Sunday, November 24, 2024
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भारतीय चिंतन परंपरा का मौलिक तत्व

भारतीय चिन्तन एवं पाश्चात्य चिन्तन में मूलभत अन्तर है। भारतीय चिन्तन अभेदात्मक, समन्वयात्मक, सहयोगत्मक और पदार्थ, प्राण, मन, विज्ञान से भी परे आत्म चेतना का साक्षात्कार है तथा सांस्कृतिकचेतना की दृष्टि से पूरी वसुधा को अपना कुटुम्ब मानने में विश्वास करता है (वसुधैव कुटुम्बकम्) भारतीय परम्परा मानती है कि ईसा से छह हजार वर्ष पूर्व जब सम्पूर्ण पृथ्वी लोक में जलप्रलय हुई थी तो भारतीय परम्परा पाश्चात्य चिन्तन की तरह डारनिवन के तथाकथित विकासवाद में विश्वास नहीं करती कि अवनत जीवों से मनुष्य का विकास हुआ है। भारतीय परम्परा मानती है कि जलप्रलय के बाद भारत के हिमाचल प्रदे श में मनाली से 20 मील दूर की पहाड़ी पर एक पुरूष बच गया था। सृष्टि में एक नारी भी बच गयी थी। और इन्ही दोनों ने मिलकर नया भारत महाद्वीप बनाया।

पाश्चात्य चिन्तन भेदात्मक, विश्लेषणात्मक, तर्क प्रधान, एवं जीवन शैली भोतिकवादी रही है।

अपनी भेदात्मक, विश्लेषणात्मक दृष्टि के कारण जब पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन करते हैं तो परस्पर भेद दिखाने पर बल देते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी क्षेत्र की उपभाषाओं को भाषा का दर्जा दे देते हैं। इसी प्रकार हिन्दी एवं उर्दू में केवल लिपि का अन्तर है। दोनों एक भाषा की दो शैलियाँ हैैं। विश्व में जिस प्रकार चीन बहुभाषिक देश है, उसी प्रकार भारत बहुभाषिक देश है। जिस प्रकार मंदारिन की अनेक परस्पर आंशिक बोधगम्य उपभाषाओं के स्तरों पर अध्यारोपित व्यवहारिक मंदारिन के माध्यम से सम्पूर्ण चीन के नागरि क संंवाद कर पाते है, उसी प्रकार हिन्दी की अनेक एकतरफा बोधगम्य उपभाषाषाओ के स्तरों पर अध्यारोपित व्यवहारिक हिन्दी के माध्यम से सम्पूर्ण भारत के नागरिक संवाद कर पाते हैं।

वर्तमान में विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या तीन करोड़,उन्सठ लाख, सत्तर हजार है। विश्व में व्यवहारिक हिन्दी मातृभाषियों की संख्या सात करोड, सत्ताइस लाख, सत्तर हजार है। (देखे – THE WORLD LANGUA ALMANAC AND BOOK OF FACTS 2022,P.720) ं1 इसमें हिन्दी, उर्दू और हिन्दी क्षेत्र की एकतरफा बोधगम्य उपभाषाएँ समाहित हैं। व्यवावहारिक हिन्दी का प्रयोग विश्व के कम से कम 160 देशों में होता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान काल में आधुनिक भारतीय भाषाएँ एवं आधुनिक भारतीय तथाकथित द्रविड़ भाषाऔं में एकता है,

Professor Mahavir Saran Jain
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
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