राजनीतिक तौर पर पहली बार उद्धव ठाकरे ने बीजेपी और नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला किया है। इसके राजनीतिक मायने काफी गहरे हैं। ठाकरे के आत्मविश्वास से ज़ाहिर है कि उनकी सरकार को कहीं से कोई खतरा नहीं है, वे दबाव में भी नहीं है और महाराष्ट्र में बीजेपी व उसके नेताओं का दबदबा भी कम होता जा रहा है। पेश है, इसी का विश्लेषण –
बीजेपी और उसके देवेंद्र फडणवीस भले ही उद्धव ठाकरे व उनकी सरकार को लगातार उसकी औकात बताते रहे हों और शरद पवार ने भी सबको साधकर उद्धव के नेतृत्व वाली आघाड़ी सरकार को टिकाए रखने का इंतजाम भले ही कर दिया हो, मगर उद्धव ठाकरे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। उन्होंने चुनाव अभियान की शैली में बीजेपी को खुलकर ललकारना शुरू कर दिया है। इसी दशहरे पर वे शिवसेना के शेर की तरह गरजे, बिल्कुल बाल ठाकरे की तर्ज पर। जिसकी दहाड़, जब देश भर ने सुन ली है, तो दिल्ली में बैठे ‘उन दो’ ने भी जरूर सुनी होगी, क्योंकि दिल्ली अभी इतनी बहरी भी नहीं हुई है। सामान्य तौर पर सरल व सहज और एक मनुष्य के तौर पर मासूम से लगने वाले उद्धव की ये आक्रामक अदाएं बीजेपी के लिए नए संकेत है, जो अगर वह समय रहते नहीं समझती है, तो महाराष्ट्र में आगे रास्ता और उसके लिए और संकरा हो सकता है।
उद्धव ठाकरे ने बीजेपी को जम कर आड़े हाथों लिया। चेतावनी दी, चौंकाया भी और ऐसे हमले भी खुलकर किए, जिनसे वे अब तक बचते रहे हैं। मौका था दशहरे का और मंच था शिवसेना की रैली का। मतलब, मौका भी था और दस्तूर तो देवेंद्र फडणवीस ने पहले ही निर्माण कर रखा था, तो ठाकरे भी आखिर क्यों चूकते। सो, सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को ललकारते हुए उद्धव ने कहा कि अगर मुकाबला करना है तो सीधे करो, इसमें ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं को बीच में मत लाओ। चेतावनी देते हुए हमला बोला कि अगर हिम्मत हो तो हमारी सरकार को गिराकर दिखाओ। प्रधानमंत्री मोदी पर तंज भरे अंदाज में यह भी कहा कि मैं फकीर नहीं हूं, जो झोला उठाकर चल दूंगा।
बीजेपी ने अगर ढाई – ढाई साल के मुख्यमंत्री वाले मामले के वचन की पालना की होती, तो आज बीजेपी का भी मुख्यमंत्री होता। देवेंद्र फडणवीस को निशाने पर लेते हुए ठाकरे ने कहा कि अब बीजेपी सत्ता में नहीं आ पा रही है, तो किसी ठुकराए हुए प्रेमी की तरह व्यवहार कर रही है। उन्होंने बीजेपी के लिए सत्ता की भूख को नशे की लत जैसा बताया। इसके अलावा भी बहुत कुछ कहा, जिसका सीधा सा मतलब यही है कि ठाकरे ने निशाने पर भले ही मोदी, शाह व उनकी बीजेपी को लिया हो, लेकिन असली निशाना फडणवीस हैं, जो ठाकरे की सरकार सियासत को सांस – सांस कोसते रहे हैं।
कहने को तो यह बहुत आसानी से कहा सकता है कि मुंबई में बैठ कर मोदी व शाह सहित उनके परिवार के मुखिया मोहन भागवत की आलोचना करना आसान है। लेकिन फडणवीस की तरफ से बहुत परेशान नहीं किया जाता तो उद्धव के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं होता, आखिर वे भी तो उसी हिंदुत्व के पंखों पर सवार होकर राजनीति की ऋचाएं रचते रहे हैं, जो भागवत, मोदी व शाह की राजनीति का आधार है। वैसे, महाराष्ट्र की राजनीति में बयानों के तीखे तेवर सदा सदा से तैरते रहे हैं। बाल ठाकरे, उद्धव और राज सहित ठाकरे परिवार के सभी लोग और खासकर उनका अखबार ‘सामना’ तो वैसे भी बयानों की राजनीति के सिरमौर रहे हैं। मगर, सौम्य उद्धव के ताजा यह दुर्लभ स्वरूप की जद में केवल फडणवीस के प्रति आक्रोश ही एकमात्र वजह है।
