चीन की एक विशेष आदत है, पहिले तो वह आर्थिक सहायता के नाम पर भारी भरकम राशि कर्ज के रूप में उपलब्ध कराता है और फिर उस कर्ज की किश्त समय पर अदा न किए जाने पर उस किश्त की राशि और ब्याज को अदा करने के लिए एक नया कर्ज, पुनः आर्थिक सहायता के नाम पर, उपलब्ध कराता है और अंत में यदि वह देश किश्तें एवं ब्याज की राशि को चीन को अदा नहीं कर पाता है तो चीन उस देश की सम्पत्तियों पर कब्जा करना शुरू कर देता है। जिस देश को आर्थिक सहायता के नाम पर कर्ज की राशि उपलब्ध कराई गई थी वह ठगा सा महसूस करने लगता है। अब पछताए होत क्या, जब चिढ़िया चुग गई खेत। इसी स्थिति में भारत के दो पड़ौसी देश, श्रीलंका और पाकिस्तान, आजकल चीन के जाल में बुरी तरह से फंस चुके हैं। अब तो चीन की विस्तरवादी नीति के छुपे एजेंडे के अंतर्गत उसके द्वारा चलाई जा रही कूटनीतिक चालें कई अन्य देशों को भी बर्बादी के कगार पर ले जाती दिख रही हैं और यह धीरे धीरे अब प्रभावित देशों को भी समझ में आने लगा है।
आईए सबसे पहिले बात श्रीलंका की करते हैं। श्रीलंका जब तक भारत के साथ अपने संबंधो को मजबूती के साथ बनाए रहा, भारत की ओर से उसको भरपूर सहायता एवं सहयोग मिलता रहा और श्रीलंका सुखी एवं सम्पन्न राष्ट्र बना रहा क्योंकि भारत ने कभी भी श्रीलंका की किसी भी मजबूरी का गलत फायदा उठाने की कोशिश नहीं की। इसके ठीक विपरीत जब श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन के चलते उनकी नजदीकियां चीन से बढ़ने लगीं तो स्वाभाविक तौर पर आर्थिक रिश्ते भी चीन के साथ ही होने लगे। चीन ने इसका फायदा उठाकर एक तो श्रीलंका को अपनी सबसे बढ़ी बेल्ट एवं रोड परियोजना में शामिल किया एवं श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को विकसित करने हेतु चीन ने श्रीलंका को भारी मात्रा में कर्ज उपलब्ध कराया। इस बंदरगाह को दुनिया का सबसे बड़ा बंदरगाह बनाने की योजना बनाई गई थी जबकि इस बंदरगाह पर माल की बहुत बड़े स्तर की आवाजाही ही नहीं बन पाई।
लगभग 1.4 अरब डॉलर की भारी भरकम राशि खर्च कर बंदरगाह तो बन गया पर इस बंदरगाह से आय तो प्रारम्भ हुई ही नहीं फिर कर्ज की अदायगी कैसे प्रारम्भ होती। अतः श्रीलंका, चीन के मकड़जाल में बुरी तरह से फंस गया। इस ऋण की किश्तें समय पर अदा करने एवं अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए श्रीलंका ने चीन से पिछले वर्ष भी एक अरब डॉलर का नया कर्ज लिया है। साथ ही चीन की कई वित्तीय संस्थानों एवं सरकारी बैंकों से भी श्रीलंका ने वाणिज्यिक शर्तों पर ऋण लिया। इस सबका परिणाम यह हुआ है कि आज श्री लंका के कुल विदेशी कर्ज का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा रियायती ऋण के नाम पर चीन से लिया गया कर्ज है। श्रीलंका सरकार ने हंबनटोटा बंदरगाह का नियंत्रण भी चीन को 99 वर्षों के लिए पट्टे पर दे दिया है और इस प्रकार आज चीन की श्रीलंका में हंबनटोटा से कोलम्बो तक आसान उपस्थिति हो गई है। कहने को तो चीन ने श्रीलंका को कर्ज की राशि रियायती दरों पर उपलब्ध कराई है परंतु जब श्रीलंका ने अगस्त 2021 में राष्ट्रीय आर्थिक आपातकाल की घोषणा की थी तब यह बात भी उभरकर सामने आई थी कि जहां एशियाई विकास बैंक लम्बी अवधि के ऋण 2.5 प्रतिशत की ब्याज दर पर उपलब्ध कराता है वहीं चीन ने श्रीलंका को कुछ ऋण 6.5 प्रतिशत की ब्याज दर पर उपलब्ध कराए हैं। उक्त वर्णित परिस्थितियों में तो श्रीलंका को चीन के जाल में फंसना ही था और ऐसा हुआ भी है। दो दशकों से जिस चीन के निवेश और भारी-भरकम कर्ज ने श्रीलंका को इस स्थिति में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है, वही चीन अब श्रीलंका में आए संकट के समय वहां से भाग खड़ा हुआ है।
आज श्रीलंका बहुत ही विपरीत परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है एवं वहां की जनता भारी परेशानियों का सामना कर रही है ऐसे में केवल भारत ही श्रीलंका की वास्तविक मदद करता नजर आ रहा है। चाहे वह अनाज, तेल आदि जैसे पदार्थों को श्रीलंका की जनता को उपलब्ध कराना हो अथवा श्रीलंका सरकार को एक अरब डॉलर की आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना हो। भारत आज श्रीलंका के लिए एक देवदूत की रूप में उभरा है। भारत ने श्रीलंका को अभी तक 40 हजार मीट्रिक टन डीजल एवं 40 हजार टन चावल उपलब्ध कराए हैं। भारत ने इसी प्रकार तालिबान के शासन वाले अफगानिस्तान को भी मानवीय आधार पर 50 हजार टन गेहूं, 13 टन जीवनरक्षक दवाइयां, चिकित्सीय उपकरण और पांच लाख कोविड रोधी टीकों की खुराकों के साथ अन्य आवश्यक वस्तुएं (ऊनी वस्त्र सहित) भी उपलब्ध कराईं हैं। अब तो भारत के सभी पड़ौसी देशों को भी यह समझने में आने लगा है कि केवल भारत ही उनके आपत्ति काल में उनके साथ खड़े रहने की क्षमता रखता है।
