फ़िल्मों का क्या है, बनती हैं और कुछ दिनों तक छोटे-बड़े पर्दे पर उसकी ‘रील’ (reel) चलती है। कल्पित ‘रियाल’ (real) वास्तविक यथार्थ को (समाज) कितना प्रभावित कर पाता है? वह भी ऐसे समय में, जब प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में नये सिरे से ‘मूव ऑन’ कर चुका (रहा) है। हमारे समय का सबसे बड़ा सच यही है कि आज का दर्शक केवल मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखता है। अहोरात्र हड्डीतोड़ परिश्रम अथवा बौद्धिक ऊहापोह से उपजी थकान उसे हर पल ढेर किये रहती है। इधर मानव मनुष्य कम और मशीन अधिक हो चुका है। ऐसे में एक एजेंड़ा आधारित फ़िल्म में किसे दिलचस्पी हो सकती है? ज्योतिका-सूर्या द्वारा निर्मित, टी. जे. गणनवेल द्वारा निर्देशित और सूर्या व प्रकाश राज अभिनीत फ़िल्म ‘जय भीम’ एक ‘एजेंड़ा फ़िल्म’ (प्रोपगेंड़ा) है। ध्यातव्य है कि यह हमारे सामाजिक ताने-बाने (सोशल फैब्रिक) को ध्वस्त करने की पूरी क्षमता रखती है। इस फ़िल्म में अतीत की एक करुण घटना को तीव्र अतिरंजना में चित्रित किया गया है। यह सच्ची घटना से ‘प्रेरित’ फ़िल्म है। केवल ‘प्रेरित’! अतः स्पष्टतः इसकी कथा को ‘पूरा सच’ नहीं माना जाना चाहिए। इसमें बहुत सारे सूक्ष्म एवं गंभीर घालमेल हैं। जाति, घटना, स्थान, तीव्रता का चयन कथा लेखक ने इच्छानुकूल प्रभावोत्पादन की दृष्टि से किया है। अर्थात् सबसे बेहतर प्रस्तुति के लिए जो कुछ सृजित (क्रिएट) किया जा सकता है, वह सबकुछ इसमें है।
यह घनघोर बाज़ार का समय है। बाज़ार हर किसी के दहलीज़ तक नहीं, अपितु शयनगृह में घुस चुका है। तरह-तरह के फ्लेवर्ड कंडोम, डिज़ाइनदार लाँजरी, ब्रा-पैन्टी (“फिट है बॉस – बाहर से भी, अंदर से भी”) इत्यादि विज्ञापनों को आकर्षणातिरेक से भरा जा रहा है। ऐसे में फ़िल्मकार द्वारा फ़िल्म में ‘बिकाऊ’ दृष्टि से ‘मसाला’ भरना और तड़का लगाना आश्चर्यजनक नहीं। इस फ़िल्म में करुणा, उत्तेजना और सनसनी के ग्राफ को अत्यंत उच्चांक पर चित्रित करने के लिहाज़ से फिल्मांकित किया गया है। फ़िल्म की भावभूमि जाति भेद की ‘बर्बर’ दृष्टि से ओतप्रोत है। फ़िल्मकार निर्माता-निर्देशक के ‘नेम-फेम’ के ‘गेम’ को भी समझने की आवश्यकता है। ‘शेम’ से कोई विशेष वास्ता नहीं रह गया है। कहना न होगा कि यह फ़िल्म भारतीय सामाजिक ताने-बाने को येनकेनप्रकारेण ध्वस्त करने का प्रयास करती है।
इस फ़िल्म में जाति से भिन्न एक और विभाजनकारी दृष्टि को प्रकाश राज (महानिरीक्षक पेरुमलस्वामी) द्वारा जौहरी को जड़े गये उस थप्पड़ में भी देखा जा सकता है, जो ‘हिंदी’ बोलने पर पड़ता है। हिंदी बोलने पर थप्पड़ के बावजूद फ़िल्म हिंदी में भी रिलीज़ की गयी है। जबकि हिंदी संस्करण में प्रकाश राज का “तमिल में बोल” (“तमिळल पेस”) संवाद के स्थान पर ‘अब सच बता’ कर दिया गया है। यह रवैया नग्न बाज़ारवादी दृष्टि का बोध कराता है। हिंदी के बाज़ार से आमदनी चाहिए परंतु हिंदी नहीं चाहिए? यहाँ हिंदी के संबंध में दोगला रवैया स्पष्ट दिखाई देता है। थप्पड़ में भाषा की राजनीति भी है और बाज़ार को साधने की भरसक कोशिश भी। बाज़ार और फ़िल्म का संबंध संवाद की तुलना में वाद-विवाद (कान्ट्रवर्सी) से अधिक है। “बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा?”