उद्धव ठाकरे अगर शिवसेना के अध्यक्ष नहीं होते और फोटोग्राफी के अपने प्रिय शौक को ही मांजते रहते, तो संसार की समृद्ध विरासत और संस्कृति के अलग अलग कोण से दर्शन कराने के मामले में कम से कम पद्म विभूषण तो पा ही चुके होते। लेकिन राजनीति की अनजान धाराओं ने उन्हें महाराष्ट्र का मुखिया बना दिया। यह तो, फिर से सत्ता पर सवार होने की सनक में फडणवीस जोरदार जुनून के साथ पूरे पांच साल तक फिर से मुख्यमंत्री बने रहने की जिद न करते तो, उद्धव ठाकरे बीजेपी से रिश्ता तोड़कर विपरीत विचार वाली कांग्रेस व पल प्रतिपल पटखनी का नया पॉलिटिकल इतिहास रचने वाले शरद पवार के साथ सरकार में कतई नहीं आते।
हालांकि, मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव को बाला साहेब के विचार के विरुद्ध जाने के अलावा और भी बहुत कुछ करना पड़ा। फिर, शिवसेना के लिए पवार के साथ चलना तो भले ही गले उतर जाता है, लेकिन कांग्रेस के साथ गठबंधन वैचारिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टि से एक अस्वाभाविक समझौता था। लेकिन, संभवतया यही एकमात्र रास्ता था, जो सख्त राजनीति करनेवाले बाल ठाकरे के इस सौम्य वारिस को महाराष्ट्र के शीर्ष पद पर स्थापित कर सकता था। इसीलिए, उद्धव जब हिंदुत्व की बात करते हैं, तो लगता भी है कि वे सरकार में अपने साथी दलों को यह संदेश भी दे रहे होते हैं कि दोस्त का अर्थ यह कतई नहीं होता कि उसकी हर बात से सहमत हुआ जाए। मतलब, राजनीतिक आचरण के मामले में उद्धव अब किसी दूरदृष्टा परिपक्व राजनेता की तरह व्यवहार करने लगे हैं।
अपना मानना है कि उद्धव का बीजेपी के खिलाफ हमलावर स्वरूप शुद्ध राजनीति है। व्यक्तिगत रूप से वे प्रधानमंत्री मोदी का बहुत सम्मान करते हैं, और इससे पहले किसी भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए शिवसेना की परंपरागत भीषण भाषा व भाषण शैली का प्रयोग मोदी पर कभी नहीं किया। रिश्ते दोनों के ठीक-ठाक हैं, और बीजेपी का साथ छोड़ने के 6 महीने बाद ही मोदी से स्वयं के लिए विधान परिषद में मनोनयन की मदद मांगी तो उद्धव को निराश नहीं होना पड़ा। फिर, उद्धव केवल महाराष्ट्र के मामलों तक ही बीजेपी के विरुद्ध बोलते दिखते हैं, वह भी फडणवीस की वजह से। और बात चाहे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता की हो या केंद्र के खिलाफ मोर्चाबंदी की, उद्धव कभी भी एक मुख्यमंत्री होने की मजबूरी के अलावा उस विषय से व्यक्तिगत नहीं जुड़ते। लेकिन महाराष्ट्र में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की भूख पूरी न हो पाने से परेशान फडणवीस उद्धव के खिलाफ काफी हमलावर हैं।
फडणवीस भले ही, उद्धव को नौसिखिया साबित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि वे भी जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तो उनका हाल तो कुछ ज्यादा ही खराब था। और दूसरी बार तो खैर, फडणवीस का कुछ घंटों का मुख्यमंत्री बनना ही एक मजाक सा बन कर रह गया।
उद्धव ठाकरे यह अच्छी तरह जान रहे हैं कि फडणवीस के हमले भले ही उनकी सरकार को कमजोर करने के लिए होते हैं, लेकिन वे अनायास ही उनको मजबूती भी देते रहते होते हैं। मगर, मामला छवि का है, बाला साहेब की आक्रामक विरासत का है और शिवसेना की शैली का भी है, सो अपने कुदरती स्वरूप को तजकर तीखे तेवर अपनाना भी उद्धव ठाकरे की मजबूरी है। इसलिए, फडणवीस को और खासकर बीजेपी को अब यह समझना होगा कि उद्धव और उनकी सरकार पर हमलों से बीजेपी की सत्ता की भूख सार्वजनिक हो रही हैं।
माना कि, राजनीति में सरकार में आना ही अंतिम लक्ष्य होता है, लेकिन धैर्य, धीरज व संयम भी धारण करना होता है। फिर, राजनीति तो कुल मिलाकर केवल संभावनाओं का खेल है, लेकिन जहां सारी संभावनाएं ही जब पूरी तरह से असंभव हो चली हों, तो खेल का खराब होना ज्यादा संभव हो जाता है। अर्थ यही है कि फिलहाल बीजेपी का फिर से महाराष्ट्र की सत्ता में आना असंभव होता जा रहा है। लेकिन फिर से मुख्यमंत्री के रूप में पूरे पांच साल का पट्टा अपने नाम लिखवाने की जिद में फडणवीस पूरी पार्टी को ही सत्ता से दूर क्यों कर बैठे, इस का जवाब तो आखिर उन्हें देना ही पड़ेगा!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)