हिंदू समाज न केवल आठवीं शताब्दी से मजहबी ‘असहिष्णुता’ का शिकार हो रहा है, अपितु सदियों बाद भी वे उन क्षेत्रों में सर्वाधिक ‘असुरक्षित’ है, जहां का मूल बहुलतावादी हिंदू चरित्र नगण्य हो चुका है। ऐसा नहीं है कि मूल भारतीय समाज में वीरता, पराक्रम और संघर्ष करने की क्षमता का कोई नितांत आभाव है, वास्तविक चिंता का विषय तो समाज के एक वर्ग में चैतन्य की कमी और अपनी आधारभूत संस्कृति-पहचान प्रति हीनभावना से ग्रस्त होना है।
स्वतंत्र भारत में कौन है सर्वाधिक असुरक्षित? क्या इस प्रश्न का उत्तर हालिया घटनाक्रम और उसके पीछे की विषाक्त मानसिकता में निहित नहीं? बीते रविवार (10 अप्रैल 2022) को क्या हुआ? दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में करोड़ों हिंदुओं के लिए पवित्र रामनवमी के दिन पूजा को बाधित करने के साथ मध्यप्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल और झारखंड आदि राज्यों के क्षेत्रों में भजन-कीर्तन के साथ निकाली गई शोभायात्राओं पर पथराव आगजनी की खबरें आई। इन घटनाओं का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बचाव करने या फिर उसपर मौन रहने वाले वर्ग का तर्क है कि आखिर ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ से शोभायात्रा निकालने और ‘सेकुलर शिक्षण संस्थान’ में पूजा करने की आवश्यकता ही क्या थी? सच तो यह है कि इस प्रकार का घटनाक्रम कश्मीर के शत-प्रतिशत हिंदूमुक्त होने के आधारभूत कारण को समझने में सहायता करता है।
मध्यप्रदेश में खरगोन और सेंधवा में रामनवमी शोभायात्रा के दौरान पत्थरबाजी, आगजनी के साथ पेट्रोल बम फेंके गए। जैसे ही खरगोन के तालाब चौक क्षेत्र में श्रीरामनवमी की शोभायात्रा के पहुंची, तो उग्र मुस्लिम भीड़ ने पथराव कर दिया। बकौल मीडिया रिपोर्ट, इसके बाद अलग-अलग क्षेत्रों में भी पत्थरबाजी शुरू हो गई। गोशाला मार्ग पर कुछ घरों में आगजनी, तो शीतला माता मंदिर में तोड़फोड़ की गई। बड़वानी जिले के सेंधवा स्थित जोगवाड़ा सड़कमार्ग पर मुख्य रामनवमी जुलूस में शामिल होने जा रहे श्रद्धालुओं पर पथराव के बाद भगदड़ मच गई।
गुजरात में साबरकांठा स्थित हिम्मतनगर के छपरिया क्षेत्र में जब रामनवमी पर जुलूस निकाला जा रहा था, तभी उसपर अचानक पथराव हो गया। इसमें हमलावरों ने उपद्रव को नियंत्रित करने पहुंचे पुलिसकर्मियों के वाहनों को भी नुकसान पहुंचाया। गुजरात के ही आणंद के खंभात के निकट भी शोभायात्रा के दौरान पथराव हुआ, जिसके बाद उपद्रवियों ने कई दुकानों और मकानों को आग के हवाले कर दिया। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में शोभायात्रा जब हावड़ा रामकृष्णपुर घाट पर पहुंची, तब शिवपुर थाना अंतर्गत आने वाले पीएम बस्ती इलाके में दंगाइयों ने श्रद्धालुओं पर अचानक हमला कर दिया। प.बंगाल के बांकुड़ा में भी स्थिति हावड़ा से अलग नहीं थी।
झारखंड के लोहरदगा और बोकारो में भी रामनवमी के दिन शोभायात्रा पर पथराव और आगजनी के साथ हिंसक घटना हुई। रांची से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस पर भी पत्थर फेंके गए। लोहरदगा के सदर थाना क्षेत्र के हिरही गांव में शोभायात्रा पर पत्थर फेंकने के बाद उपद्रवियों ने रामनवमी मेले में खड़ी 10 मोटरसाइकिलों, तीन ठेलों, एक टेंपो, चार साइकिलों और कई दुकानों में आग लगा दी। इससे पहले पवित्र चैत्र नवरात्रि के पहले दिन (2 अप्रैल 2022) नव-संवत्सर अर्थात् हिंदू नववर्ष पर राजस्थान के करौली में निकाली गई बाइक रैली में भी पत्थर फेंके गए थे। जैसे ही यह जुलूस करौली के विभिन्न मार्गों से होते हुए मुस्लिम बहुल क्षेत्र ‘हटवारा बाजार’ पहुंचा, उसपर घर की छतों से पथराव शुरू हो गया। देखते ही देखते एक बाइक और छह दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया।
