मैंने शाश्वत सत्यों को अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों से सम्बन्ध करने का प्रयास अपने ढंग से किया। आप लोग इसे गांधीवाद न कहें, इसमें वाद जैसा कुछ भी नहीं है। गांधी ने शाश्वत सत्य का पाठ विश्व के महान सन्तों एवं मनीषियों से सीखा था। गांधीजी का सत्य जीवन का व्यावहारिक आलोक है। वास्तव में गाँधी जी विश्व को सत्य एवं अहिंसा के आदर्शों पर चलता हुआ देखना चाहते थे। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति इस अभिप्राय को प्राप्त करने का एक साधन मात्र थी।
राष्ट्रपिता के लिए सर्वोच्च था। उन्होंने हरिजन ( 22 फरवरी, 1942 ) में लिखा – सत्य सर्वव्यापाक है। यह अहिंसा में समाहित नहीं, वरन अहिंसा इसमें समाहित है। गांधी जी ने सत्य को जी कर दिखाया। सत्य को ही जीवन बनाया। यहां तक उन्होंने देश की स्वतंत्रता से भी सत्य को लेकर कोई समझौता नहीं किया। सत्य समर्पण की यह गहन दृष्टि गांधी जी के सत्यशोधन का सार कही जा सकती है। सत्य के लिए भावावेश उनके जीवन पर छाया हुआ था। इसने उनके ह्रदय पर इतना प्रभाव डाला कि वह अपरिमित शक्तिशाली बन गया। गांधी जी सत्य साधक ही नहीं, सत्य अन्वेषक भी थे। स्मरण रहे कि इसका उन्होंने विशाल पैमाने पर सत्य प्रयोग किया और उन्हें सफलता मिली।
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