जाति भेद और भाषा विरोध से विवाद उत्पन्न कर फ़िल्म को सुपरहिट बनाने की पूरी कवायद है – ‘जय भीम’। हिंदी दर्शकों ने थप्पड़ से सोशल मीडिया पर आए उबाल (बवाल) को देख कर यह फ़िल्म तो देखी ही होगी। परंतु उपरोक्त विवादास्पद संवाद हिंदी संस्करण में गायब कर दिया गया है। यह फ़िल्मकारों का सुविचारित मैनिप्यलैशन (हथकंड़ा) है। उस एक थप्पड़ ने एक तरफ स्थानीय लोगों को राहत दी, तो हिंदी भाषियों में बेचैनी उत्पन्न कर फ़िल्म देखने को विवश कर दिया। भारत के ‘टुकड़े-टुकड़े’ ‘विभाजन-पर-विभाजन’ के ऐसे अनेकानेक मिसाल और पैमाने हैं।
ऐसे विवादों का उद्देश्य स्पष्ट है – भाड़ में जाए देश और समाज। भरपूर थैलियाँ भरनी चाहिए। यह प्रश्न भी बांरबार उठता है कि क्या फ़िल्मकार और फ़िल्म को वर्तमान तमिलनाडु सरकार का राजनीतिक आश्रय भी प्राप्त है? हिंदी पर थप्पड़, जाति में चयनात्मक उलट-फेर, घटना की वास्तविकता और तीव्रता के साथ व्यापक रूप में छेड़छाड़ करना बहुत-कुछ संकेत करता है। ‘हिंदी विरोध’ द्रविड़ राजनीति का मूलभूत अंग और सर्वातिप्रिय विषय रहा है। हिंदी विरोध के कारण सत्ता मिली और हिंदी राष्ट्रभाषा पद से वंचित रह गई। फ़िल्मकारों की पिपासा स्पष्ट है – हिंदी बोलने पर थप्पड़ का सीधा अर्थ ‘दक्षिण का उत्तर को थप्पड़’ के रूप में देखा जाएगा और हिंदी के अधिकाधिक दर्शक उस एक दृश्य के लिए पूरी फ़िल्म देखेंगे। तमिल भाषी अनेकानेक कारणों से देखेंगे। उसमें ‘भाषा पर तमाचा’ भी एक पक्ष होगा। स्पष्ट है, अंततोगत्वा फ़िल्म सुपरहिट होगी। मास्टरस्ट्रोक! मुनाफाखोर की मानसिक संरचना अत्यंत जटिल (कॉम्पलेक्स) होती है। वह हर स्थिति में अपना मुनाफा बटोरने का षडयंत्र रचता है और सफल होता है। धनाढ्य, अवसरवादी एवं सुविधाभोगी फ़िल्मकार ऐसी विवादास्पद फ़िल्में बना कर देश और समाज में अस्थिरता और भटकाव उत्पन्न करते हैं। परंतु, भारत में अफलातून ‘अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य’ है। भाषा के इस विवाद पर एक और प्रश्न उपस्थित होता है कि नई शिक्षा नीति किस तरह से प्रभावकारी होगी?
