पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर यानी पीओके में कृष्णगंगा नदी के तट पर नियंत्रण रेखा से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्राचीन शारदा मन्दिर, शक्तिपीठ और शारदा पीठ विश्वविद्यालय कश्मीर की संस्कृति का प्राण व पहचान रहे हैं। प्राचीन शारदा लिपि का विकास केन्द्र होने के साथ ही यह शक्ति पीठ देश के 18 महाशक्तिपीठों में एक है
शारदापीठ मन्दिरऔर शारदापीठ विश्वविद्यालय के कारण ही कश्मीर का एक प्राचीन नाम शारदा-देश भी रहा है। इसी कारण मां शारदा कश्मीर—वासिनी कही जाती हैं। यहीं आदि शंकराचार्य का भी देश के तत्कालीन 72 विद्यापीठों (विश्वविद्यालय समकक्ष संस्थानों व मत-पथों) के प्रमुखों से ऐतिहासिक शास्त्रार्थ भी हुआ था। इसमें विजय मिलने पर उन्हें जगद्गुरु की उपाधि दी गई थी और तभी उन्होंने इसे सर्वज्ञपीठ कहा था। 14वीं सदी में सिकन्दर मीरी द्वारा ध्वस्त किए जाने तक शारदापीठ विश्वविद्यालय 5,000 आवासीय विद्यार्थियों के लिए विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था।
सिकन्दर मीरी द्वारा ध्वंस
सिकन्दर मीरी ने सम्पूर्ण कश्मीर को मन्दिर व मूर्ति—विहीन किया और लोगों के घरों में स्थापित मूर्तियां तक नहीं छोड़ी थीं। इसलिए उसे सिकन्दर बुतशिकन कहा गया है। उसी सिकन्दर ने 14वीं सदी में 5,000 विद्यार्थियों के इस आवासीय विद्यापीठ को ध्वस्त किया था। इसके ग्रंथों को जलाया और मतान्तरित नहीं होने वाले ब्राह्मणों पर जजिया कर लगाया। उसी ने कश्मीर का मार्तण्ड सूर्य मन्दिर, विजयेश्वर शिव मन्दिर, चक्रधर विष्णु मन्दिर, सुरेश्वरी मन्दिर, वाराह मन्दिर, त्रिपुरेश्वर मन्दिर, परिहास्पुर के तीन मन्दिर, तारापीठ, महा श्री मन्दिर आदि ध्वस्त किए थे। कश्मीर की महात्मा बुद्ध की अष्टधातु की मूर्ति को तो गलाकर उसके सिक्के ढलवा दिए थे। कश्मीर के मार्त्तण्ड सूर्य मन्दिर संकुल को तोड़ने में उसे 2 वर्ष लगे थे। वह 1389 से 1413 तक कश्मीर का शासक रहा।
मां शारदा के प्रभाव से सिकन्दर मीरी के पुत्र और उसके बाद बने कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया। वह उनके दर्शन के लिए भी वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने पिता सिकंदर द्वारा किए हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की पुस्तकों में आता है कि मां शारदा की उपासना में वह इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी। उसने मन्दिर के लिए आर्थिक सहायता भी दी थी।
भौगोलिक स्थिति व पौराणिक विवरण
शारदा पीठ कुपवाड़ा जिले से मात्र 30 किमी और श्रीनगर से 130 किमी दूरी पर है। किशनगंगा उपाख्य कृष्णगंगा व झेलम नदियों के संगम पर स्थित इस पीठ पर देशभर से लाखों तीर्थयात्री मां शारदा की अर्चना और यहां के अति विशाल पुस्तकालय से सन्दर्भ ग्रहण करने हेतु विद्वान आते थे। पाकिस्तान ने कृष्णगंगा का नाम नीलम नदी कर दिया है। नीलमत पुराण, 11वीं सदी के कवि बिल्हण, 12वीं सदी में रची कल्हण की राजतरंगिणी, 14वीं सदी के माधवीय शंकर दिग्विजय आदि ग्रंथों में शारदापीठ धाम, शक्ति पीठ और वहां स्थित विद्यापीठ अर्थात् विश्वविद्यालय के प्राचीन सन्दर्भ मिलते हैं। राजतरंगिणी के अनुसार महाराजा ललितादित्य (713-755) के शासन में इस विश्वविद्यालय में देश/विदेश से शिक्षार्थी आते थे।
विशाल ग्रंथागार—युक्त विश्वविद्यालय