ठीक श्रीलंका की तरह चीन ने पाकिस्तान को भी बुरे तरीके से अपने जाल में फंसा लिया है। कहने को तो दोनों देश एक दूसरे को राजनैतिक एवं कूटनैतिक साझेदार मानते हैं परंतु वास्तविकता तो यही है कि आज पाकिस्तान भी चीन से उच्च ब्याज दरों पर लिए गए ऋण का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। पाकिस्तान तो चीन के रोड एवं बेल्ट परियोजना का अहम साझीदार भी है एवं चीन ने लगभग 50 अरब डॉलर की राशि का खर्च पाकिस्तान में करने की योजना बनाई हुई है, इसमें से बहुत बड़ी राशि का खर्च किया भी चुका है। परंतु, पाकिस्तान को अभी तक कोई भी आय इन परियोजनाओं से प्रारम्भ नहीं हुई है। ऐसे में, किश्तों एवं ब्याज की राशि का भुगतान कैसे प्रारम्भ होगा। इसी प्रकार चीन, लाओस को भी अपने कर्ज जाल का शिकार बनाकर उस पर अपना कब्जा स्थापित करने के प्रयास कर रहा है। आज लाओस का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी नीचे पहुंच जाने के चलते क्रेडिट रेटिंग संस्था मूडीज ने लाओस को एक जंक राज्य घोषित कर दिया है। कुछ समय पूर्व तक नेपाल ने भी चीन की ओर अपना झुकाव बढ़ा दिया था परंतु नेपाल को शीघ्र ही चीन की कूटनीतिक चालों की समझ आ गई है जिसके चलते नेपाल ने अब इस सम्बंध में संतुलित रूख अपना लिया है।
श्रीलंका, पाकिस्तान एवं लाओस के तो केवल उदाहरण ही दिए गए हैं परंतु दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई अन्य देशों यथा ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, लाओस, थाईलैंड, पूर्वी तिमोर, ताईवान और वियतनाम आदि को भी चीन से बहुत समस्याएं हैं। चीन अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा के चलते इन देशों के भू-भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता है जिसका कि ये सभी देश विरोध कर रहे हैं। आज यही कारण है कि आसियान (दक्षिण पूर्वी एवं एशियाई देशों का संगठन) के सदस्य देश चीन की विस्तरवादी नीतियों के विरुद्ध अपनी आवाज उठाने लगे हैं। वियतनाम के स्पार्टली और पार्सल द्वीप समूह, फिलीपींस का स्कारबोरो शोल द्वीप, इंडोनेशिया का नतुना द्वीप सागर क्षेत्र और ताईवान पर चीन पर अपना दावा स्थापित करने से इन देशों के साथ चीन की विवाद की स्थिति बनी हुई है।
उक्त वर्णित लगभग सभी देशों का भारत पर विश्वास अब बढ़ता जा रहा है एवं वे भारत की सहायता से अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने के ओर अग्रसर हैं। जैसे कि फिलीपींस ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के उद्देश्य से भारत से 37.49 करोड़ डॉलर के ब्राह्मोस मिसाईल क्रय करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। भारत से ब्राह्मोस मिसाईल खरीदने के सम्बंध में इसी प्रकार के निर्णय वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और सिंगापुर भी शीघ्र ही लेने वाले हैं। वैसे अगर इतिहास की दृष्टि से देखा जाय तो इन सभी देशों के भारत के साथ सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रिश्ते बहुत गहराई तक रहे हैं। अब भारत इन सभी देशों के साथ अगस्त्य ऋषि और उनकी परम्परा में कम्बु, कौंडिनय और चोल राजा राजेंद्र के भारतीय संस्कृति के अपने हजारों वर्षों पुराने संबंधो को पुनर्जीवित कर सकता है। सांस्कृतिक विरासत के साथ साथ इन देशों की आर्थिक सोच और व्यवस्था भी भारत की सोच से मिलती जुलती है इसलिए भी इन देशों के आर्थिक विकास में भारत एक महत्वपूर्ण भागीदार बनकर उभर सकता है।
विदेशी आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के शासन काल में भारत की महान संस्कृति का भारी नुक्सान किया गया है। हममें हमारी अपनी महान संस्कृति का विस्मृति बोद्ध उत्पन्न कर विदेशी संस्कृति की महानता का बोध कराया गया जिसे हमने अपने आप में आत्मसात भी कर लिया था। लेकिन अब भारत में ऐसी स्थितियां निर्मित होती जा रही हैं जिसके अंतर्गत हमें अपनी सनातन संस्कृति से न केवल परिचय हो रहा है बल्कि पूरा विश्व भी अब भारत की महान सनातन संस्कृति की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है एवं यह महसूस कर रहा है कि अब केवल भारत के नेतृत्व में ही वैश्विक समस्याओं का हल सम्भव है। विशेष रूप से दक्षिण एशिया एवं अफ्रीका के कुछ देशों को, जिनके साथ भारत का ऐतिहासिक जुड़ाव रहा है, भारत अपने साथ रखकर ही भारत की संस्कृति को पुनः पूरे विश्व में फैलाकर पूरे विश्व में आतंकवाद को हटाकर शांति एवं भाईचारा स्थापित कर सकता है।
प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
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