मुंबई। मुंबई में संस्कार भारती द्वारा आयोजित सिने सृष्टि- भारतीय दृष्टि कार्यक्रम में अपना बीज वक्तव्य देते हुए प्रख्यात अभिनेता -निर्देशक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा कि सिनेमा में भारतीयता होना आवश्यक है। उन्होंने बताया कि आजादी के आंदोलन को फिल्म से जोड़ने का सुझाव किसी ने बापू को दिया तो वे बोले फिल्म वालों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसपर बापू को पत्र लिखा था।
सिनेमा से पहले नाटक दृश्य श्रव्य माध्यम था। भरतमुनि ने वेद तुल्य नाट्य वेद का निर्माण कब और क्यों लिखा! मनोविनोद का वह साधन जो देखने व सुनने योग्य हो उस पांचवें वेद की रचना करने के लिए ब्रह्मा जी ने आदेश दिया। प्रजापति ने चारों वेदों से लेकर दैत्यदैव नाटकम् बनाया।
‘इंद्र ध्वज’ नाटक प्रस्तुत हुआ तब विरुपाक्ष ने नाटक को रोकने की कोशिश की। उसके आरोप थे कि उसके पूर्वजों का गलत इतिहास बताया गया है। तब साम दाम दंड भेद की रीति लेकर इंद्र आए। खुले में पहले नाटक होता था वह थियेटर में होने लगा।आपने इस बात को दुहराया कि जब सिनेमा में भारतीयता होगी तो वह चलेगा।
१३ मई १९५२ को देश की पहली चुनी हुई सरकार के लिए संसद के सत्र का प्रथम दिन था जिसने देश के स्वाधीन जीवन की नींव रखी थी। आज भी वही १३ मई है जब संस्कार भारती सिने टाकीज नामक दो दिनी आयोजन कर रही है जिसके विचार- मंथन से देश का सिनेमा राष्ट्र के निर्माण में अपने अधिकतम योगदान की प्रेरणा पाएगा। यह उद्गार केंद्रीय संस्कृति राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने व्यक्त किये। वे संस्कार भारती -मुंबई विश्वविद्यालय तथा इंदिरा गांधी कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय सिने टाकीज कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे।
अपने वक्तव्य में श्री मेघवाल ने विवेकानंद एवं मैना देवी प्रकरण का वर्णन करते हुए दृश्य श्रव्य माध्यम की महत्ता को भी रेखांकित किया। आपने कहा, विवेकानंद जी बड़े महापुरूष थे लेकिन वे खेतड़ी के एक नाटक कार्यक्रम में सम्मिलित होने से मना कर देते हैं। वे मैनाबाई का गायन सुनना नहीं चाहते, राजा अरिजीत सिंह जी के दबाब पर भी न आए। मैना बाई ने विवेकानंद को चुनौती दी मेरे अंदर बैठा नर व नारायण आपको दिखता क्यों नहीं।
स्वामी साधना कक्ष जाते हुए रूक जाते हैं यह सुनकर कि ‘ प्रभु मेरे अवगुण चित्त न धरो’
उस सभा में स्वामी विवेकानंद रो रहे थे और दूसरी वह मैना बाई रो रही थी। जैसे भजन पूरा हुआ स्वामीजी ने क्षमा मांगी।
१३ मई १९५२ को पहली बार चुनी हुई सरकार की पहली संसद बैठी थी।उसमें चर्चा हुई -पहले चुनाव में कम मतदान हुआ अगर सिनेमा हॉल में विज्ञापन दें तो लोग वोट देना व उसका महत्व समझेंगे।
दूर हटो दुनियावालो! ये भारत हमारा है गानेवाले हमारे सिनेमा ने क्या अपना योगदान नहीं दिये?