5,000 वर्ष से भी प्राचीन इस विश्वविद्यालय को सम्राट अशोक के राजकोष से मिली सहायता के अभिलेखों सहित राजा ललितादित्य के काल में यहां विद्याध्ययन व ग्रंथों के प्रतिलिपिकरण हेतु बंगाल के गौड़ साम्राज्य से भी विद्वानों के आने के सन्दर्भ हैं। 11वीं सदी के पाटण के व्याकरणाचार्य हेमचन्द्राचार्य ने भी व्याकरण का ज्ञान यहीं से प्राप्त किया था। 14वीं सदी में इसे जिहाद के नाम पर जला डालने के पहले इस विश्वविद्यालय का पुस्तकालय देश का ऐसा विशालतम पुस्तकालय रहा था, जहां हजारों ऐसी पाण्डुलिपियां व ग्रंथ संग्रहीत थे, जो नालन्दा व तक्षशिला में भी नहीं थे। शारदा लिपि, जिसमें देवनागरी के बाद सर्वाधिक प्राचीन पाण्डुलिपियां मिली हैं, यहीं विकसित हुई थी। लेकिन इस लिपि का उद्गम शारदा पीठ में नहीं हुआ है। ईसा पूर्व 1300-1900 की ऋग्वेद की अर्थात् 4000 वर्ष प्राचीन प्रतिलिपियां, जो शारदा लिपि में मिली हैं, उन्हें यूनेस्को ने भी विश्व विरासत में सूचीबद्ध किया है। व्हेनसांग ने 632 ईस्वी में इस स्थान की यात्रा की थी और उसने भी इस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय व आचार्यों की विद्वता व पाण्डुलिपि संग्रह की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।
11वीं शताब्दी में वैष्णव संत स्वामी रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य लिखने पर काम शुरू करने से पहले ब्रह्मसूत्रों का अध्ययन करने के लिए श्रीरंगम से शारदा पीठ की यात्रा की थी। चूंकि शारदा पीठ एकमात्र ऐसी जगह थी जहां अत्यन्त विशाल पुस्तकालय था जहां इस तरह के सभी ग्रंथों को उनके पूर्ण रूप संकलित किया गया था। इसलिए 13वीं सदी के आचार्य हेमचंद्र ने पाटण के राजा जयसिंह सिद्धराज से अनुरोध किया कि वे वहां संरक्षित पाणिनी की पूर्ववर्ती उन आठ संस्कृत व्याकरण ग्रंथों की प्रतियां प्राप्त करने के लिए एक विद्वानों की टीम भेजें। उन्होंने इन व्याकरणों के आधार पर उनका सरलीकरण कर रचा था।
शक्तिपीठों में महाशक्ति पीठ
शारदापीठ उन 18 शक्तिपीठों में है, जिन्हें महाशक्तिपीठ माना जाता है। यहां माता सती के दाहिने हाथ का निपात हुआ था। पाकिस्तान में एक और शक्तिपीठ हिंगलाज माता का है। हिंगलाज में माता सती के मस्तक का निपात हुआ था। यह स्थान बलूचिस्तान के लासबेला जिले में एक छोटी—सी प्राकृतिक गुफा में है। हिंगलाज क्षेत्र में स्थित और भी कई मन्दिर हैं। इनमें गणेश मन्दिर, काली माता मन्दिर, गोरखनाथ की धूणी, ब्रह्म कुण्ड, तीर कुण्ड, गुरू नानक खारों, राम झरोखा बैठक, अनील कुण्ड-चौरासी पर्वत, चन्द्र कूप आदि प्रमुख हैं। हिंगलाज माता को नानी का मन्दिर कहकर मुस्लिम भी वहां की यात्रा करते हैं और शारदा माई के रूप में मानकर शारदापीठ पर भी आते हैं।
विदेशी व मुस्लिम इतिहासकारों के विवरण
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि शारदा पीठ पर उसने ऐसे विद्वान देखे, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उसके यात्रा वृत्तांत के अनुसार शारदा पीठ के पास ही तब एक बहुत बड़ी विद्यापीठ थी। यहां कई सहस्त्र वर्षों से भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन विशाल मेला लगता था। तब यहां भारत के कोने-कोने से सरस्वती के उपासक साधना हेतु आते थे। इसीलिए भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी कहा जाता है। शारदा महाशक्तिपीठ के चमत्कारों के बारे में मुस्लिम इतिहासकारों ने भी बहुत लिखा है। 16वीं सदी में अबुल फजल ने ह्यआइने अकबरीह्य में लिखा है कि अष्टमी तिथि को मन्दिर के भवन में कम्पन और वहां उपस्थित लोगों को विशेष ऊर्जा का संचार अनुभव होता था। अब तो प्राचीन मन्दिर के कुछ अवशेष ही बचे हैं।
