Sunday, November 24, 2024
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स्थापत्यकला का चमत्कार कीर्ति स्तम्भ

जैन धर्म की आकर्षक कारीगरी पूर्ण प्रतिमाओं, धार्मिक प्रतीक चिन्हों, लोकजीवन प्रतिमाओं से सुसज्जित कीर्तिस्तंभ अपने आप में स्थापत्यकला और मूर्तिशिल्प का चमत्कार है। राजस्थान के जग विख्यात चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित कला संसार की इस महान कृति को श्रद्धालु और सैलानी अपलक निहारते रहने को मजबूर हो जाते हैं और मंत्रमुग्ध हो उन अनाम शिल्पियों के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं जिन्होंने अपनी हथौड़ी और छेनी से कल्पनाओं को पाषाण में साकार किया था। पूरे स्तम्भ में ऊंकेरी गई प्रतिमाएं जादुई सम्मोहन लिए हैं।

सात मंजिला और करीब 24 मीटर ऊंचा स्तम्भ सोलंकी शैली में निर्मित है। ऊपर जाने के लिए अंदर की और गोलाई मेंं 69 सीढ़ियां बनाई गई हैं। स्तम्भ का 30 मीटर चौड़ा आधार ऊपर जाते – जाते 15 मीटर रह जाता है। कीर्तिस्तम्भ प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ जी को समर्पित है। इस पर जैन प्रतिमाओं और प्रतीकों के साथ – साथ विष्णु के अनेक रूपों,उनके अवतारों,ब्रह्मा, शिव, अर्धनारीश्वर, उमा – महेश्वर, लक्ष्मीनारायण, सावित्री, हरिहर, पितामह, ऋतु,आयुध,दिकपाल, रामायण एवं महाभारत की सैंकड़ों मूर्तियों का अंकन किया गया है। मूर्तियों के ऊपर या नीचे नाम भी अंकित है। सबसे ऊपरी मंजिल से किले का विहंगम दृश्य मनोहारी दिखाई देता है।

माना जाता है कि विशाल कलात्मक कीर्तिस्तम्भ का निर्माण बघेर वाल जैन व्यापारी जीजाजी कथोड एवं पुन्यसिंध ने विक्रम सम्वत 1357 (1300 ई.) में करवाया था। निचले तल के बाहरी भाग में चारों दिशाओं में तीर्थंकर आदिनाथ की खड़ी विशाल प्रतिमा प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। इसके उपर की मंजिलों को सैकड़ों जैन देवताओं से सजाया गया है। मूर्तियों में तत्कालीन सामाजिक जीवन का शायद ही कोई विषय हो जो अछूता रह गया हो। स्तम्भ के चारो और लगी छोटी – छोटी नृत्यांगनाओ की मूर्तियां बड़ी सुन्दर तरीके से उकेरी गई है। सबसे ऊपरी मंजिल 12 स्तम्भ पर आधारित एक कलात्मक मंडप है। कीर्ति स्तम्भ से सम्बन्धित कुछ शिला लेख पाए गये हैं जिनका वर्णन डॉ. गोपीनाथ शर्मा की पुस्तक राजस्थान के इतिहास के स्रोत में किया गया है।

कीर्ति स्तम्भ के समीप ऊंची जगती पर गर्भगृह एवं मंडपयुक्त महावीर स्वामी को समर्पित जैन मंदिर का निर्माण चौदहवीं शताब्दी में किया गया था। मन्दिर का बाह्य भाग मूर्तियों से अलंकृत है। मदिर के पार्श्व की और पीछे की दीवारों में लगी मूर्तियों में कमनीय नायिका का अद्भुत अंकन किया गया है।

श्री सातबीस देवरी जैन मंदिर
श्री सातबीस देवरी के नाम से प्रसिद्ध मंदिर अपने भव्य आकर्षक रूप में सैलानियों को लुभाने के साथ – साथ जैन धर्म के गौरव एवं समृद्धि की गाथा सुनाते हैं। मुख्य मंदिर में गर्भगृह, अन्तराल, सभा मण्डप, मण्डप, त्रिक मण्डप एवं मुख मंडप युक्त मंदिर का जंघा भाग देवी देवताओं एवं अप्सराओं की मूर्तियों से अलंकृत है। मूल मंदिर में तथा गलियारों की देवरियों में 47 पाषाण मूर्तियाँ है।