फ़िल्म में चित्रित घटना वास्तव में 1993 (कड्डलुर जिला) की है और अंडाई कुरुम्बर जनजाति से संबंधित है, इरुला जनजाति से नहीं। इस जनजाति का पेशा खेतिहर मजदूरी और व्यवसाय बांस की टोकरियाँ बनाना बताया जाता है। जबकि फ़िल्म में राजाकन्नु और सिंहिनी का परिवार चूहे मार कर खाने वाली जाति के रूप में दर्शाया गया है। यद्यपि यह सच है कि कई जनजातियाँ चूहे पकड़ती हैं और ग्रामांचल के लोगों में बाँट कर खाती हैं। कहा जाता है कि चूहे का मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। अतः कुछ जाति-विशेष के लोग इसका मांस पसंद करते हैं। अर्थात् इसे जबरदस्ती लादा गया अथवा अन्न की अनुपलब्धता के कारण विविश होकर अपनाया हुआ खानपान कहना गलत होगा। फ़िल्म में, चूहों के लिए पूरे खेत में खुदाई का दृश्य है। चूहे पाने पर सबके चेहरे पर आनंद एवं परितोष का भाव कल्पनातीत रूप में झलकता है। अतः चूहे का मांस खाने वाले दृश्य को घृणास्पद और समुदाय विशेष की बदहाली की दृष्टि से न देख कर खानपान की आदत और रुचि के रूप में देखना चाहिए। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में खानपान में रुचि वैभिन्न्य पाया जाता है। दक्षिण भारत में बहुतांश सवर्ण ब्राह्मण भी मांसाहार और मद्यपान करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में साँप, केकड़े और कीड़े-मकोड़े भी खाये जाते हैं। यह भारतीय खानपान और रुचि वैविध्य है।
प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि सार्वजनिक दृष्टि से अप्रिय और वर्तमान में अप्रासंगिक घटना को क्योंकर फ़िल्म का आधार बनाया गया होगा? ध्यातव्य है कि ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ (द्रमुक) सत्ता में है और 1991-1995 के दौरान जयललिता (अम्मा) के नेतृत्व वाली ‘ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ (एआईएडीएमके) सत्ता में थी। इस दृष्टि से इसके माध्यम से वर्तमान सत्तारूढ़ द्रमुक दल द्वारा तत्कालीन सत्तासीन और वर्तमान विपक्षी दल को कटघरे में खड़ा करने का एजेंडा (प्रोपगेंड़ा) भी फलीभूत होता है। इसमें राजनीतिक सत्ता और मिशनरियों के गहरे अंतर्संबंध और षडयंत्र को भी देखा जा सकता है। प्रसंगावश उल्लेखनीय है, मिशनरियाँ अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के अधिकतर लोगों को ऐसे ही आधारों पर बहला-फुसला कर अथवा सनातन में घनघोर अनास्था उत्पन्न कर धर्मांतरित करने का ‘उद्योग’ चलाती हैं। दमन, शोषण, उत्पीड़न का चित्रांकन करने वाली फ़िल्में अथवा साहित्य का चरित्रांकन ‘आपदा में अवसर’ खोजने वालों के रूप में ही किया जाना चाहिए। हर मौके को कैश-एनकैश करना इनकी फ़ितरत है।
प्रभावोत्पादन की दृष्टि से फ़िल्म में कई युक्तियाँ (कॉम्बिनेशन) की गई हैं। आंदोनकारियों का नेतृत्व करने वाले झोलाछाप वृद्ध किरदार पर ध्यान दिया जाए तो द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता रामासामी नायकर (पेरियार) का-सा रूप उभर कर आता है। सूर्या/ सूरिया (वकील चंद्रु) को भी पेरियार के रूप में, वैसा ही चश्मा और कमोबेश वैसे ही केश-वेश में दिखाने का प्रयास किया गया है। रामासामी नायकर ‘स्ट्रीट-फाइटर’ (जन मोर्चे वाले) नेता के रूप में चर्चित थे। वृद्ध किरदार और सूर्या/ सूरिया भी स्ट्रीट फाइटर (“नहीं चलेगी, नहीं चलेगी गुंडागर्दी नहीं चलेगी”, “मजदूर एकता ज़िंदाबाद”) के रूप में ही दर्शाये गये हैं।
