14 सितम्बर जम्मू काश्मीर के हाल के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है। इस दन ही वर्ष 1989 में काश्मीर घाटी के प्रमुख राष्ट्रवादी नेता व समाजसेवी श्री टीकालाल टपलू की आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी। यह राज्य में आतंकवाद के दौर की पहली दस्तक थी।
1990 से ही राष्ट्रनिष्ठ जनता विशेषकर काश्मीर घाटी से निष्कासित समाज 14 सितम्बर को बलिदन दिवस के रूप में मनाता है और उन हजारों निर्दोष देशभक्त नागरिकों का स्मरण करता है जो आतंकवाद के साथ जूझते हुए अपने प्राणों की आहुति दे गये।
जम्मू काश्मीर में सशस्त्र आतंकवाद का ताण्डव भारत विरोधी व पृथकतावादी ताकतों के इशारे पर राज्य को भारत से अलग करने के प्रयास का एक हिस्सा है। यह बात सर्वविदित है कि पाकिस्तान जम्मू काश्मीर को हथियाने का प्रयास अपने जन्म के पूर्व से ही करता रहा है। प्रत्यक्ष युद्धों में मुंह की खाने और पूर्वी पाकिस्तान गंवाने के बाद भी वह बाज तो नहीं आया, लेकिन प्रत्यक्ष युद्ध का साहस भी नहीं जुटा पाया। इसलिये उसने छद्म-युद्द का षड्यंत्र रचा और जम्मू काश्मीर में भाड़े के आतंकी भेजने लगा।
घुसपैठ द्वारा जम्मू काश्मीर में आतंक का वातावरण तैयार करने का यह षड्यत्र पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जन. जिया-उल-हक के दिमाग की उपज था। उन्होंने इसे ऑपरेशन टोपाक का नाम दिया। इसका प्रथम चरण राष्ट्रनिष्ठ जनता को आतंकित करना तथा राज्य के प्रशासनिक ढ़ांचे को ध्वस्त करना था।
स्व. टीकालाल टपलू इस षडयंत्र के पहले शिकार बने। आतंकवादियों ने उन्हें सबसे पहले लक्ष्य बनाया, इसी से सिद्ध होता है कि वे एक ऐसी दीवार थे जिन्हें रास्ते से हटाये बिना पाकिस्तान का मंसूबा पूरा नहीं हो सकता था।
16 अक्तूबर 1932 को जन्मे टीकालाल टपलू एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक निडर आग्रही हिन्दू नेता थे और किसी भी भेद-भाव के बिना प्रत्येक जरूरतमंद की सहायता के लिये तत्पर रहते थे। वे नामी अधिवक्ता तो थे किन्तु पैसा कमाना उनकी फितरत नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष के रूप में वे लोकप्रिय राजनेता थे। उनकी राजनीति सिद्धांतों की राजनीति थी, भारत की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण। रखने का साधन मात्र थी।
श्री टपलू जम्मू काश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानकर इसके पूर्ण सामाजिक एवं भावनात्मक एकीकरण के पक्षधर थे और इसका विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोही मानते थे। उन्होंने अपने इस विश्वास के साथ कभी समझौता नहीं किया और आदर्शो के लिये कीमत चुकाने को तैयार रहे। वे अलगाववादियों के सम्मुख एक चट्टान की तरह खड़े रहे और उनकी विभाजनकारी सोच को चुनौती देते रहे।
यह उल्लेखनीय है कि जब पाकिस्तान के इशारे पर घाटी में आतंक का कुचक्र रचा जा रहा था तो जहां देश ने इसकी उपेक्षा की वहीं राज्य में सत्तारूढ़ राजनेताओं ने इस सांप्रदायिक पृथकतावाद के सामने घुटने टेक दिये। इसके फलस्वरूप राष्ट्रविरोधी ताकतों को प्रोत्साहन मिला, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की बात करने वालों को यातनाएं सहनी पड़ी, बलिदान देने पड़े।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों में पगे श्री टपलू ने इस संकट के क्षणों में अपनी अद्भुत नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एक ओर अलगाववाद को चुनौती देते रहे तो दूसरी ओर भयभीत समाज का हौंसला बुलंद करते रहे।
जब ग्रामीण इलाकों से अल्पसंख्यक हिन्दू परिवारों को आतंकित करने के समाचार आते और प्रशासन मूकदर्शक बना रहता तो टपलू जी गांव-गांव जाकर लोगों को पलायन करने से रोकते और आश्वासन देते – यदि गोती चली तो पहली छाती टीकालाल की होगी जो उसे झेलेगी। उसका यह कथन सत्य हुआ।
काश्मीर घाटी में उस समय भाजपा का बहुत जनाधार नहीं था फिर भी टीकालाल जी संख्या की चिन्ता किये बगैर पार्टी के कार्यक्रम आयोजित करते थे। आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह हो या जीत की संभावना न होते हुए भी चुनाव लड़ना, या फिर केन्द्रीय नेताओं का प्रवास हो, टपलू जी सदैव सक्रिय रहते थे।
उनकी लोकप्रियता और जुझारूपन के चलते अन्य राजनैतिक दलों से प्रलोभन भी मिलते रहे। शासक दल भी उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहते थे लेकिन टीकालाल टपलू अपने सिद्धांतों के साथ समझौता करने की सोच भी नहीं सकते थे।
14 सितम्बर 1989 को जब भारत माता के इस सपूत को आतंकियों ने निशाना बनाया तो उनको लगा कि वे राष्ट्रवाद की आवाज को दबाने में सफल हो गये हैं। इश आशय की प्रेस विज्ञप्ति भी उन्होंने जारी की। कन्तु उनके नापाक इरादों को करारा झटका तब लगा जब उनकी अन्तिम यात्रा में सासा समाज उमड़ आया। देश के अनेक नामचीन नेता अंत्येष्टि में भाग लेने के लिये पहुंचे। शेख अब्दुल्ला के पश्चात यह सबसे बड़ी शवयात्रा थी।
उस दृश्य को देख कर श्रीनगर बार ऐसोसियेशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम ने कहा कि हम तो टीकालाल टपलू को मजाक में कहते थे कि तुम कुछ कमाते क्यों नहीं। किन्तु आज पता चला कि उनकी वास्तविक कमाई क्या थी।
स्व. टीकालाल टपलू अपने प्राणों की आहुति देकर भी समाज को एकजुट करने में सफल हुए। वे आज भी हम सबके लिये प्रेरणा का स्रोत हैं।
स्त्रोत- जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र, दिल्ली
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