आजादी के दीवानों के लिए खादी महज एक वस्त्र नहीं था बल्कि वह उनके स्वाभिमान का प्रतीक भी था। जब हम हिन्दुस्तान कहते हैं तो खादी का खाका हमारे सामने खींच जाता है। इतिहास साक्षी है कि स्वदेशी, स्वराज, सत्याग्रह के साथ चरखे और खादी ने भारत की आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभायी है। युगीन कवि सोहनलाल द्विवेदी की पंक्तियां बरबस स्मरण हो आती है- खादी के धागे धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा/ माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। इन दो पंक्तियों में खादी का टेक्सर आपको देखने और समझने को मिलेगा। खादी का रिश्ता हमारे इतिहास और परम्परा से है। आजादी के आंदोलन में खादी एक अहिंसक और रचनात्मक हथियार की तरह थी। यह आंदोलन खादी और उससे जुड़े मूल्यों के आस-पास ही बुना गया था। खादी को महत्व देकर महात्मा गांधी ने दुनिया को यह संदेश दिया था कि आजादी का आंदोलन उस व्यक्ति की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आजादी से जुड़ा है, जो गांव में रहता है और जिसकी आजीविका का रिश्ता हाथ से कते और बुने कपड़े से जुड़ा है, और जिसे अंग्रेजी व्यवस्था ने बेदखल कर दिया है। अब खादी से जुड़ा यह इतिहास भी लोगों को याद नहीं है और वक्त भी काफी बदल गया है।
खादी के जन्म की कहानी भी रोचक है। महात्मा गांधी लिखा है- हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बंद किया और यह निश्चय किया कि वे हाथ-करघे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे। ऐसा करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। हिंदुस्तान के बुनकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने मे होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमे वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन-दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमें मिली। हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरंत बुन सके, ऐसी स्थिति तो थी ही नहीं। इस कारण से बाहर के बुनकरों से हमें अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवा लेना पड़ता था। देशी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नहीं था। बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे, क्योंकि हमारी मिले सूत कातती नहीं थी। आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती हैं, बहुत महीन तो कात ही नहीं सकती। बड़े प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा। इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रों में उसका प्रचार किया यों हम कातने वाली मिलों के अवैतनिक एजेंट बने। मिलों के सम्पर्क मेंं आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमें मिली। हमने देखा कि मिलों का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था। वे हाथ-करघे की सहायता स्वेच्छा से नहीं, बल्कि अनिच्छा से करते थे। यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेंगे नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी।
खादी की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस खादी ने अंग्रेजों की आर्थिक ताना-बाना को छिन्न-भिन्न कर दिया था। खादी के कारण अंग्रेजों की अकूत आय टूट रही थी और वे कमजोर हो रहे थे। भारत को स्वाधीन कराने में खादी की अहम भूमिका रही है। खादी भारत की अस्मिता का प्रतीक है और यह खादी ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भर भारत का एक रास्ता है जिसे अपनाकर हम एक नवीन भारत के निर्माण का सपना साकार कर सकते हैं। यह मसला थोड़ा दिल को कटोचती है लेकिन सच है कि भारत की खादी, भारत में ही मरणासन्न अवस्था में है। आम आदमी की पहुंच से दूर होती खादी अब सम्पन्न लोगों के लिए फैशन का प्रतीक बन गया है। इन सबके बावजूद उम्मीद अभी मरी नहीं है। आंकड़ों पर जायें तो प्रधानमंत्री के प्रयासों से खादी का कारोबार लगातार बढ़ रहा है लेकिन इस बढ़ते कारोबार के इतर गांव की खादी अभी भी नेपथ्य में है। खादी को तलाशना होगा और इसके लिए एकमात्र विकल्प है कि हम खादी को हर घर की अस्मिता का प्रतीक बनायें।
मत विभिन्नता के बाद भी यह माना जा सकता है कि समय के सााथ खादी वस्त्रों के निर्माण एवं खादी को व्यवहार में लाना समय की जरूरत है। जब देश के प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर भारत की कल्पना करते हैं और प्रयास करते हैं तब खादी उद्योग को विस्तार देने की जरूरत हो जाती है। यह भी तय है कि खादी अन्य वस्त्रों के मुकाबले महंगा है लेकिन इस बात का प्रयास किया जाना चाहिए कि खादी फैशन का वस्त्र ना होकर व्यवहार का वस्त्र बने। खादी को व्यवहार में लाने और उसे आगे बढ़ाने में युवाओं की भूमिका सार्थक हो सकती है, बशर्तें उन्हें खादी के विषय में अवगत कराया जाए और बताया जाए कि खादी केवल वस्त्र नहीं है बल्कि स्वाभिमान का प्रतीक है। खादी को प्रोत्साहित करना जरूरी है, साथ ही ऐसी परिस्थितियां भी पैदा की जानी चाहिए कि खादी बुनना और पहनना किसी की मजबूरी नहीं, बल्कि गौरव और सम्मान का विषय हो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका समागम के सम्पादक हैं)