यह सच है कि यदि समय रहते भारत जाति समस्या से नहीं उबरा, तो यह एक दिन ‘बारूद का ढेर’ बन सकता है। इसकी पूरी संभवना है। फ़िल्म में ‘लाल सलाम’ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। चंद झोलाछाप, लाल झंडों के साथ भीड़ और आंदोलन के अंदाज़ ने उसकी कमी पूरी कर दी है। वकील चंद्रु एक जगह ‘कामरेड’ शब्द का प्रयोग करता है। जुझारू किरदार (वकील चंद्रु) में आकर्षण परोस कर ‘कामरेड’ को जीवित करने का उद्यम है। संक्षेप में, यह फ़िल्म वर्तमान की दृष्टि से शातिराना खेल है। फ़िल्म देखते हुए भावातिरेक में बह जाने का पूरा ख़तरा है। करुण दृश्य देख कर मानव हृदय का पसीजना स्वाभाविक है परंतु तत्कालीन (1993-95) यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान समय का अवलोकन भी साथ-साथ करना चाहिए। निश्चय ही दो नांवों पर सवार होकर यात्रा नहीं की जा सकती। इसमें ‘इतिहास के छौंक’ के साथ-साथ नैरेटर ने वर्तमान में भरपूर ‘मसाला’ भर दिया है।
‘हिंदुस्तान’ को ख़त्म अथवा ‘टुकड़े-टुकड़े’ करने की मंशा से ढेरों ‘गिद्ध’ केवल ताक में ही नहीं बैठे हैं अपितु सतत षड्यंत्र कर रहे हैं और इसे नोच-खसोट रहे हैं। फ़िल्म में बार-बार दिखाई देने वाले हंसिया-हथौड़ा और कामरेडों को ‘वामपंथ की वापसी’ का रास्ता बनाने वाले ‘औज़ार और हथियार’ के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा लगता है मानो ‘कम्युनिज़्म का भूत’ लौट आया है। पूरी फ़िल्म के दौरान बाबासाहब अंबेडकर बार-बार स्मरणीय हैं। सूर्या/ सूरिया (वकील चंद्रु) एक दृश्य में उनके न होने और गांधी-नेहरू के होने का ज़िक्र भी करता है। हमने अंबेडकर को भुला दिया और गांधी-नेहरू को ही स्मरण रखा है। दुर्भाग्य कि अब भी अंबेडकर को समझना शेष है। दो राय नहीं कि देश को बचाना हो तो पूरी प्रामाणिकता से जाति उन्मूलन (अनाइअलेशन) के प्रयास करने होंगे। भारत को एक ईकाई (इंडिया एज़ वन यूनिट) के रूप में खड़ा करना हो तो यह ‘उन्मूलन’ अत्यावश्यक है।
दो राय नहीं कि भारत में ‘जाति’ शब्द का व्यापक अर्थ है। जातियाँ रही हैं परंतु जातियों के बीच एक विशिष्ट ताना-बाना (अपनत्व) रहा है। इस्लाम के आगमन के साथ (बाद) भारतीय सामाजिक ताने-बाने में शनैः-शनैः ध्वंस उत्पन्न किया गया, जो कि ब्रिटिश (ईसाई) काल में अधिक तेज़ और व्यापक हुआ। इस्लाम स्थायित्व पाने के बाद कथित निम्न जातियों के लोगों को येनकेप्रकारेण अपने साथ संबद्ध-संलग्न करता रहा है। उसी का ज्वलंत रूप ‘भीम-मीम एकता’ में दिखाई देता है। यद्यपि जोगेन्द्रनाथ मंडल की दुर्दशा को सबने भुला दिया है। इस दृष्टि से अंबेडकर हमारे मार्गदर्शक हैं। हमें उनके दिखाये मार्ग पर चलने की आवश्यकता है। जोगेन्द्रनाथ मंडल की ही भाँति कमोबेश रूप में पेरियार भी ‘एक भारत’ के पक्षधर नहीं थे। जाति भेद के विरुद्ध उनके कार्यों को देखते हुए भी हमें इस सत्य को जानना-समझना और संभलना चाहिए। व्यापक दृष्टि से पेरियार नहीं, अंबेडकर भारतीय एकता के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