भीलों ने एक माह तक रोके रखा अंग्रेजों को,१७ मई १९१३ को १५०० भील शहीद हो गए। गोविंद गुरू ने कहा तुम देश के लिए मरे हैं प्रकृति इसे भर देगी। ये १५०० भील मरकर अंग्रेजों की चूलें हिल गयी हैं। १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया।
कानपुर के विठूर विद्रोह हुआ।१८५७ में, पहलवान गंगू मेहतर हाथ में तलवार लेकर २०० अंग्रेजों को मार डाला।उसे सोये हुए स्थिति में अंग्रेजों ने पकड़कर पेड़ पर फांसी दी। ये ऐसी घटनाएँ हैं जिनपर फिल्म अवश्य बनायी जानी चाहिए।
उन्होंने आशा व्यक्त की कि इस दो दिनी कार्यक्रम में निश्चय ही मंथन से अमृत निकलेगा और देश को विश्वगुरु बनाने में सहयोगी होगा।
इस सत्र की विशिष्ट अतिथि प्रख्यात अभिनेत्री -निर्देशक व सेंसर बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष सुश्री आशा पारेख ने कहा कि सिनेमा सृष्टि से जुड़े रहने का अभिमान है। हमारा देश विविधताओं से भरा है। सिने टाकीज का प्रभाव बढ़ेगा।
सिनेमा पहले मनोरंजन का माध्यम था अब वह विचारों का निर्माण करने का यंत्र है।
D इससे पूर्व इस आयोजन के सलाहकार समिति के सदस्यों के वी विजेंद्र प्रशाद, जाह्नु बरुआ, विक्टर बनर्जी, वामन केंद्रे का अभिनंदन किया गया। इसके अलावा नईदुनिया (इंदौर) के फिल्म संपादक स्वर्गीय श्रीराम ताम्रकर द्वारा लिखी पुस्तक ‘एनसायलक्लोपीडिया ऑफ इंडियन सिनेमा’ का विमोचन किया गया।
इंदिरा गांधी कला केंद्र के सचिव सच्चिदानंद जोशी ने उद्घाटन -सत्र में कहा कि यह महत्वपूर्ण आयोजन है। पढ़ने पर १५-२०%, सुनकर ३०% और ऑडियो वीडियो का प्रभाव ६०% बनी रहती है। एवी कंटेंट की दिमाग पर रिटेंशन ज्यादा होती है।यह नरेटिव्स बनाने का दौर है इसलिए आवश्यक है भारतीय सिनेमा के प्रति चिंता हमारा कर्तव्य है। यह सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि चेतना फैलाने के लिए बहुत प्रभावी माध्यम है। यह महत्वपूर्ण अकादमिक आयोजन है।मंत्री अर्जुन जी प्रख्यात लोकगायक भी हैं।
आगे आनेवाली लड़ाई विचारों की है, सेना की तरह बुद्धिजीवी समाज को नरेटिव की लड़ाई खुलकर लड़नी होगी।
इस अवसर पर मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ सुभाष पेडनेकर ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि नई पीढ़ी को प्रेरित करनेवाली फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता है। उन्होंने रेखांकित किया
समापन समारोह में प्रसिद्ध गीतकार एवं सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष मुख्य अतिथि प्रसून जोशी ने कहा कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत की चर्चा होती है पर विष की बात भी होनी चाहिए। मंथन की प्रक्रिया पर भी बात होनी चाहिए। बीज को बोने का काम भी महत्वपूर्ण है। अब कंटेंट सृष्टि की बात होनी चाहिए। आज विचार को तलवार से नहीं दबाया जा सकता। भारतीयता को बचाने नहीं विस्तार देने की आवश्यकता है।
वर्चुअल रियलिटी और गेमिंग बहुत बड़ा क्षेत्र होने जा रहा है। संस्कृति का बीजारोपण उनमें भी करना चाहिए। जब आपको दिखता है तो आप उसे महसूस करते हैं।
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने बीज वक्तव्य देते हुए कहा कि कला और संस्कृति को धर्म, अर्थ, यश के साथ समाज को उपदेश देने का काम भी करना चाहिए। भारत का अस्तित्व स्वधर्म ही है।फिल्म निर्माण का काम भी तब स्वाधीनता संग्राम का अंग था। कला एवं सिनेमा को भारत के संस्कृति से जोड़ना चाहिए।
अजय भांम्रे जी कार्यकारी कुलपति ने कहा – मुंबई विवि में लोककला अकादमी, संगीत कला, नाटक पर पढ़ाई हो रही है।अन्य विषय भी शीघ्र शुरू होंगे।
इस अवसर पर प्रसून जोशी के हाथों फिल्मकार सुभाष घई को सम्मानित किया गया। सुभाष घई ने संस्कार – भारती की भूरि -भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि छुट्टियों का उपयोग बच्चों को गीता -महाभारत आदि पढ़ने और उसका सार लिखने के लिए कहें तो वह भारतीय संस्कृति को समझ सकेंगे। हमारे शास्त्रों में बीस हजार कहानियाँ हैं जिनपर फिल्म नहीं बनी हैं पर बनायी जानी चाहिए।
इससे पूर्व विशिष्ट अतिथि नीतीश भारद्वाज ने कहा कि नाट्यशास्त्र का प्रयोजन मनोरंजन, व्यवसाय रहा होगा पर अब इतिहास संरक्षण, विचार प्रवाह और पूरे देश की फिल्म चिंतन और मंथन का विषय बन गया है। अगले २५ वर्षों में सिनेमा का नरेटिव क्या होगा यह जानना चाहिए।
सुनियंत्रित योजना के तहत भारत के उपलब्धियों को दूसरे ले गए। हमें अपना सांस्कृतिक पहचान बनाने की आवश्यकता है। सिनेमा माध्यम का उपयोग विचार निर्माण के लिए होना चाहिए।