महज़ 16 दिन में मेरे लिए ये दूसरा सदमा था। 1 अगस्त 2018 को पूज्य पिताजी नहीं रहे और 16अगस्त18 को मैने अपना आदर्श, अपना हीरो खो दिया।
अटल जी के भाषण सुनकर डिबेट बोलना सीखी। उनकी नकल उतारकर कई भाषण प्रतियोगिता जीतीं। एक तरह से अटलजी अपन के गुरु थे , वैसे ही जैसे द्रोण, एकलव्य के थे।
अटल जी का पहला भाषण जो अपनी स्मृति में है, वो अपन ने 1977 में गुना में सुना था, माधवराव सिंधिया के खिलाफ ,जिसमे उन्होंने महाराज के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला था। इसके पहले अपन ने उनको 1972 में राजगढ में सुना था ,चाचा के कंधे पर बैठकर। बस ये याद है कि अटलजी को सुना था , मगर उन्होंने क्या बोला वो याद नहीं।
तब से लेकेर आज तक उनकी नकल मारते रहे, उन जैसा बोलने की नाकाम कोशिश करते रहे ,मगर 52 साल में उनके पासंग भी नहीं पहुच पाए।
अगर कोई संतोष है ,तो इस बात का कि जीवन मे 2 बार अटलजी के साथ बोलने का मौका मिला।पहली बार1980 में उज्जैन के क्षीरसागर मैदान पर और दूसरी बार 1984 में देवास में। दोनों बार ये मौके भाजपा के तब के प्रत्याशी श्री बाबूलाल जी जैन ने दिलवाए थे।
देवास में तो अपन ने हद ही कर दी थी। अटलजी मंच पर आ गए ,तब भी अपन बोलते रहे। तत्कालीन भाजपा प्रत्याशी बाबूलालजी जैन पीछे से मेरा कुर्ता खींचकर भाषण समाप्त करने का इशारा करते रहे, और अपन निस्डल्ले की तरह भाषण देते रहे ,ताकि वक्तृत्व कला का बेताज बादशाह , भाषा का अप्रतिम जादूगर इस नाचीज की वक्तृत्व क्षमता को भी देख- सुन ले। बाद में इसी मंच पर जब अपन ने माला पहनाकर ,उनके चरण स्पर्श किये ,तो उन्होंने कुछ तिरछी नज़र से देख कर कंधे को हल्के से थपथपाया। भगवान जाने उनके मन में क्या था ,पर अपन ने तो उसे उनकी प्रशंसा और आशीर्वाद मान लिया ।
1984 में भाजपा की करारी हार के बाद ,ग्वालियर में उनका सानिध्य मिला। इस दौरान उनको नज़दीक से देखने -समझने का मौका मिला । उनकी तुनक मिजाजी , उनका लेखन, मिष्ठान प्रेम और यंहा तक कि उनकी पाककला भी देखी।
फिर संभवतः 1992-93 में वे चौथा संसार के कार्यक्रम में नेता प्रतिपक्ष के रूप में 3 दिन इंदौर ही रहे। तब मैं चौथा संसार में ही था और मुझे उनकी नजदीकियां हासिल हुईं। मुझे देखते ही उन्होंने पहचान लिया और मेरे घर के नाम से पुकारा। मेरे साथ साथ आदरणीय प्रभाष जोशी जी भी अचरज में पड़ गए कि इस दो कौड़ी के छोरे को ये महामना कैसे जानता -पहचानता है।
अपन उनके भानेज अमरीष के दोस्त थे ,जो सुरेश नगर ग्वालियर में हमारे पड़ोसी थे। कुछ अमरीष जी के कारण और कुछ डॉ योगेन्द्र मिश्र जी (अब स्वर्गीय )के कारण अटलजी के नज़दीक आने का सौभाग्य मिला था।
“मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं?”
इन पंक्तियों के लेखक ,
भारतीय राजनीति के अजातशत्रु, कविभूषण, नव भारत के युगद्रष्टा , भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की पुण्यतिथि पर अंतर्मन से प्रणाम..!ऐसा लग रहा है मानों खुद माँ सरस्वती आज अपने सबसे काबिल पुत्र के अवसान पर आवाक हो गई है, मौन हो गई है, मूक हो गई है।
अटल बिहारी बाजपेयी अमर रहे अमर रहे ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन्दौर में रहते हैं, संप्रति इन्दौर को सबसे बड़े न्यूज चैनल डिजियानी न्यूज से जुड़े हैं)