यह भी स्मरणीय है कि इस्लाम से पूर्व भारत में कथित निम्न जातियाँ शासन कर रही थीं। इसके अनेकानेक उदाहरण उपलब्ध हैं। वहीं ऋषि परंपरा में अनेक ऋषि ऐसी ही निम्न जातियों के रहे हैं। कुलमिलाकर यह समझने की नितांत आवश्यकता है कि हमारे संप्रति सामाजिक ताने-बाने को कौन ध्वस्त करना चाह रहे हैं? निस्संदेह आज जाति का औचित्य शेष नहीं रहा। अब अंतर्जातीय रोटी-बेटी के व्यवहार हो रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण ने इस श्राप को लगभग प्रभावहीन कर दिया है। “बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया” वाला दौर चल रहा है। परिवार टूट रहे हैं। ‘सात जनम का साथ’ के कसमे-वादे बेअसर हो रहे हैं। नवविवाहित दम्पति सात महीने क्या, सात दिनों तक साथ नहीं रह पा रहे हैं। अत्यंत विचित्र समय है। ऐसे में ऐसी सामाजिक विघटनकारी फ़िल्म बनाना और रिलीज़ करना, अच्छे संकेत नहीं हो सकते।
फिल्म रिलीज़ का समय ध्यान देने योग्य है। ठीक दीपावली से एक दिन पहले रिलीज़ की गई है। विशेष रूप से ‘हिंदी’ में भी रिलीज़ की गई है। हिंदी में रिलीज़ के साथ ही इसका स्वरूप अविवादित रूप से अखिल भारतीय हो चुका है। अर्थात् तत्कालीन समस्या का प्रभाव केवल वर्तमान तमिलनाडु ही नहीं अपितु पूरे भारतवर्ष पर पड़ेगा। इससे जातिवादी राजनीति अधिक ज़ोर पकड़ सकेगी।
निस्संदेह, भारत में प्रचारित जाति समस्या को नकारा नहीं जा सकता। आज कथित रूप से ऊपर से नीचे तक, सभी उसे बनाए रखने के लिए उद्यत दिखाई देते हैं। कोई भी उसका एंटिटोड नहीं चाहता। साथ-साथ मिशनरियों के जाल और मायाजाल को भी गहराई से देखने-समझने की आवश्यकता है। तमिलनाडु में कथित रूप से ‘जनहितैषी’ सरकारें होने के बावजूद फ़िल्म में चित्रित बदहाली क्यों हुई? यह प्रश्न निश्चय ही उठता है। ‘कर्मण्यवाधिकारस्य’ के मंत्र को भूला कर ‘अकर्मण्यता’ को भरने और बढ़ावा देने वाली द्रविड़ दलीय सरकारों के राजनीतिक दाँव-पेंचों में ‘जन’ की वास्तविक परिस्थिति दयनीय रही है। इसे निश्चय ही नकारा नहीं जा सकता।
किसी भी देश में ‘समता’ कदापि संभव नहीं हो सकती। जो शेष है, उसमें कैसे सुधार किये जा सकते हैं, इसके चिंतन और कार्य से ही देश बच सकता है। हरकोई अपने लिये अधिक-से-अधिक चाहता है। त्याग, संयम और संतोष की जगह अवांछित उच्चाकांक्षा, मोह और संत्रास ने ले ली है। इससे समय रहते उबरने की आवश्यकता है। मोदी सरकार ने कथित निम्न जातियों को अपने कैबिनेट में अधिकाधिक स्थान देकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया है। यह भी सोचना चाहिए कि तमिलनाडु में ‘हिंदू पल्लर’ अनुसूचित जाति के लोग ‘देवेंद्रकुला वेल्लार’ के नाम से सामान्य वर्ग में वर्गीकृत होना चाहती हैं। किसी को भी ‘पिछड़ा’ कहना-कहलाना कैसे अच्छा लग सकता है? निश्चय ही नए भारत के लिए नई दृष्टि की आवश्यकता है। यदि हमें जाति भेद समाप्त करना हो तो जाति प्रचार रोकना होगा।
आज विकास की दृष्टि अपनाते हुए भारतीयता को जीवन प्रदान करने वाली, एकता को बढ़ावा देने वाली, समरसता का प्रचार-प्रसार करने वाली, आदर्श समाज की परिकल्पना को बृहत् रूप देने वाली फ़िल्मों की आवश्यकता है। मनुष्य जीवन का सार-सौंदर्य एकता एवं सौहार्द में है, विघटन, विध्वंस, विखंडन में नहीं। जयशंकर प्रसाद स्मरणीय हैं – “समरस थे जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था। चेतनता एक विलसती आनन्द अखंड घना था।।“ हमारे मुक्तिमार्ग के सेतु सौहार्द, समन्वय एवं समरसता ही हो सकते हैं।
डॉ. आनंद पाटील, हिन्दी विभाग,
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
तिरुवारूर-610 005
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