मुकेश अम्बानी जी की असीम अनुकम्पा से भारत एक ट्रोल प्रधान देश बन चुका है. प्रतिदिन के दो जी बी डेटा का अंतिम इकाई तक उपभोग करने की लालसा में मुद्दों की अनंत भूख पैदा हो चुकी है.
ट्रोल करते करते हम ऐसी समुद्री मछली बन चुके हैं जिनको शिकार न मिले तो अपने ही बच्चों को खा लेती है. जब ट्रोल करने के लिए कोई सिग्नीफिकेंट मुद्दा या व्यक्ति नहीं मिलता तो अपने ही लोगों को आपस में ट्रोल करने लग जाते हैं.
पिछले दिनों आया यशराज बैनर की फ़िल्म पृथ्वीराज का ट्रेलर फिर उदाहरण है कि कैसे मुद्दों के आभाव में कुछ भी ट्रेंड हो जाएगा.
अच्छा इसमें सबसे महान विचारक वे हैं जो फ़िल्म नहीं, सीधा महराज पृथ्वीराज चौहान का ही मूल्यांकन करने लगे. जिनके शौर्य की अद्भुत गाथाएं युवाओं में पराक्रम का बीज अंकुरित करती आई हैं, जिनका जीवन लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत है, उनको कहा जा रहा है कि वे मूर्ख और कायर राजा थे. उन्होंने मोहम्मद गोरी को इतनी बार क्यों माफ़ किया….. वगैरह वगैरह..
क्या पृथ्वीराज चौहान का सारा मूल्यांकन तराइन के द्वितीय युद्ध पर ही किया जाना चाहिये?
दरअसल हम अभ्यस्त हैं अपने पूर्वजों के शौर्य को उपेक्षित कर के एक मात्र पराजय पर सारा अवधान केंद्रित करने के. क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से जो शिक्षा का पाठ्यक्रम है वो डिज़ाइन ही इसी षड़यंत्र के तहत किया है कि सारे भारतवासी स्वयं को एक हारी हुई और नाकाम प्रजाति मान लें..
पृथ्वीराज चौहान के विषय में कृपया विस्तार में अध्ययन करें. तराइन के प्रथम युद्ध में, उसके बाद 15 से अधिक छोटे युद्धों में गोरी बुरी तरह पराजित किया गया. कृपया इन विजयों को एक हार के सामने धूमिल न करें.
रही क्षमा की बात.. तो हिन्दू धर्म सहिष्णुता ही सिखाता है.
ये विडंबना ज़रूर है कि यही सद्गुण ही हमारी दुर्बलता भी सिद्ध हुआ. और दुर्बलताएं जो भी हैं, यथाशीघ्र दूर की जानी चाहिये.
अब आते हैं फ़िल्म पर..
आपको अक्षय कुमार पृथ्वीराज नहीं लग रहे. क्योंकि आप महाराणा प्रताप की पेंटिंग्स को पृथ्वीराज चौहान मान कर तुलना कर रहे हैं. क्या अक्षय से बेहतर मार्शल आर्ट्स का कोई जानकार है फ़िल्म इंडस्ट्री में?
क्या उससे बेहतर एक्शन सीन कोई दे पाता है? मुझे तो आज भी अक्षय की पुरानी एक्शन फ़िल्म बेहद पसंद हैं. क्या आप अक्षय कुमार की फ़िल्म केसरी भूल गए?
एंटीहिन्दू गैंग का विरोध कीजिये. लेकिन अक्षय?
देश प्रेम की बात करे तो आडंबर.. आडंबर हो या रियलिटी, महत्पूर्ण यह है कि राष्ट्रवादी व्यवहार कर रहा है. और हमें राष्ट्रवादी व्यवहार को ही पुनर्बलित करना है.
रही दक्षिणभारत की फिल्मों की बात, तो भाई ये सेक्युलरिज़्म का नाटक उधर भी चलता है.
क्या RRR में जबरन सेक्युलरिज़्म नहीं डाला गया था?
मुझे भी दक्षिणभारत का संस्कृति को सहेजना पसंद है. पर कृपया एक बार दक्षिण के कलाकारों के विचार हिंदी पट्टी वालों के विषय में अवश्य जान लें. वे हिंदी भाषा और हिंदीभाषियों को खुद से बेहद कमतर मानते हैं.
राष्ट्रीय एकता का मैं प्रबल पक्षधर हूँ. पर अपने भाषाई स्वाभिमान को किनारे कर के किसी के क़दमों में बिछ जाने का पक्ष मैं कभी नहीं ले सकता. गले मिलूंगा पर गर्दन गर्व से उठा कर ही मिलूंगा।.
अपनी नफ़रत में हिंदी इंडस्ट्री में आने वाले सुखद और सकारात्मक परिवर्तनों को इग्नोर न कीजिये.
ये वही फ़िल्म इंडस्ट्री है जहाँ जोधा अकबर जैसी अफीमी फ़िल्में बनती थीं. यहाँ कभी प्राचीन भारत की गौरवशाली गाथाओं पर फ़िल्में बनेंगी, ये किसी ने सोचा नहीं था.
आज अगर पृथ्वीराज जैसी फ़िल्में बन रही हैं तो उसका व्यापक स्तर पर समर्थन करें जिससे हम भविष्य में महाराणा प्रताप, शिवाजी, राणा सांगा जैसी फ़िल्में देख सकें. बिना फ़िल्म देखे कृपया नकारात्मक महौल न बनाएँ.
शेष… राजा राम सबका कल्याण करें..??