राष्ट्रीय राजधानी भी घृणा प्रेरित हिंसा से अछूती नहीं रही। रामनवमी के दिन जहां शोभायात्राओं पर हमला करने वालों, जोकि ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित है- को पहचानना आसान है, वही दिल्ली स्थित जेएनयू का एक और हालिया हिंसक घटनाक्रम और वहां का भारत-हिंदूविरोधी वातावरण- इसके उद्गमकाल से खून चूसने वाले जोंक की भांति चिपका, वामपंथी दर्शन स्वाभाविक बनाता है। जेएनयू में रामनवमी के दिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का छात्रसमूह ने पूर्वनिर्धारित सूचना के साथ कावेरी छात्रावास में हवनयज्ञ पूजा का आयोजन किया था। उस दिन जेएनयू में रोजा-इफ्तार का भी आयोजन किया जा रहा था और आपसी सहमति के साथ केवल कावेरी छात्रावास को छोड़कर शेष छात्रावासों में मांसाहार खाना बना था। किंतु अपनी संकीर्ण विचाराधारा के कारण पहले वामपंथी छात्रों ने लाठी-डंडों के साथ कावेरी छात्रावास में हो रही हवन-पूजा में व्यवधान डाला और फिर रात में मांसाहार व्यंजन की हठ करके मारपीट शुरू कर दी। यह वामपंथियों का चिरपरिचित दोहरा चरित्र ही है, जो मुस्लिमों प्रतिदिन द्वारा खुले (सड़क-उद्यान सहित) में नमाज पढ़ने, मस्जिदों में रोजाना कई बार लाउडस्पीकरों पर अज़ान बजाने और सार्वजनिक स्थानों पर रोजा-इफ्तार को ‘सेकुलरवाद’ बताते थकते नहीं, किंतु उनके लिए हिंदुओं का प्रशासकीय अनुमोदित एकदिवसीय पूजा-अनुष्ठान, भजन-कीर्तन और तीज-त्योहार एकाएक ‘सांप्रदायिक’ हो जाता है।
बात केवल यही तक सीमित नहीं है। 3 अप्रैल 2022 को उत्तरप्रदेश स्थित विख्यात गोरखनाथ मंदिर में मोहम्मद मुर्तजा अब्बासी ने ‘अल्लाह-हू-अकबर..’ नारे के साथ प्रवेश करने का प्रयास करते हुए दो सुरक्षाकर्मियों को धारदार हथियार से घायल कर दिया था। हमलावर आइआइटी बॉम्बे से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुका है। जो वर्ग मुस्लिम भीड़ द्वारा रामनवमी शोभायात्रा पर पथराव को ‘आपत्तिजनक’ भजन-कीर्तनों की प्रतिक्रिया बताकर उचित ठहराने का प्रयास कर रहे है, वही जिहादी मुर्तजा को मानसिक रूप से असंतुलित बताकर उसका बचाव कर रहे है। यह स्थिति तब है, जब पूछताछ में जांचकर्ताओं ने मुर्तजा से शादी-तलाक के बारे में सवाल किया, तो बकौल मीडिया रिपोर्ट, उसने कहा- “अल्लाह के घर में यानी कि जन्नत में बहुत सारी हूरें मिलेंगीं। वहां बीवी का क्या काम?” क्या इस प्रकार के दावे अक्सर आतंकवादी नहीं करते? क्या इस आधार पर वाम-जिहादी-सेकुलर कुनबा सभी आतंकवादियों को मनोरोगी घोषित करना चाहता है? वास्तव में, यह सब ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन को सार्वजनिक विमर्श से दूर रखने और संबंधित चर्चा को ‘इस्लामोफोबिया’ का प्रतीक बनाने प्रयास है, जिसमें गैर-मुस्लिमों को मौत, इस्लाम या पलायन में से कोई एक विकल्प चुनने का चिंतन है।
ऐसे लोगों से मेरा प्रश्न है कि भारतीय उपमहाद्वीप में जो क्षेत्र मुस्लिम बहुल है या फिर जहां मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है, वहां हिंदुओं और अन्य गैर-मुस्लिमों का जीवन अत्यंत कठिन क्यों है? रक्तरंजित विभाजन के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश) में क्रमश: गैर-मुस्लिमों की आबादी 15-16 प्रतिशत और 28-30 प्रतिशत थी, वह 75 वर्ष पश्चात घटकर क्रमश: 2 प्रतिशत और और 9 प्रतिशत के नीचे पहुंच गई। रामनवमी शोभायात्रा हिंसक घटनाक्रम पर अधिकांश वही जमात चुप्पी साधे बैठा है या फिर खानापूर्ति हेतु इनकी निंदा कर रहा है, जो फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर घोर आपत्ति जताते और फिल्म को झूठी बताते हुए उसे ‘इस्लामोफोबिया’ का पर्याय घोषित करना चाहते है। तीन घंटे की इस फिल्म में सच्ची घटनाओं पर आधारित जिन भयावह दृश्यों को दिखाया गया है, वह वास्तव में, कश्मीरी पंडितों द्वारा झेले गए मजहबी दंश का एक तिहाई हिस्सा भी नहीं है। कटु सच तो यह है कि अपनी हिंदू पहचान के कारण मजहबी कोपभाजन का शिकार होने वाले हजारों-लाखों कश्मीरी पंडितों की वेदना और चीत्कार को कुछ मिनटों की एक फिल्म में समेटना असंभव है।
निर्विवाद सत्य है कि हिंदू समाज न केवल आठवीं शताब्दी से मजहबी ‘असहिष्णुता’ का शिकार हो रहा है, अपितु सदियों बाद भी वे उन क्षेत्रों में सर्वाधिक ‘असुरक्षित’ है, जहां का मूल बहुलतावादी हिंदू चरित्र नगण्य हो चुका है। ऐसा नहीं है कि मूल भारतीय समाज में वीरता, पराक्रम और संघर्ष करने की क्षमता का कोई नितांत आभाव है, वास्तविक चिंता का विषय तो समाज के एक वर्ग में चैतन्य की कमी और अपनी आधारभूत संस्कृति-पहचान प्रति हीनभावना से ग्रस्त होना है। इस पृष्ठभूमि में रही-सही कमी छद्म-सेकुलरवाद और भारत-हिंदू विरोधी वामपंथी-जिहादी दर्शन पूरी कर रहे है।
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