गैर-हिंदुओं में भी श्रद्धा
इतिहासकार जोनाराजा ने लिखा है 1422 ई में कश्मीरी मुस्लिम सुल्तान जैनुल-आबेदीन ने शारदापीठ में देवी के दर्शन के लिए मंदिर का दौरा किया, लेकिन उसे देवी विग्रह के दर्शन नहीं हुए। हताशा में वह मंदिर के आंगन में सो गया, तब उसे सपने में देवी के दर्शन हुए। 16वीं शताब्दी में ‘अबुल-फजल इब्र मुबारक’ मुगल बादशाह अकबर के वजीर ने शारदा पीठ को ‘‘पत्थर का मंदिर….. महान सम्मान के साथ माना जाता है’’ के रूप में वर्णित किया। उन्होंने मंदिर में चमत्कारों में लोकप्रिय धारणा का भी वर्णन किया।
आदिशंकराचार्य का आगमन
मन्दिर जब अस्तित्व में था, तब वहां अति विशाल मण्डप था, जिसके 4 द्वार थे। स्थल पुराण के विवरणों के अनुसार दो द्वार तभी खोले जाते थे, जब कोई अत्यन्त ज्ञान सम्पन्न विद्वान वहां आता था। दक्षिण द्वार तो विगत 2000 वर्ष में आठवीं सदी में केवल आदि शंकराचार्य के लिए ही खोला गया था। मां ने उन्हें दर्शन देकर हिन्दू संस्कृति व जाति को बचाने का आशीर्वाद भी दिया। ऐसे विवरण भी मिलते हैं कि यह सरस्वती पीठ निजामाबाद के बासर के श्री ज्ञान सरस्वती मन्दिर से प्राचीन है।
शांडिल्य ऋषि को आशीर्वाद
ऋषि शांडिल्य के माता-पिता को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ था जिसका नाम उन दंपति ने शांडिल्य रखा था। शांडिल्य बड़ा प्रतिभावान बालक था। उसकी विद्वता को देखकर स्थानीय ब्राह्मणों ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार करने में असमर्थता जता दी तब ऋषि वशिष्ठ ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर उन्हें मां शारदा की साधना करने का परामर्श दिया। उन्होंने ऐसा ही किया। उनकी साधना से सन्तुष्ट होकर मां शारदा ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए। मां ने उन्हें शारदा वन खोजने की सलाह दी। शांडिल्य की पूरी यात्रा चमत्कारी अनुभवों से भरी थी। रास्ते में उन्हें एक पहाड़ी के पूर्वी हिस्से में भगवान गणेश के दर्शन हुए। जब वे नीलम नदी के पास पहुंचे, तो उन्होंने उसमें स्नान किया और देखा कि उनका शरीर दिव्य कान्ति युक्त हो गया। आखिरकार देवी शारदा, सरस्वती और वाग्देवी अपने तीन रूपों में प्रकट हुईं।
शारदा पीठ में पूजा की जाने वाली देवी शक्ति का त्रिपक्षीय अवतार हैं। शारदा (सीखने की देवी), सरस्वती (ज्ञान की देवी) और वाग्देवी (भाषण की देवी, जो शक्ति को व्यक्त करती हैं)। आज भी कई जातियों में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है। भारत के कई स्थानों पर यज्ञोपवीत संस्कार के समय बटुक को कहा जाता है कि तू शारदापीठ जाकर ज्ञानार्जन कर। तब सांकेतिक रूप से वह बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ाता है और कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वह विद्वान बनकर वहां से लौट रहा है। पूर्व समय में यह सांकेतिक संस्कार वास्तविकता थी। ब्रह्मचारी बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था। 9वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से देवी शारदा की चार भुजाओं वाली मूर्ति के प्रमाण उपलब्ध हैं। मंदिर के बारे में प्राचीन शारदा सहस्त्रनाम पांडुलिपि है, जिसे शारदा लिपि में लिखा गया है, और शारदा मंदिर के अंतिम पुरोहित द्वारा उसका प्रतिलिपिकरण किया गया था। इसमें ऋषि शांडिल्य द्वारा शारदा क्षेत्र में एक भव्य यज्ञ करने का भी वर्णन है।