सातबीस देवरी के इस तीन मण्डप वाले मंदिर के चारों ओर गलियारों में 26 देवरियाँ होने से इसे सातबीस देवरी मंदिर कहा जाने लगा। इस सात बीस देवरी मंदिर समूह के पूर्व में विशाल प्रांगण के पश्चात् दो पूर्वाभिमुख मंदिर है जिनकी बाहरी दीवारों का शिल्प चमत्कृत करने वाला है। उत्तर दिशा के पाश्र्वनाथ प्रभु के मंदिर का निर्माण 1448 सन् में भंडारी श्रेष्ठी (सभवतः वेला) जिन्होंने श्रृंगार चंवरी का भी जीर्णोद्धार कराया था, द्वारा निर्मित है। इसके गंभारे में 3 मूर्तियाँ है। गंभारे के बारह के बड़े आलियों में उत्तर में चित्तौड़ उद्धारक आचार्य विजय नीतिसूरिश्वरजी की एवं दक्षिण में युगान्तरकारी आचार्य हरिभद्र सूरिजी की सुन्दर एवं भव्य पाषाण मूर्तियाँ विराजित है।

दक्षिण दिशा के पूर्वाभिमुख पाश्र्वनाथ मंदिर का निर्माण तोलाशाह दोशी व उनके पुत्र कर्माशाह दोशी द्वारा सन् 1530 में करवाया गया था। इसके गंभारे में तीन पाषाण मूर्तियाँ है। देवरी में पद्मावती मां की सुन्दर मूर्ति है। बाहर देवरी में दो एवं प्रभु की एक पाषाण प्रतिमा कुल 7 प्रतिमाएँ है।

मूलनायक आदिनाथ भगवान के दाएँ बाएँ तीर्थंकर शान्तिनाथ एवं अजीतनाथ की प्रतिमाएँ हैं। मुख्य मंदिर के बाहर सेवा के दृश्य हैं। नीचे के मण्डप के वितान में कई सुन्दर दृश्य है इसमें 16 नर्तकियों को अंकित किया हुआ है। यहाँ भगवान आदिनाथ की जीवन-लीला के कई दृश्य उत्कीर्ण है। मंडोवर पर कई प्रतिमाएँ बनी है। नीचे के मुख्य भाग में चकेश्वरी, लक्ष्मी, क्षेमकरी, ब्राह्मणी, महासरस्वती आदि की प्रतिमाएँ है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर विविध प्रकार के कोरणी, तोरणद्वार, मण्डप आदि सभी पर की गई शिल्पकारी स्तब्धकारी है जो असाधारण कला कौशल का भव्य प्रदर्शन करती है। सम्पूर्ण मंदिर में 163 पत्थर के कलात्मक स्तंभ देलवाड़ा, रणकपुर, कुंभारिया आदि मंदिरों की शिल्प कला के समान दिखाई देते हैं।

रामपोल से उत्तर की ओर जाने पर रतनसिंह राजमहल एवं रत्नेश्वर तालाब के पास छोटा सा कलात्मक भगवान शांतिनाथ जी का मंदिर है जिसे सन् 1175 में बनाये जाने का लेख है। भगवान श्री शांतिनाथ की 31 इंच सुन्दर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सन् 1444 में सोमसुन्दरसूरि द्वारा की गई थी। इसी परिसर से जुड़े देरासर में भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर है। इन दोनों मंदिरों का जीर्णोद्धार सन् 1914 में फतहसिंहजी दरबार के समय शाह मोतीलाल चमनलाल चपलोत द्वारा करवाया गया था।

गौमुख कुण्ड पर सुकोशल मुनि का मंदिर और इसके ऊपर चौमुखा पाश्र्वनाथ भगवान का मंदिर स्थित हैं।

जैन मंदिरों के अलावा दुर्ग में विजय स्तम्भ, पद्मिनी महल, काली मां का मन्दिर, स्मधिश्वर एवं मीरा मन्दिर, फतह प्रकाश संग्रहालय, बनवीर वाल, राणा सांगा के महल, जौहर स्थल, गौमुख कुंड आदि अनेक ऐतिहासिक जगह दर्शनीय हैं। चित्तौड़गढ़ हवाई सेवा, रेल सेवा एवं बस सेवा से पूरे राज्य और देश से जुड़ा है। निकटतम हवाई अड्डा करीब 93 किमी दूर डबोक में स्थित है।

(लेखक राजस्थान सरकार के जनसंपर्क विभाग के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)

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