संसद के मानसून सत्र की पहली सुबह देश ने देखा कि बारिश की बूंदों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हाथ में छाता थामकर पत्रकारों को कोई बड़ा ही महत्वपूर्ण बयान दे रहे थे। लेकिन पीएम ने क्या कहा, यह तो एक तरफ धरा रह गया और बात बन गई उनके खुद छाता पकड़कर चलने की। भले ही संसद की हर बात का देश के जनजीवन पर सीधा असर होता हो, लेकिन वहां की सामान्य प्रक्रियाओं से इस देश की सामान्य जनता को कोई बहुत लेना देना नहीं होता। मगर, संसद में घटनेवाली किसी भी असामान्य घटनाओं का इसके उलट, लोगों के दिल और दिमाग दोनों पर तत्काल बहुत प्रभावी असर होता है। इसीलिए पीएम के विपक्ष पर प्रहार के महत्वपूर्ण बयान को एक तरफ रखकर उनका अपने हाथ में खुद छाता थामकर बारिश में खड़ा होना, लोगों इतना भा गया कि कुछ ही पलों में मोदी की सादगी पर सम्मोहित सामान्य समाज विपक्ष पर बुरी तरह टूट पड़ा। चंद मिनटों में ही सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की वे तस्वीरें लोगों के फोन की स्क्रीन पर तैरने लगीं, जिनमें वे खुद तो चल रहे हैं और न भीगें, इसके लिए छाता कोई और थामे हुए सेवा में साथ चल रहा है। अब कांग्रेस भले ही उसकी प्रतिक्रिया में मोदी की भी वैसी तस्वीरें जारी करती रहे, लेकिन सामान्यजन पर प्रधानमंत्री मोदी के खुद छाता छामकर चलने का जो असर हुआ है, कांग्रेस की कोशिशें उसे धोने में कामयाब होती कम दिखती है। मतलब, मोदी जो करे, लोग उसमें एक ऐसा तत्व तलाश ही लेते हैं, जो उनकी छवि को और मजबूत करता है। और बाकी जो करे, वह हर हाल में उलटा ही पड़ता है। ऐसा क्यों, यह आप तय कर लीजिए!
तो, बात संसद के मानसून सत्र के शुरू होने की है। यह ऐसा वक्त है, जब देश में महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। लोग जीने के लिए सड़कों पर संघर्षरत हैं। भले ही इस बार भी सरकार ने कहा है कि वह हर मुद्दे पर चर्चा को तैयार है, लेकिन लोगों की राय में सिर्फ चर्चा से क्या होता है। विपक्ष ने दावा किया था कि वह कोरोना महामारी से देश की तबाही, लगातार ऊंची होती महंगाई, बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी, कसमसाते कृषि कानून, निजीकरण व राफेल जैसे के मुद्दे को जोरशोर से उठाएगा। लेकिन कमजोर विपक्ष यह सब कर पाएगा, इस पर किसी को भरोसा नहीं है। वैसे, एक सोची समझी रणनीति के तहत संसद के सत्र के पहले दिन ही देश के कई लोगों के फोन से हुई जासूसी का एक पुराना मामला भी सामने लाया गया। लेकिन सरकार निश्चिंत है। संसद इस बार 19 जुलाई को शुरू हुई है और 13 अगस्त तक चलनी है। कुल 19 बैठकें होनी हैं और सरकार को 29 विधेयक पारित कराने हैं, आधा दर्जन अध्यादेश भी हैं, जो कानून बनेंगे। सरकार के पास भारी बहुमत है और यह सब तो आसानी से हो ही जाएगा। विपक्ष चाहे जो कर ले, रोक नहीं सकता। लेकिन सवाल यह है कि एक बिखरा हुआ विपक्ष सरकार पर कैसे हावी होगा। बजट सत्र में भी विपक्ष ने तो कहा ही था कि वह सकार को घेरेगा, लेकिन बिखराव, नेतृत्व के अभाव, परस्पर अविश्वास और एकजुटता की कमी के कारण कुछ भी नहीं हुआ। तो, इस बार कैसे संभव होगा।
विपक्ष के परस्पर विरोधाभासी हाल का हुलिया देखना हो, तो संसद के पिछले सत्र की केवल एक घटना याद कर लीजिए। कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी लोकसभा में जब सरकार पर जबरदस्त प्रहार कर रहे थे, तो दूसरी तरफ राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद करबद्द कृपापात्रता के अंदाजवाली मुदित मनमोहिनी मुद्रा में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण पर भावुक हुए जा रहे थे। कांग्रेस नहीं स्वीकारती, लेकिन सच्चाई यही है कि पार्टी में नेतृत्व सम्हालने की अनिर्णयता, जबरदस्त वैचारिक संकट और अंतहीन अंतर्कलह उसकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण है। पता नहीं इस बार भी संसद सत्र की शुरूआत से ठीक पहले, राहुल गांधी ने लगभग दहाड़ते हुए यह क्यों स्वीकार किया कि उनकी पार्टी में डरपोक लोग हैं, और आरएसएस के लोग भी हैं। उन्होंने अपील भी की कि ऐसे लोगों को कांग्रेस छोड़कर चले जाना चाहिए। लेकिन न तो वे स्वयं उनको निकाल बाहर करने की हिम्मत दिखा रहे हैं और न ही वे स्वयं अध्यक्ष बनने को तैयार है। तो, नेतृत्वविहीन कांग्रेस संसद में एक सबल सरकार और पराक्रमी प्रधानमंत्री का मुकाबला कैसे करेगी, यह कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा सवाल है। और विपक्ष की बेचारी गैर एनडीए पार्टियां तो कहने को भले ही साथ हैं, लेकिन उनके बीच परस्पर समन्वय तो दूर, विचारधारा का टकराव भी बहुत बड़ा है।
संसद में हैरत कर देनेवाला हाल यह है कि स्वयं के दुर्भाग्यकाल में भी सरकार पर हावी होने की वासना से विपक्ष आजाद नहीं हो पा रहा है। हैरत इसलिए भी है क्योंकि जब हर तरफ विकराल होती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, बरबाद करती बेकारी, अस्ताचल की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था और कोरोना से कराहते समाज में हाहाकार मचा है, तो उसका कोई निदान बताने की बजाय विपक्ष केवल धिक्कार मंत्र जपने में लगा हैं। माना कि मोदी सरकार महंगाई रोकने के मामले में पूरी तरह से फेल है और यह भी सही है कि वे सत्ता में आए तो महंगाई उन्हें विरासत में मिली। लेकिन सही यह भी है कि इसे सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार कोई गंभीर मौलिक प्रयास नहीं कर पाई, क्योंकि कुछ करते, कि कोरोना संकट ने पूरी दुनिया की आर्थिकी को तबाही की कगार पर खड़ा कर दिया और हालात हाथ से फिसल गए। हालांकि विपक्ष के कई नेता भी इस बात को समझ रहे हैं कि वे सत्ता में होते, तो उनका भी यही हाल होता। लेकिन विपक्ष के ऐसे निर्बल नजारों के बीच शुरू हुए संसद सत्र में, क्या तो महंगाई, क्या बेरोजगारी, क्या कोरोना और क्या ही किसान और पैट्रोल के भाव का विरोध। और जनता जनार्दन से अपना आग्रह है कि आप तो बस… अपने पराक्रमी प्रधानमंत्री को अपना छाता खुद पकड़कर मतवाली चाल में चलते देखने में मस्त रहिए। देश तो यूं ही चलता रहेगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)