पुनरुद्धार के प्रयास
महाराजा गुलाब सिंह ने 1846 में मन्दिर के पुनर्निर्माण की पहल की थी। 8 अक्तूबर, 2005 के भूकम्प में भी मन्दिर को भारी क्षति हुई। कनिष्क (78-144 ईस्वी) के काल में व महाराज ललितादित्य के शासन काल (724-760) में भी इस विश्वविद्यालय में कई नवीन निर्माण हुए थे। मुगल और अफगान शासन के दौरान नीलम घाटी पर बोम्बा जनजाति के मुस्लिम प्रमुखों का शासन था और तीर्थयात्रा का महत्व कम हो गया। डोगरा शासन के दौरान पूजा-अर्चना के लिए इसने अपना स्थान वापस पाना आरम्भ किया था, जब महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर की मरम्मत की और गौथेंग ब्राह्मणों को एक मासिक वेतन भी समर्पित किया। कश्मीरी पंडितों का मानना है कि शारदा तीर्थयात्रा शांडिल्य की यात्रा के समानांतर है, और नीलम नदी और मधुमती धारा के संगम में स्नान करने का कार्य तीर्थयात्री को उनके पापों से मुक्त करता है। 1947 में कश्मीरी संत स्वामी नंदलाल जी ने मन्दिर के कुछ अवशेष, जिनमें पत्थर की कुछ मूर्तियां थीं,कुपवाड़ा के टिक्कर में स्थानांतरित कर दिया। उनमें से कुछ को बाद में बारामूला के देवीबल ले जाया गया।
2007 से ही करतारपुर गलियारे जैसा शारदा पीठ गलियारे बनवाने की मांग उठ रही है। 25 मार्च, 2019 को पाकिस्तान ने इसकी प्रारम्भिक सहमति भी दे दी थी, लेकिन उसके बाद उसने अचानक अपने पैर खींच लिए।
शारदा पीठ की पवित्र मिट्टी
श्रीराम मंदिर के भूमि पूजन के लिए हांग-कांग के रास्ते शारदापीठ की पवित्र मिट्टी भी लाई गई। उल्लेखनीय है कि 5 अगस्त,2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर का भूमि पूजन किया था। इसके लिए पाकिस्तानी सरकार को भ्रमित कर शारदापीठ से भी मिट्टी लाई गई थी। यह काम हांगकांग में रहने वाले भारतवंशी दंपति ने चीन के पासपोर्ट पर पूरा किया।
मन्दिर का स्थापत्य
यह मंदिर कश्मीरी स्थापत्य शैली में लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था। मंदिर की वास्तुकला के ऐतिहासिक अभिलेख दुर्लभ हैं। ब्रिटिश पुरातत्वविद् आॅरेल स्टीन ने 19 वीं शताब्दी के अंत में मंदिर की दीवारों के अवशेषों को देखकर उसके विवरण तैयार किए हैं। तब उनकी ऊंचाई लगभग 20 फीट थी और इसके स्तंभ लगभग 16 फीट ऊपर उठ रहे थे। उनके अनुसार यह परिसर एक पहाड़ी पर स्थित था, जो एक भव्य पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से पश्चिम की ओर पहुंचता था। चारदीवारी के बाहर से भी मंदिर भव्य प्रतीत होता रहा होगा। दीवार के उत्तर की ओर एक छोटा—सा गुफा जैसा विवर था, जिसमें दो प्राचीन शिवलिंग थे। मन्दिर के तहखाने का आंतरिक क्षेत्र 12.5 गुणा 12.5 फीट था, जो एक वर्ग बनाता था। इसमें 6 फीट गुणा 7 फीट का एक बड़ा स्लैब था जहां देवी शारदा ने ऋषि शांडिल्य को दर्शन दिए थे।
शारदा पीठ गलियारे की मांग
2007 से ही करतारपुर गलियारे जैसा शारदापीठ गलियारे बनवाने की मांग उठ रही है। 25 मार्च, 2019 को पाकिस्तान ने इसकी प्रारम्भिक सहमति भी दे दी थी, लेकिन उसके बाद उसने अचानक अपने पैर खींच लिए। इस दृष्टि से पाकिस्तान में सभी प्रमुख हिन्दू मन्दिरों के दर्शन-अर्चन के लिए एक परिपथ या सर्किट के प्रयास किए जाने आवश्यक हैं। इनमें हिंगलाज शक्तिपीठ, मुल्तान में प्रहलादपुरी का नृसिंह मन्दिर, मुल्तान का सूर्य मन्दिर, कटासराज मन्दिर सहित अनेक स्थान हैं।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
साभार- https://www.panchjanya.com/i से